नौ सद्गुणों की लड़ी है-यज्ञोपवीत का धागा

January 1993

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सुर्य के इर्द गिर्द नौ ग्रह घूमते हैं। नौ रत्नों की प्रमुखता गिनी जाती है। शरीर में प्रमुख नौ छेद हैं। यज्ञोपवीत के नौ धागे उन्हीं के प्रतीक हैं। एक जन्म पशु स्तर का होता है, जो पेट और प्रजनन की आपूर्ति सम्बन्धी क्रिया कलापों का होता है। शरीर निर्वाह के लिए ही सारे क्रियाकृत्य किये जाते हैं। सोच विचार भी उन्हीं के सम्बन्ध में उठते रहते हैं, किन्तु मनुष्य जन्म दूसरा जन्म माना जाता है। उसकी भूमिका में प्रवेश करने वाले को द्विज कहते हैं। द्विज अर्थात् दूसरा जन्म। एक पशु का, दूसरा उस मानव का, जिसे प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ अथवा ईश्वर का राजकुमार कहते हैं। माता के गर्भ में तो सभी प्राणी एक जैसी प्रक्रिया के साथ जन्म लेते हैं, पर मनुष्य जन्म विशेष कर्तव्यों एवं दायित्वों का स्वयं वरण करने पर मिलता है।

भारतीय धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था पर बहुत जोर दिया गया है। द्विजत्व धारण करना उसी प्रक्रिया का प्रमुख संस्कार है। इसे यज्ञोपवीत धारण प्रक्रिया कहते है। उसके जिए वह आयु निर्धारित है, जिसमें मनुष्य जिम्मेदारियों को समझ सके और उनके निर्वाह हेतु कटिबद्ध हो सके। स्त्री-पुरुष का इसमें कोई भेद नहीं है। स्त्रियाँ मासिक धर्म के उपरान्त नया उपवीत बदल लेती हैं, जब कि पुरुषों को शवयात्रा में सम्मिलित होने पर इस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है। छः महीने पुराने पर भी उसे बदल लेते हैं। पसीने के कणों का प्रवेश हो जाने पर नित्य तो उसे साबुन आदि से धोया जाता रहता है। यज्ञोपवीत में जाति-वंश आदि का कोई बंधन नहीं है। वह मनुष्य मात्र के लिए धारण करने योग्य प्रतीक है।

यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं। प्रत्येक धागा एक आत्मिक उत्तरदायित्व को स्वीकार करने धारण करने और निबाहने का एक शपथ संस्कार है। आरंभ में तो उसका धारण धूमधाम के साथ होता ही है, पर जब कभी कोई अन्य धर्मकृत्य सम्पन्न किया जाता है, तब भी नया जनेऊ बदलते और पुराने को किसी पवित्र जलाशय में बहा देने का विधान है। जहाँ कोई जलाशय न हो, वहाँ किसी पवित्र स्थान में मिट्टी में गाड़ देते हैं, ताकि वह खाद बनकर भूमि की उर्वरता में अभिवृद्धि करे। लम्बाई, शरीर की लम्बाई को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। इसलिए वह छोटी बड़ी भी हो सकती है।

मल-मूत्र त्याग करते समय उपवीत को कान पर धारण कर लेने की परम्परा है। हाथ धोकर उसे नीचे उतारना चाहिए। अधोज्ञाग को धर्मकृत्यों में अनुपयुक्त माना जाता है। इसलिए लम्बाई कमर तक की रखी जाती है। कदाचित कुछ बड़ी हो जाए तो उसे कम करने के लिए गले में एक फेरा लगा लेते हैं। ऐसा कर लेने पर कान पर चढ़ाने-उतारने में कोई भूल हो जाने पर भी वह महत्वहीन मानी जाती है। पीले रंग से रंगा हुआ उपवीत अधिक पवित्र माना जाता है। रंगे होने पर उसमें शरीर की गंदगी प्रकट नहीं होती है।

