देवत्व का विकास ही अंतिम समाधान!

January 1990

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क्रौंच पक्षी को आहत-विलाप करते देखकर वाल्मीकि की करुणा जिस क्षण उभरी उसी समय वे आदिकवि के रूप में परिणत हो गए। ऋषियों के अस्थि-पंजरों की पर्वतमाला देखकर राम की करुणा मर्माहत हो गई और उनसे भुजा उठाकर यह प्रण करते ही बन पड़ा कि “निशिचर हीन करौं मही”। बाढ़, भूकंप ,दुर्भिक्ष, महामारी जैसे आपत्तिकाल में जब असंख्यों को देखा जाता है, तो निष्ठुर भले ही मूकदर्शक बने रहें, सहृदयों को तो अपनी सामर्थ्य भर सहायता के लिए दौड़ना ही पड़ता है। इसके बिना उनकी अंतरात्मा आत्मप्रताड़ना से व्याकुल हो उठती है। दुर्घटनाग्रस्तों को चीखते-चिल्लाते देखकर भावनाशीलों को तो अपना काम हर्ज करके भी सहायता के लिए दौड़ना पड़ता है। यहाँ उन निष्ठुरों की चर्चा नहीं हो रही है, जो कुत्तों, कौओं और शृगालों की तरह अर्धमृतकों का मांस स्वादपूर्वक चखते और मोद मनाते हैं। निष्ठुरों को भी नर-पिशाच कह सकते हैं, उनका मनुष्य-समुदाय में भी अभाव नहीं है।

विकास की अंतिम सीढ़ी भाव-संवेदना को मर्माहत कर देने वाली करुणा के विस्तार में ही है। इसी को आंतरिक उत्कृष्टता भी कहते हैं। संवेदना उभरने पर ही सेवा-साधना बन पड़ती है। धर्म-धारणा का निर्वाह भी इससे कम में नहीं होता। तपश्चर्या और योग-साधना का लक्ष्य भी यही है कि किसी प्रकार संवेदनाशून्य निष्ठुरता के महादैत्य से बच निकलना संभव हो सके और उस देवत्व का साक्षात्कार हो सके, जो जरूरतमंदों को दिए बिना रह ही नहीं सकता। देना ही जिनकी प्रकृति और नियति है। उन्हीं को इस धरती का देवता कहा जाता है। देवमानव के रूप में उन्हीं का अनुकरण और अभिनंदन करते विवेकवान भक्तजन देखे जाते हैं।

देने की प्रकृति वाली आत्माओं का जहाँ संगठन— समंवय होता रहता हैा उसी क्षेत्र को स्वर्ग के नाम से संबोधित किया जाने लगता है। इस प्रकार का लोक या स्थान कहीं न होने की बात को तर्क और तथ्य की दृष्टि से भले ही अस्वीकार कर दिया जाए, पर इस प्रतिपादन को कोई चुनौती नहीं दे सकता कि सहृदय, सेवाभावी, उदारचेता न केवल स्वयं देवमानव होते हैं; वरन अपने कार्यक्षेत्र को भी ऐसा कुछ बनाए बिना नहीं रहते, जिसे स्वर्गोपम अथवा सतयुग का सामयिक संस्करण कहा जा सके।

अपने समय को अभूतपूर्व प्रगतिशीलता का युग कहा और गर्वोक्तियों के साथ बखाना जाता है। इस अर्थ में बात सही भी है कि जितने सुविधा-साधन इन दिनों उपलब्ध हैं, उतने इससे पहले कभी भी हस्तगत नहीं हो सके। विज्ञान के विकास से जलयान, वायुयान, रेल, मोटर जैसे द्रुतगामी वाहन, तार, रेडियो, फिल्म, दूरदर्शन जैसे संचार-साधन इससे पूर्व कभी कल्पना में भी नहीं आए थे। कल-कारखानों का पर्वताकार उत्पादन, सर्जरी, अंग-प्रत्यारोपण जैसी सुविधाएँ भूतकाल में कहाँ थीं? कहा जा सकता है कि विज्ञान ने पौराणिक विश्वकर्मा को कहीं अधिक पीछे छोड़ दिया है ।

बुद्धिवाद की प्रगति भी कम नहीं हुई है। तर्क, तथ्य, प्रमाण इस कदर विकसित हुए हैं कि पुरातन—  एकाकी धर्मशास्त्र, वर्त्तमान अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञानशास्त्र जैसी अनेकानेक कलेवरों में असाधारण रूप से बढ़ा और भविष्य में और भी अधिक खोज लेने का दावा कर रहा है। शोध-संस्थानों की, प्रयोगशालाओं की उपलब्धियाँ घोषणा कर रही हैं कि निकट भविष्य में, मनुष्य इतना अधिक ज्ञान-विज्ञान खोज लेगा कि पुरातनकाल की समस्त उपलब्धियों को उसके सामने, बौना-बचकाना ठहराया जा सके।

