हीरा जनम अमोल है

January 1993

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भविष्य के रंगीले सपने देखना एक बात है और जीवन को योजनाबद्ध रीति-नीति अपनाकर प्रगति पथ पर अग्रसर होना दूसरी। जीवन एक असाधारण अवसर या अनुपम सौभाग्य है। यह ऐसे ही खाने-सोने में समय बिताने के लिए नहीं मिला।

लाटरी खुल जाने पर मिली हुई राशि को किन कार्यों में, किस प्रकार काम में लाया जाय यह योजना तेजी से बनती और कार्यान्वित होने लगती है। जो इस सम्बंध में लापरवाही बरतते हैं, उनके हाथ आया हुआ धन बेहिसाब रखा जाता और बेसिलसिले खर्च किया जाता है। इस प्रकार वह सुयोग अधिक समय टिकता नहीं। व्यर्थ के कार्यों में खर्च हो जाता है। तब पहले जैसी गयी बीती स्थिति हाथ रह जाने पर पश्चाताप भी कम नहीं होता। सही स्थिति उनकी भी होती है जिनने सृष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति मनुष्य जन्म के रूप में पाई तो सही पर उसे जैसे तैसे ही दूसरों की तरह आँख मीचकर खर्च हो जाने दिया।

मनुष्य अनुकरण प्रिय है। समीपवर्ती लोग जैसा भी भला-बुरा जीवन जीते हैं। परोक्षरूप में अपने को भी यही प्रेरणा मिलती रहती है कि कदाचित जीवन-यापन का यही तरीका सरल एवं सुगम है। यही स्वाभाविक भी है। इसलिए उसी के अनुकरण के लिए मन चलने और पैर उठने लगते है। आम आदमी का काम इसी ढर्रे को अपनाने से चल जाता है। उसे नये सिरे से नया कुछ सोचना नहीं पड़ता। साधारण जन्मों में पिछले जन्मों की पशु प्रवृत्तियाँ जाग्रत रहती हैं। वे ही मार्ग बताती और सूझ सुझाती रहती है। मनुष्य जीवन की गरिमा को समझ लेना भर पर्याप्त नहीं, वह तो कथा-प्रवचनों और धर्म-ग्रंथों में भी मिल जाती है। असली बात है उसे हृदयंगम करने की। मनुष्य जीवन की गरिमा को समझ लेना भर ही पर्याप्त नहीं, वह तो कथा-प्रवचनों और धर्म-ग्रंथों में भी मिल जाती है। असली बात है उसे हृदयंगम करने की। मनुष्य जीवन की कुछ ऐसी अनुपम एवं विशिष्ट महत्ता है कि जो उसे समझ सकेगा उसके लिए ही यह भी संभव होगा कि इस बहुमूल्य सौभाग्य का ऐसा कुछ उपयोग भी सोचे जो सामान्यों से आगे बढ़कर ऊँचा उठ कर हो।

मनुष्य जीवन एक कल्पवृक्ष है। इसकी शरीर संरचना ऐसी है जिसके द्वारा उन विभिन्न कार्यों को सँजोया जा सकता है जो सामान्य जीवधारियों के लिए संभव नहीं। इसी प्रकार उसका अपना चिंतन तंत्र भी इतना उच्चस्तरीय एवं दूरदर्शी है कि उसकी तुलना सृष्टि का अन्य कोई प्राणी नहीं कर सकता।

शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता का सुयोग यदि किसी लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सके तो उस दिशा में क्रमिक प्रगति तत्काल चल पड़ती है। यदि उसमें एकाग्रता, साहसिकता और एकनिष्ठ का समावेश हो तो प्रगति के अनेकों अवसर हस्तगत होते रहते हैं। साधन जुटाने, सहयोग पाने में उन्हीं की कठिनाई अनुभव होती है जो भीतर से पोले हैं। जिनका सामान्यतः कोई निश्चित लक्ष्य या स्थिर कार्यक्रम नहीं है।

जनसाधारण की जिंदगी खाने-पीने में ही बीत जाती है। मन लोभ-मोह और अहंकार में इस प्रकार जकड़ा रहता है कि उसे इस परिधि से आगे बढ़ने की और कोई सूझ सूझती नहीं। जिस राह पर अंधी भेड़ें झुण्ड बाँधकर चल रही हैं, उससे तनिक आगे पीछे हटकर चलने का साहस ही नहीं होता। इसी दशा में सामान्य स्तर का ही जीवन जीते हुए उसी मार्ग से श्मशान तक पहुँचना पड़ता है।

