विषमता मिटेगी, समता का युग आयेगा

January 1993

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समता वह प्रमुख आधार है, जिस पर नये युग की इमारत खड़ी होनी है। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो आकाश-पाताल जैसा अंतर आज दिखायी पड़ रहा है, उसे मिटाने और घटाने का समय अब आ गया है। असमानता-ईर्ष्या-द्वेष पैदा करती है। उससे गिरे हुए वर्ग में हीनता-दीनता एवं पतनोन्मुख प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं और उठे हुए वर्ग में विलासिता, अहंकार, लोभ एवं अनुदारता जैसे दोष-दुर्गुणों की बाढ़ आती चली जाती है। असमानता इतनी ही सह्य और क्षम्य है-जितनी हाथ की पाँच उँगलियों में होती है। परिस्थिति और आवश्यकता में अंतर होने से मनुष्यों का स्तर थोड़ा नीचा-ऊँचा भी रखा जा सकता है, पर उसकी वैसी अति नहीं होनी चाहिए जैसी आज है।

असमानता से मनुष्य जाति के बीच भारी खाई उत्पन्न की है और एकता की जड़ पर भयानक कुठाराघात किया है। ईर्ष्या-द्वेष की आग भड़काने का, अलगाव आतंक युद्धों और संघर्ष की विभीषिकाएँ उत्पन्न करने का कारण यह असमानता ही है, जिसने समाज को अपराध और पाप की आग में झोंक दिया। जिसकी वजह से एक ही समाज में असंख्य गुटों में बँटना पड़ा। परिणाम में उत्पन्न ढेर की ढेर विकृतियों ने सरलता-सौजन्यता को बुरी तरह कुचल-मसल डाला। सभी मनुष्य, भगवान के समान रूप से प्रिय पुत्र हैं। हरेक के कर्तव्य और अधिकार एक से हैं। सभी को प्रकृति-प्रदत्त अनुदानों का समान रूप से लाभ उठाने का अधिकार है। असमानता प्रकृति नहीं हैं, ईश्वर प्रदत्त नहीं है, मानवी दुर्बुद्धिजन्य है।

इन दिनों इंसान-इंसान के बीच असमानता जिन आधारों

पर टिकी है, मनीषी एरिक फ्राम ने उनका संकेत अपने ग्रंथ ‘द सेन सोसाइटी ‘ में किया है उनके अनुसार आधार ये हैं- (1) जाति (2)लिंग (3)धन (4) पद। तनिक हम भी अपनी व्यस्तता में से कुछ पल उबर कर सोंचे तो सही कि क्या प्रतिफलित मान्यताएँ सही हैं? यदि वे अनावश्यक, अनुपयुक्त और असत्य सिद्ध होती हों, तो विवेक का तकाजा यही है कि बिना किसी पूर्वाग्रह का मोह पाले, इन्हें परे फेंक दिया जाय। ऐसा करके हम समता की उस प्रक्रिया को जन्म देंगे-जिससे प्रेम और प्रसन्नता की सुख और संतोष की धारा बह निकले। जिस नवयुग-सतयुग के अवतरण के लिए युग ऋषि की साधना रही है, जिसके लिए वह स्वयं को तिल-तिल तपाते-गलाते रहे, जिसके लिए उन्होंने अपनी समस्त साधना-क्षमताओं की आहुति दी और जिसके लिए वह आज भी सूक्ष्म जगत में सतत् सक्रिय हैं-उसकी आधार भूमि समता ही है। ऊँच-नीच की खाइयाँ-खड्ड जब तक है दुनिया में अशाँति ही रहेगी। अज्ञान और अन्याय का सम्मिश्रित स्वरूप असमानता के रूप में प्रकट होता है। इस दो जीभ वाली विश्व विभीषिका को आस्तीन में छिपी सर्पिणी की तरह साथ रखकर हम चैन से नहीं बैठ सकते।

गाय, घोड़ा, बंदर, कबूतर, तीतर की भाँति मनुष्य भी एक जाति है। नृतत्वविज्ञानी अर्नेस्टर फिशर के ग्रंथ “सोशल आर्गेनाइजेशन “ के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि ऋतु और परिस्थिति के कारण मनुष्यों के रंग -रूप, आकृति-प्रकृति में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है, पर इससे उनके दरजे में कोई फरक नहीं पड़ता। इनसान भी एक प्राणी है और उस प्रकार के समस्त जीवों की एक ही जाति एवं स्थिति है। यह एक तथ्य है कि गरम देशों में जन्म लेने वाले काली चमड़ी के होते है। ठंडे देशों में जो पैदा होते हैं-उनकी चमड़ी गोरी होती है। मध्य एशिया के मंगोल नस्ल के पीले रंग-तिरछी आँखों और चपटी नाक वाले पाये जाते है।