इतने पर भी एक प्रश्न सर्वथा अनसुलझा ही रह जाता है कि यह तथाकथित प्रगति अपने साथ दुर्गति के असंख्यों बवंडर, क्यों और कैसे घसीटती-बटोरती चली जा रही है ? प्रदूषण, युद्धोन्माद , खाद्य-संकट, अपराधों की भरमार समस्त तटबंध तोड़ती चली आ रही है। अस्वस्थता, दुर्बलता, कलह-विग्रह, छल-प्रपंच जैसी विडंबनाएँ व्यवहार तथा चिंतन को धुआँधार विकृतियाें से भरती क्यों चली आ रही है ? निकट भविष्य के संबंध में मूर्धन्य विचारक यह भविष्यवाणी क्यों कर रहे हैं  कि स्थिति यही रही, रेल इसी पटरी पर चलती रही, तो विपन्नता बढ़ते-बढ़ते महाप्रलय जैसी स्थिति में पहुँच जा सकता है? वे कहते हैं, कि हवा और पानी में विषाक्तता इस तेजी से बढ़ रही है कि उसे धीमी गति से सर्वभक्षी आत्महत्या का नाम दिया जा सकता है। बढ़ता हुआ तापमान यदि ध्रुवों की बर्फ पिघला दे और समुद्र में भयानक बाढ़ ला दे, तो उससे थल निवासियों के लिए डूब मरने का संकट उत्पन्न कर सकता है। वनों का कटान , रेगिस्तान का द्रुतगामी विस्तार, भूमि की उर्वरता का ह्रास, खनिजों के बेतरह दोहन से उत्पन्न हुआ धरित्री असंतुलन, मौसमों में आश्चर्यजनक परिवर्तन, तेजाबी मेघवर्षण, अणु-विकिरण, बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुरूप जीवन-साधन न बढ़ पाने का संकट; जैसे अनेकानेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनमें किसी पर भी विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि तथाकथित प्रगति ही उन समस्त विग्रहों के लिए पूरी तरह उत्तरदाई है। वह प्रगति किस काम की, जिसमें एक रुपया कमाने के बदले सौ का घाटा उठाना पड़े। उन बढ़े हुए सुविधा-साधनों का आखिर होगा क्या, जो मनुष्य को प्रसन्नता प्रदान करने के स्थान पर उसके अस्तित्व को ही मिटा डालने के लिए नंगी तलवार तानकर सामने आ खड़े हों?

आश्चर्य इस बात का है कि आखिर यह सब हो क्यों एवं कैसे रहा है ? इसे कौन करा रहा है ? आखिर वह चौकड़ी कैसे चूक गई थी, जो बहुत कुछ पाने का सरंजाम जुटाकर अलादीन का नया चिराग जलाने चली थी और कुछ ही दूर चलकर पैर पसार गई। पहुँचना तो उसे प्रकृति-विजय के लक्ष्य तक था, पर यह हुआ क्या कि तीनों लोक तीन डगों में नाप लेने की दावेदारी करारी मोच लगने पर सिहरकर बीच रास्ते में ही पसर गई। उसे इस असमंजस की स्थिति में रहना पड़ रहा है कि 'आगे कुँआँ पीछे खाई' की स्थिति आ खड़ी होने पर आखिर चला किस तरह जाए। साँप-छछूँदर की इस स्थिति से कैसे उबरा जाए, जिसमें न निगलते बन रहा है और न उगलते। असमंजस की स्थिति लंबे समय तक टिकती नहीं है। मनुष्य की बुद्धि इतनी कमजोर नहीं है कि वह उत्पन्न संकटों का कारण न ढूँढ़ सके और शांतचित्त होने पर उनके समाधान न ढूँढ़ सके।

फूटे घड़े में पानी भरने पर वह देर तक ठहरता नहीं है। चलनी में दूध दुहने पर दुधारू गाय पालने वाला भी खिन्न-विपन्न रहता है।

ऐसी ही कुछ भूल मनुष्य से भी बन पड़ी है, जिसके कारण अत्यंत परिश्रमपूर्वक जुटाई गई उपलब्धियों को हस्तगत करने पर भी लेने के देने पड़ रहे हैं। इसी को कहते हैं— “सिर मुड़ाते ही ओले पड़ना।”

अभी तक की उपलब्धि पर संतोष व्यक्त करते हुए मनीषी चिंतक दिव्य द्रष्टा कहते हैं कि अगले दिनों मनुष्य की समझदारी, सतर्कता और सूझबूझ जागेगी। भाव-संवेदनाओं से भरे-पूरे व्यक्ति आने वाली सदी में उस रीति-नीति पर चलेंगे, जिनके आधार पर संपदाओं का सदुपयोग— सुनियोजन करते बन पड़ेगा। तब आसन्न विभीषिकाओं, विपन्नताओं और विडंबनाओं पर क्षुब्ध न होना पड़ेगा। वह समय शीघ्र ही आ रहा है।


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