शरीर के लिए जिस प्रकार अन्न, जल और हवा की आवश्यकता समझी जाती है उसी प्रकार तीन बातें ऐसी हैं जिन्हें श्रेष्ठ जीवन जीने से मिली उपलब्धि कहा जा सकता है। वे तीन हैं-

1-आत्म संतोष, 2-लोक सम्मान, 3-दैवी अनुग्रह। इन तीन को जिनने प्राप्त कर लिया, समझना चाहिए उसने वह सब कुछ प्राप्त कर लिया जो प्राप्त करने योग्य है। इन्हें त्रिलोक विजय समझा जा सकता है और यह भी अनुभव किया जा सकता है कि शरीर, बुद्धि और आत्मा को जो उपहार मिलना चाहिए था वह मिल गया।

किसे क्या करना चाहिए? यह अपनी योग्यता, रुचि और परिस्थितियों पर निर्भर है। किंतु दिशा धारा तो स्पष्ट होनी ही चाहिए। यात्रा पथ का, लक्ष्य का निर्धारण तो रहना ही चाहिए। कार्यों की विस्तृत भूमिका में जाना तो व्यक्ति की अपनी मनोदशा पर निर्भर है किंतु यह सुगम है कि उसकी एक मोटी रूपरेखा बना ली जाय और उस पर विश्वास-पूर्वक चल पड़ा जाय।

इन तीनों की प्राप्ति के लिए दो आधारों को अपनाना पर्याप्त है। इनमें से एक है आत्म संयम, दूसरा पुण्य परमार्थ। इन दोनों को मजबूती से पकड़े रहने पर कोई भी किसी भी स्थिति का व्यक्ति अपने स्तर की सफलता उपलब्ध कर सकता है। अपनी व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षायें ही लोभ-मोह और अहंकार के दलदल में फँसाती है। अमीरी, बड़प्पन, प्रदर्शन, अधिक सुविधाएँ, उपभोग का लालच ही प्रस्तुत जन समुदाय का प्रेरणा केन्द्र बनकर रह गया है। इन्हीं के सहारे लोग अपनी पूरी जिंदगी काटते हैं। सीधे उपायों से बढ़ी-चढ़ी तृष्णा का समापन नहीं हो पाता तो बुरे से बुरे कुकर्म करते हैं। यही दुष्प्रवृत्ति मनुष्य को नीचे गिराती है। पशुओं से भी गये-गुजरे पिशाच स्तर तक घसीट ले जाने का प्रयत्न करती है। इस पतन पराभव का उन्मूलन करना हो तो “सादा जीवन उच्च विचार” की सूक्ति को मन के कोने -कोने में बिठा लेना चाहिए। औसत भारतीय जीवन इसी का मापदण्ड है। व्यक्तिगत नीतिमत्ता भी इसी में समायी हुई है। संयमी का ही दूसरा नाम सदाचारी है। सदाचारी को ही ब्रह्मचारी, साधनारत एवं तपस्वी कहा जा सकता है। इसमें अपने धन, समय, विचार, और लपकते मन पर नियंत्रण प्राप्त करना पड़ता है। जो यह कर सका उसे आत्मकल्याण की साधना में सफल होकर रहने वाला समझना चाहिए।

यात्रा दोनों पैर क्रमबद्ध रूप से उठाते चलने पर पूरी होती है। आत्मोत्कर्ष का पहला चरण है-संयम। दूसरा चरण है, इसी के साथ जुड़ी हुई सेवा, जिसे पुण्य परमार्थ भी कहते हैं। अपने सुख को बाँट देना और दूसरों के दुख को बँटा लेना, यही है सेवा धर्म की आचार संहिता और विद्या। इसे कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक नहीं कि व्यक्ति को धनी होना चाहिए और दूसरों को धन दान करना चाहिए।

कभी-कभी ही किसी के ऊपर ऐसी मुसीबत आती है, जब वह अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में नहीं होता। वह बुरा समय जब तक रहे तब तक किसी को आर्थिक या शारीरिक सहायता भी नहीं दी जा सकती है। पर सदा न तो कोई देने की स्थिति में होता है और न लेने की। फिर सहायता के रूप में अनवरत चलने वाला क्रम एक ही हो सकता है, वह है -सत्परामर्श। लोग दिशा भूल कर कुमार्ग अपनाते और गई-गुजरी

जिंदगी जीते हैं। इससे उबारने का एक ही तरीका है कि जिन तक भी अपनी पहुँच हो, उन सभी को उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने-चरित्र चिंतन और व्यवहार को उत्कृष्ट रखने की प्रेरणा दी जाय। यही है सेवाधर्म जिसका निर्वाह कर सकना केवल संयमशीलों से ही बन पड़ता है। आत्मोत्कर्ष का मूलभूत आधार यही है।


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