यह रंग भेद केवल उत्पत्ति स्थान की जलवायु का अंतर बताता है। किंतु इस आधार पर उनके स्तर को नीचा-ऊँचा नहीं माना जा सकता। गोर लोग, काली चमड़ी वालों को, केवल रंग के आधार पर अपने से नीचा समझें, घृणा करें, मानवीय अधिकारों से उन्हें वंचित कर दें, यह अन्याय के सिवा और क्या है? संसार में रंग भेद को लेकर नीच-ऊँच की मान्यता बुरी तरह फैली हुई है। दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों तथा भारतीयों के साथ वहाँ के गोरे निवासी जो घृणा, बैर- भाव की नीति अपनाए हुए थे, उसके विरुद्ध महात्मा गाँधी ने चलाया था। अमेरिका में अभी भी संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। राष्ट्र संघ ने तथा विश्व के सभी विचारशील लोगों ने इसे अन्याय-मूलक और अवाँछनीय घोषित किया है। अब्राहम लिंकन, कनेडी आदि गोरे विचारशीलों ने आगे बढ़कर अपने वर्ग की इस संदर्भ में घोर निंदा की और प्रतिरोध में भारी त्याग भी किये। फिर भी गोरों का आग्रह अपनी सफेद चमड़ी के आधार पर उच्चता सिद्ध करने का ही है।

संसार में दूसरी जगहों पर तो गोरी-काली चमड़ी के आधार पर असमानता चल रही है, पर अपने देश में (भारतवासियों ने) तो इस दिशा में गजब ही कर दिया। एक परम्परा, एक ही रक्त,एक ही अंश, एक ही रंग के लोग कल्पित जाति-पाँति के आधार पर एक दूसरे को नीचा-ऊँचा मानने लगे हैं। विषमता की अति, इस सीमा तक पहुँच गई है कि तथाकथित ऊँची जाति वाले तथाकथित नीची जाति वालों के पास बिठाने तक में, मानवीय सामाजिकता के सामान्य शिष्टाचार एवं अधिकार तक से इंकार करते हैं। आदर्शवादी, धार्मिक और अध्यात्मिक कहे जाने वाले भारतीय समाज के माथे पर एक अति व्यंग और उपहास भरा ऐसा लाँछन है, जिसने उसकी गरिमा का मूल्य बुरी तरह गिरा दिया है।

किसी समय चारों वर्णों का सृजन गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर व्यवसायों के विभाजन की दृष्टि से किया गया था। उस व्यवस्था के निर्माताओं ने आज की दशा की कल्पना तक न की होगी। जातियाँ ही नहीं उपजातियों तक में बँटा हुआ भारतवर्ष बुरी तरह से विलगाव के रोग से ग्रसित हर दृष्टि से दीन-दुर्बल होता चला जा रहा है। देखने भर के लिए हम एक है, पर असलियत में जिस प्रकार संतरे के भीतर टुकड़े-टुकड़े के भीतर छोटे-छोटे टुकड़े भरे रहते हैं, उसी प्रकार हम जातियों -उपजातियों और नीच, ऊँच की मूढ़ मान्यताओं में बुरी तरह चिपके हुए है। बात इतने तक सीमित नहीं-यह विष राजनीति तक में प्रवेश कर चुका है। चुनावों में जीतने के लिए जाति-पाँत के आधार पर वोटरों का समर्थन प्राप्त करना एक प्रमुख तथ्य बन गया है। भीतर-भीतर पनपती इस दुर्बुद्धि के कारण देश के टुकड़े-टुकड़े होने, गृह युद्ध खड़ा होने-जैसे अनेकों खतरे आए दिन मँडराते रहते हैं।

असमानताओं में दूसरी, असमानता लिंग-भेद की है। पिछले दिनों सामंतवादी अंधकार युग में नर-नारी के बीच जो आकाश-पाताल जैसी खाई उत्पन्न हो गयी थी। वह धीरे-धीरे कम तो हो गयी है, पर अभी वह मूढ़ता अवाँछनीय रूप से विद्यमान है। पिछले दिनों तो नारी का मूल्य भेड़-बकरी जितना रह गया था। पति कभी भी पत्नी का परित्याग कर सकता था। पशुओं के मुँह पर नकाब नहीं चढ़ाए जाते, पर स्त्रियाँ मुँह पर नकाब चढ़ाकर पुरुषों से आगे निकल सकती थीं। पति के मर जाने पर स्त्रियों के लिए आजीवन वैधव्य भोगना या सती बनकर जल जाना ही मार्ग था, पर पुरुष पत्नी के मरने के बाद ही नहीं, उसके जीवित रहते भी अनेकों पत्नियाँ रख सकते थे। कन्या का जन्म दुर्भाग्य, पुत्र का जन्म सौभाग्य माना जाता था। कन्या को शिक्षा से स्वावलम्बन से वंचित रहना पड़ता था। एक तरह से अपाहिज एवं घर के पिंजड़े में बंद पंछी जैसी स्थिति उनकी थी। यद्यपि समय ने थोड़ा सुधार किया है। बड़े नगरों में स्थिति कुछ ठीक है, पर पिछड़े हुए देहातों में तो अभी भी वही दुर्दशा है।