नौ महाव्रतों अथवा धर्म कर्तव्यों में नौ प्रमुख माने जाते हैं। इन्हें धर्म कर्तव्य भी कह सकते हैं। इनमें पाँच विधेयात्मक है, चार निषेधात्मक। विधेयात्मक अर्थात् जिन्हें अपनाये रहना आवश्यक है। निषेधात्मक अर्थात् जिनसे बचना चाहिए। बन पड़े तो उन्हें छोड़ना चाहिए। विधेयात्मक पाँच सद्गुणों में से यदि किसी में कुछ कमी रहती हो, भूल होती हो तो उस पर निरन्तर ध्यान रखा जाय और जो कुछ असंतुलन हो उसे पूरा करना चाहिए। प्रातः उठते समय उस दिन का कार्यक्रम इस प्रकार बनाया जाय जिसमें इन मानवी सद्गुणों का दैनिक क्रियाकृत्य में समावेश होता रहे। रात को सोते समय समीक्षा करनी चाहिए कि इन कर्तव्यों में कहाँ भूल हुई हो, उनकी गलती को उसी समय अनुभव करनी चाहिए और भविष्य में पुनः न होने देने की समझदारी बरतनी चाहिए। कम से कम सोते समय तो दिन भर के कार्यों की समीक्षा कर ही लेनी चाहिए। जो औचित्य बन पड़ा, उसके लिए अपने आप प्रशंसा करनी चाहिए और जो भूल रही हो, गलती की गई, उसे आगे न करने के लिए अपने ऊपर अधिक कड़ा अंकुश लगाना चाहिए। जिस प्रकार नित्य कर्मों में स्नान, मलमूत्र त्याग, भोजन करना सोना आदि कार्यों को नित्य कर्म समझ कर नियमपूर्वक किया जाता है, उसी प्रकार गुण-दोषों की समीक्षा करना और उन्हें घटाना-बढ़ाना भी नित्य कर्म में सम्मिलित रहना चाहिए।

पाँच सत्प्रवृत्तियाँ ये है-(1) श्रमशीलता (2) शिष्टता (3) मितव्ययिता (4) सुव्यवस्था (5) विवेकशीलता। इसके अतिरिक्त चार निषेधात्मक में से हैं- (1) इन्द्रिय निग्रह (2) समय संयम (3) अर्थ संयम (4) विचार संयम। इस प्रकार पाँच और चार मिलाकर नौ हो जाते हैं। इनके महत्व समझने पर लाभ और उपेक्षा करने पर हानि उठाने की बात स्वयं भी समझनी और समझानी चाहिए। इन्हीं गुणों के आधार पर नवयुग में सत्प्रवृत्ति उन्मूलन का प्रयोजन पूरा होता है। इन्हीं के आधार पर ग्रहण और परित्याग की दोनों प्रक्रिया बन पड़ती हैं। इन्हीं की सम्पन्नता पर स्वर्ग का अवतरण’ प्रक्रिया में समावेश, नवयुग का उद्देश्य भी है।

श्रमशीलता का उद्देश्य है अपने समय को श्रमपूर्वक निर्धारित कार्यक्रमों में लगाये रखना। निठल्ला न बैठना। आलस्य−प्रमाद को पास न फटकने देना। कार्यव्यस्तता से ही से ही शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य का संवर्धन संभव होता है। औजारों पर धार रखने से ही उनकी उपयोगिता बनी रहती है, अन्यथा जंग लगती है और निकम्मा बना देती है। थकान वाले कड़े काम कर लेने पर थोड़े से विश्राम करने की या काम बदल लेने की आवश्यकता पड़ती है। वह भी अस्त−व्यस्त होने से नहीं, वरन् आवश्यकता के अनुरूप नियत निर्धारित करना चाहिए। यह किसी को भी नहीं सोचना चाहिए कि श्रम करने से थकान आती है, वरन् उसमें तो सुविधा ही रहती है। अतः गतिशीलता को बनाये रखने के लिए श्रमशीलता को आदत में, स्वभाव में सम्मिलित करना चाहिए, ताकि अधिक साहसिकता भरी प्रगति का अधिकारी बना जा सके। आलस्य साक्षात् दरिद्रता है। उसे अपनाने पर व्यक्ति हर दृष्टि से पिछड़ा ही रहता है।

