मेरा सभी कुछ औरों से अलग है

January 1990

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दरवाजे पर खट-खट की आवाज हुई। कमरे में कुर्सी पर बैठे, मेज पर कागज-कलम से लिख रहे, युवक धीरज से इन्हें रखकर उठे और शालीनता से दरवाजा खोला। देखा— कुछ नवयुवक बाहर खड़े थे।

कमरे में घुसते ही ये सभी भौंचक्के से रह गए। इसका कारण था—  घर की हालत। कोने में चटाई, उस पर रखा एक कंबल, यही था उनका बिस्तर, अरगनी पर टँगे दो-तीन कपड़े, यही थी उनकी वस्त्र-संपदा और पुस्तकें, इनसे तो यही कमरा क्यों बगल का कमरा भी भरा था। वह न जाने कितनी भाषाओं को पढ़ते होंगे। फारसी, जर्मन, रशियन, अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, इटैलियन, बंँगला, संस्कृत, हिब्रू आदि भाषाओं की ढेर की ढेर पुस्तकें जमा थीं। बड़ौदा की कड़ाके की सर्दी में ऊनी कपड़ों से रहित, पर विविध भाषाओं की पुस्तकों से भरा घर देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक था।

“सर! सुना है आप कॉलेज छोड़ रहे हैं। ” “ठीक सुना हैं।”—  उनके प्राचार्य का उत्तर था। “फिर हमें कौन पढ़ाएगा? ” 

“कोई नया व्यक्ति।”—  सपाट और ठंडा-सा उत्तर था। “ एक बात पूछें ?”—एक छात्र ने हिचकिचाते हुए कहा। पूछो!"— "प्रेमभरा उत्तर था।  “ क्या यहाँ वेतन कुछ कम है?”

“ओह! नहीं, मेरे बच्चे।  नयी जगह में मिलने वाला वेतन यहाँ के वेतन का दशांश होगा। यहाँ अभी 710 मिलता है, वहाँ मिलेगा सिर्फ 70 रु.।” सुनकर सभी एक बारगी अवाक् रह गए ।

एक महानुभाव अंदर आए, उन्होंने प्राचार्य महोदय के कान में कुछ कहा। उन्होंने दूर रखी मेज पर रुपयों की प्लेट की ओर इशारा किया। आगंतुक सज्जन मेज के पास गए, उसमें से दो हजार रुपए उठाए और जैसे आए थे, वैसे ही चले गए। नवयुवक छात्रों को यह और अजीब लगा, जो आदमी अपने ऊपर एक कौड़ी भी अधिक खर्च नहीं करता, वही हजारों रुपया इस तरह दे देता है, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

“सर! ये कौन थे, इतने रुपए क्यों ले गए ?”— उनमें से कुछ ने पूछा। जिज्ञासा स्वाभाविक थी।

“ये थे राष्ट्र को समर्पित एक व्यक्ति और राष्ट्र के लिए ही धन ले गए। इस संबंध में अधिक कुछ न पूछना।”

“आपका सभी कुछ आश्चर्यपूर्ण है।”— एक ने भयमिश्रित श्रद्धा से कहा ।

तुम्हारी बातें मैं समझ रहा हूँ,  पर मेरा जीवन कुछ आश्चर्यपूर्ण नहीं। हाँ ! औरों से कुछ भिन्न जरूर है।  कारण कि मुझे दृढ़विश्वास है कि भगवान ने जो गुण, प्रतिभा, जो उच्च शिक्षा और विद्या, जो धन दिया है, सब भगवान का है। इसके अल्पतम अंश में अपना काम चलाकर बाकी सब भगवान, अर्थात समाज को वापस कर देना उचित है।

छात्र भी भावविहल हो उठे। एक के भरे गले से मुश्किल से, आवाज निकली— "सर ! हम लोग आपका विदाई-समारोह करना चाहते थे, आपकी अनुमति लेने ही आए थे।"

नहीं ! मुझे यों ही जाने दो, तुम नहीं जानते— महान कार्य में लगे व्यक्ति के लिए राई भर सम्मान भी पहाड़ के बराबर अवरोध उत्पन्न करता है। फिर मेरी नीति है परदे के पीछे काम करना। तुम लोग मुझे चुपचाप जाने दो”।

छात्रों ने आज्ञा शिरोधार्य की और एक-एक करके निकल गए। 710 रु. की नौकरी छोड़कर 70 रुपये माह में नेशनल कॉलेज कलकत्ता में प्राचार्य का पद स्वीकारकर राष्ट्रसेवी व्यक्तियों का गठन करने वाले महामानव थे—  श्री अरविन्द घोष और आए हुए छात्रों के अगुआ थे— कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी। उक्त प्राचार्य और उनके इस छात्र को सेवाओं को समूचा देश जानता है।


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