नर और नारी-दो घटकों से मिलकर समाज बना है। दोनों की स्थिति-उपयोगिता-कर्तव्य एवं अधिकार समान है। इनमें से न कोई महत्वहीन है, न महत्वपूर्ण। न्याय की पुकार है कि दोनों को अपने व्यक्तित्व को समान रूप से विकसित करने का अवसर मिले। एकाँगी पक्षपातपूर्ण, कानून, प्रतिबंध, न्याय की कसौटी पर खरे न उतरेंगे। आज भले ही यह बात गले न उतरे पर कल तो इसे अनिवार्य शर्त के रूप में मानना होगा। जिस तरह जातीय जीवन में मनुष्य मात्र के नैसर्गिक और नागरिक अधिकारों को सम्मान के स्तर पर मान्यता देनी पड़ेगी। ठीक उसी तरह नारियाँ सिर्फ सम्मान की ही नहीं वर्चस्व की अधिकारिणी होंगी। राजतंत्र समाप्त हो गये, अब वर्ग तंत्र भी समाप्त होने जा रहा है। नये युग में किसी को इस आधार पर ऊँचा-नीचा न माना जाएगा कि उसका अमुक वंश में जन्म हुआ है। रंग-जाति या वंश के कारण किसी को न अहंकार जताने का अवसर रहेगा और न इस वजह से किसी को हीनता-दीनता अनुभव होगी।

तीसरा असमानता धन के आधार पर है। धनी और निर्धन की इसी असमानता के कारण एक व्यक्ति देवताओं जैसी सुख-सुविधाएँ भोगता है, और अप्रत्याशित सम्मान पाता है, जबकि निर्धन-भोजन, वस्त्र, चिकित्सा जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं से वंचित हो जाता है। प्रख्यात रशियन मनीषी प्रिंस को पारिकन ‘क्राँति की भावना’ में संकेत करते हैं, यह विषमता न तो ईश्वर प्रदत्त है, न भाग्य का खेल। यह समाज में प्रचलित अर्थ प्रणाली के दोषपूर्ण होने का परिणाम है। पूँजी पर व्यक्ति का अधिकार न होकर समाज का स्वामित्व हो। हर व्यक्ति को अपनी क्षमता के मुताबिक श्रम करने को बाध्य होना पड़े और आवश्यकता के अनुरूप साधन मिलें तो गरीबी-अमीरी का वर्तमान भेद देखते-देखते नष्ट हो सकता है। संग्रह पर उत्तराधिकार नियंत्रण रहे तो एक पहाड़ जैसी अमीरी-दूसरी खाई जैसी गरीबी के विक्षोभ उत्पन्न करने वाले दृश्य देखने को न मिलें। निःसंदेह प्रचलित अर्थतंत्र दोषपूर्ण हैं। उसी के कारण ठगी, चोरी, जुआ, शेयर घोटाला, शोषण, विलासिता जैसे अनेकों अपराध उत्पन्न होते हैं। इसे बदलना ही होगा। प्राचीन काल में ऐसा न था। तब अध्यात्मिक समाजवाद प्रचलित था। नियम-कानूनों के बल पर नहीं-विकसित संवेदनाओं के आधार पर परिग्रह को, अतिरिक्त उपभोग, विलासिता को पाप की मान्यता प्राप्त थी। अब वे परम्पराएँ नहीं रहीं तो राजसत्ता के नियंत्रण में धन के ऊपर समाज का स्वामित्व एवं वितरण व्यवस्था रहने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अगले दिनों यही प्रणाली प्रचलित होगी। लेकिन इसका ढाँचा मार्क्स की प्रणाली से पर्याप्त भिन्न और अलग होगा।

जिस नवयुग की आराधना में विचार क्राँति संलग्न है उसकी अर्थप्रणाली में समानता को ही आधार माना जायेगा। प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुरूप साधनों से काम चलाकर हर किसी को संतोष करना पड़ेगा। तब लालच से प्रेरित असंख्य अपराधों की तथा ईर्ष्या-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाली आत्मिक अशाँति की कोई गुंजाइश न रहेगी। न कोई निठल्ला रहेगा, न किसी को बेतरह पिसना पड़ेगा। जरूरत इस बात की है कि हममें से प्रत्येक जन-जन को इस नजदीकी परिवर्तन से अवगत कराएँ। सम्पन्न लोगों में अभी से भविष्य के अनुरूप-ढलने की नाती-पोतों के लिए जोड़ने-गाँठने की ममता छोड़ने, धन को उपयोगी सत्प्रयोजनों में खर्च करने की प्रवृत्ति आ जाए। राजतंत्र भी इसके अनुरूप स्वयं बदल डाले-जिससे आर्थिक समानता समाज में स्पष्ट दिखायी पड़ने लगे।

