यह सुयोग व्यर्थ न जाने पाए

January 1990

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समर्थ शक्तियों का परिवर्तन-प्रत्यावर्तन सक्रांतिकाल कहलाता है। राज्य पलटते हैं, तो भारी उथल-पुथल मचती है। दिन और रात्रि का मिलना-बिछुड़ना संध्याकाल कहलाता है। उन घड़ियों की अनेक दृष्टियों से अपनी महत्ता है। संध्याकाल को आत्मिक और बौद्धिक दृष्टि से असामान्य ही माना जाता है। शताब्दियों का परिवर्तन भी प्रकारांतर से युग-परिवर्तन जैसी संभावनाओं से भरा-पूरा होता हैं। प्रसवकाल में पीड़ा और प्रसन्नता का कैसा अद्भुत संयोग रहता है, इसे सभी जानते हैं। देवासुर संग्राम की अपने समय में आश्चर्यचकित करने वाली प्रतिक्रिया होती रही है। उन दिनों महाकाल को अवतार लेकर समस्या का समाधान करना पड़ा था। अवतार धारण करने की समर्थ सत्ता को ऐसे ही अवसरों पर आवश्यकता पड़ी है।

लंका को परास्त करने और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव करने के लिए जो मध्यांतर था, उसमें जिनको भी प्रमुख भूमिका निभानी पड़ी, वे अजर-अमर हो गए। हनुमान की अपनी औकात क्या थी? इसे देखना हो तो सुग्रीव के सेवक के रूप में ऋष्यमूक पर्वत पर रहने के दिनों की परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता है, साथ ही यह भी दखा जा सकता है कि रामकाज में निरत होने पर उन्हें समुद्र छलाँगने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़े जाने जैसी कितनी दिव्य विभूतियाँ हस्तगत हो गई थीं। हनुमान ही नहीं, केवट, शबरी, गिलहरी जैसे नगण्य स्तर वाले भी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य बन गए थे। द्रौपदी के चीरहरण के समय पर असहाय से बने अर्जुन द्वारा किसी महान शक्ति का प्रयोजन पूरा करने के लिए कटिबद्ध होने पर महाभारत विजेता की गौरव-गरिमा उपलब्ध हुई थी। उनके सारथी बनने में कृष्ण ने अपने को धन्य माना था।

संधिबेला की महत्ता, प्रेरणा एवं आवश्यकता को जिनने भी समझा, उन्हें दैनिक सुख-सुविधा में से कटौती करनी पड़ी। प्रतिकूलताओं से भी टकराना पड़ा, पर इसके फलस्वरूप उनने जो पाया उसे अविस्मरणीय ही कहा जा सकता है। बुद्ध, गांधी, लेनिन, दयानंद आदि क्रांतिकारियों की सूझ-बूझ ने ठीक काम दिया। साहस प्रदर्शन के लिए उपयुक्त समय चुना। समय पर बोई गई फसल ठीक प्रकार उगी और उसने उन पराक्रमों को ही नहीं, अपने समय के वातावरण को भी प्रेरणाप्रद बनाकर रख दिया।

प्रस्तुत समय युगसंधि का है। भ्रांतियों और विकृतियों से भरी बीसवीं सदी विदा हो रही है और उसके स्थान पर उज्ज्वल भविष्य से भरी पूरी इक्कीसवीं सदी का आगमन हो रहा है। मध्यांतर के यह थोड़े से वर्ष हैं; जिनमें कि हम सब जी और रह रहे हैं। विशेष समय सामान्य जीवधारियों की तरह पेट-प्रजनन के लिए खपा देने भर के लिए नहीं होते। उनमें दूरदर्शी विवेकशीलों को युगधर्म को स्वीकारने और समय की चुनौती को स्वीकारने के लिए साहस जुटाना होता है। इसमें कुछ घाटा जैसा तो प्रतीत होता है, पर वह वस्तुतः थोड़ा-सा बीज बोकर सैकड़ों गुना काटने जैसा दूरदर्शितापूर्ण ही होता है।

भगवान अभीष्ट परिवर्तन के लिए समुचित योजना बना चुके हैं। साधन भी जुटा चुके हैं। पर वे उस क्रिया-प्रक्रिया को संपन्न करने का श्रेय ऐसे लोगों को देना चाहते हैं, जो आदर्शों के प्रति निष्ठावान होने की प्रतिभा एवं प्रामाणिकता का परिचय दे सकें। बदलें में क्या मिल सकेगा, इसे सामान्य से ऊँचा उठकर असामान्य बने महामानवों की जीवनगाथाओं का स्मरण करते हुए सहज ही समझा जा सकता है। समय को पहचानना और अवसर को न चूकना ही जाग्रतों-जीवितों के लिए अभीष्ट है। इस सुयोग को हाथ से न जाने देने में ही बुद्धिमत्ता है।


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