दूसरा सद्गुण है-शिष्टता। अपनी नम्रता और दूसरों का सम्मान प्रकट करने की आदत हर छोटे-बड़े के साथ व्यवहृत करनी चाहिए। अपने कामों के लिए जहाँ तक हो सके, दूसरों पर निर्भर न रहा के लिए जहां तक हो सके, दूसरों पर निर्भर न रहा जाय, वरन् यथा समय दूसरों के कामों में हाथ बँटाने, सहायता देने का ही स्वभाव बनाना चाहिए। सैनिकों,स्काउटों जैसे अनुशासन पालन करना चाहिए। ऐसा एक भी व्यवहार न होने देना चाहिए, जिससे असंयता-कुसंस्कारिता का दोषारोपण लगे।

मितव्ययिता। पैसा न्याय और मेहनत के साथ ईमानदारी के नियमों को पालन करते हुए जितना कमाया जा सके, उतना कमाना चाहिए। खर्च उसमें से उतना ही करना चाहिए, जितना नितान्त आवश्यक हो। बच्चों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, परोपकार के लिए खर्च करना चाहिए। पुण्य-परमार्थ के लिए नियोजित किया गया पैसा ही सच्ची बचत है। उसी के आधार पर भौतिक और आत्मिक उन्नति का दुहरा आधार बन पड़ा है। दुर्व्यसनों की विपत्ति आमंत्रित करना है। इस अहंकार के अतिरिक्त ऐसी बुरी आदतें भी पड़ती है, जिनमें सब प्रकार हानि ही होती है। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त उन्हीं से निभ पाता है-फिजूल खर्ची से बचने के लिए निरन्तर समझदारी बरतनी है।

चौथा सद्गुण है-सुव्यवस्था स्वच्छता। हर वस्तु को, समय को, संबंधित क्रिया-कलापों को इस प्रकार संभालना और सुनियोजित करना चाहिए कि कहीं भी फूहड़पन, अव्यवस्था और अस्तव्यस्तता न दीख पड़े। प्रगति का सबसे बड़ा आधार व्यवस्था बुद्धि जिसको व्यवस्थित रहना, व्यवस्थित रखना आता हो समझना चाहिए कि उसे यह समझ में आ गया, प्रगति के पथ पर कैसे चला जाता है और प्रामाणिकता, का सम्मान का अर्जन किस प्रकार किया जाता है।

पांचवां सद्गुण है-सहकारिता। अपने सुखों को बाँटना और दूसरों के दुःखों को बँटाना है। मिल−बांट कर खाना, हँसते-हँसाते जीना। खिलाड़ी की तरह हार-जीत में संतुलन बनाये रहना। मित्र बढ़ाना, शत्रु घटाना बढ़ाना सद्गुणों को सहकारिता कहते हैं। मिलजुल कर रहने से प्रसन्नता बढ़ती और कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति आती है। यह पाँच प्रमुख सद्गुण है।

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी भी ऐसे ही चार सद्गुण हैं जिनको स्वभाव का अंग बनाने के लिए हर जगह सम्मान पाते, सफलताएँ अर्जित करते हैं।

संयम शक्ति का भण्डार है। असंयम रूपी छलनी में दूध दुहने और अपनी शक्तियाँ बिखेर कर खाली हाथ न होने और उनके सड़ने से अनेक प्रकार के रोग उपजते हैं। कामुकता के कुचक्र में मनुष्य अपनी जीवनी शक्ति गँवा बैठता है। मानसिक दृष्टि से खोखला रह जाता है। पैसे के संबंध में जो संयमी नहीं होता, फिजूलखर्ची के कुचक्र में फँसकर सदा दरिद्र और असंतुलित रहता है। जिसे अपने विचारों पर संयम नहीं, उपयोगी कल्पनाएँ करने, योजना बनाने की अपेक्षा ज्यों-त्यों अप्रासंगिक बातें सोचते रहते हैं, उन्हें मूर्खता दबोचती है, इन चारों असंयमों से हर किसी को बचना चाहिए।

वसंत पर्व 1989(8 फरवरी) को दिया गया उद्बोधन


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