चौथी असमानता ‘पद’ की है। प्रतिभाशील एवं सुयोग्य व्यक्तियों को उनकी अतिरिक्त क्षमता के अनुरूप काम सौंपे जांय,, यह ठीक है। उन्हें अपनी ईश्वर प्रदत्त विशेषताओं-विभूतियों का लाभ जन साधारण को देते हुए अपना भाग्य सराहना चाहिए एवं महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर पाने का संतोष करना चाहिए। पद के कारण सरकारी अफसरों को जो ठाटबाट, असाधारण वेतन, अस्वाभाविक, अनावश्यक सम्मान मिलना गलत है। इस प्रलोभन में ‘पद’ प्राप्त करने के लिए अयोग्य लोगों में भी लिप्सा एवं प्रतिद्वन्दिता पैदा होती है। यदि उच्च पदों पर शाँत, संतोष एवं सेवा के अनुपात से उपलब्ध लोकश्रद्धा मात्र का ही लाभ मिले, और आज जो आर्थिक लाभ, अहंकार पूर्ति के अवसर अकारण मिलते हैं वे न मिलें तो अवांछनीय व्यक्तियों को उसके लिए धमाचौकड़ी मचाने का आकर्षण न रह जाय। फिर तो सिर्फ उदात्त व्यक्ति ही श्रेष्ठ आदर्श लेकर उन महान उत्तरदायित्वों को अपने कंधों पर उठाने के लिए तैयार हो।

राजा जनक, चक्रवर्ती नरेश चक्कवेण-राज्य प्रमुख तो थे, पर अपनी आजीविका हल चलाकर, थोड़ी-सी कृषि द्वारा उपार्जित करते थे। महाराज रघु भारत सम्राट होने पर भी सामान्य मिट्टी के बर्तनों में अपना काम चला लेते थे। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक और राष्ट्र के महामंत्री चाणक्य संतों-तपस्वियों जैसी सादगी अपनाते थे। महर्षि वशिष्ठ रघुवंशियों के राज्य संचालक एवं पुरोहित थे, पर उन्होंने अतिरिक्त सुविधाएँ नहीं ली। ईश्वर चंद्र विद्यासागर 500 रुपया मासिक वेतन पाकर भी सिर्फ 50 रुपये में अपना गुजारा करके शेष धन असमर्थ छात्रों की शिक्षा व्यवस्था में लगाते थे। उच्च पदों के महान दायित्व को ठीक तरह से समझ सकने की क्षमता इस प्रकार के उदार, उच्च चरित्र व्यक्तियों में ही हो सकती है।

प्राचीन काल की ब्राह्मण परम्परा की यही विशेषता थी कि मूर्धन्य व्यक्तियों को-वर्चस्व सम्पन्न पदाधिकारियों को साधारण जनता के स्तर का ही नहीं वरन् उससे भी कुछ कम-भौतिक सुविधाएँ लेकर संतुष्ट होना चाहिए। पदों के कारण उत्पन्न विषमता को यदि समाप्त न की जायेगी तो समाज का नेतृत्व अवाँछनीय व्यक्तियों के ही हाथ में रहेगा। धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक हर क्षेत्र में पद का गौरव तभी रहेगा जब उसका भार सुयोग्य व्यक्ति वहन करें और नैतिक सुयोग्यता की एक महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि पदाधिकारी जन साधारण को उपलब्ध होने वाली अथवा अपने लोक कार्यों के लिए मिली अनिवार्य सुविधाओं के अलावा व्यक्तिगत लाभ देने वाली सभी सुविधाओं से इनकार कर दें। अगले दिनों वर्ण, धन, लिंग की ही तरह पदों से उपजी विषमता को समाप्त होता देखा जा सकेगा।

इन पंक्तियों के द्वारा यह स्पष्ट किया जा रहा है कि नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। उसे कोई रोक न सकेगा। प्राचीन काल की महान परम्पराओं को अब पुनः प्रतिष्ठित किया जाना है। अंधकार युग की क्रूर विषमताएँ तिरोहित होने वाली हैं। विचार क्राँति आन्दोलन इसी का व्यापक उद्घोष -जन-जन को दी जाने वाली सूचना है। परिस्थिति के अनुरूप जो समय रहते बदल सकेंगे वे संतोष और सम्मान प्राप्त करेंगे और जो बदलेंगे नहीं, मूढ़ता के लिए दुराग्रह करेंगे, उनके हाथ अपयश, असंतोष एवं पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ न लगेगा।


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