साहित्यकार स्रष्टा ही नहीं, द्रष्टा भी

January 1990

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न्यूयार्क के पास एक छोटा-सा कस्बा। एक प्रौढ़ आयु के व्यक्ति अपने कुछ सहयोगियों के साथ स्वच्छता अभियान में जुटे थे। इतने में एक मोटर रुकी। कुछ व्यक्ति उतरे और उनके पास तक आ पहुँचे। उनके हाव- भाव देखकर लग रहा था, जैसे उन्हें यह सब देखकर आश्चर्य हो रहा हो।

उनमें से एक ने कहा— “आप यहाँ”?

“जी हाँ”!— संक्षिप्त-सा उत्तर था।

“आपके लिए अतिप्रसन्नतादायक समाचार है।"—  उनमें से कुछ ने उत्साहातिरेक से कहा। ‘क्या?’  “आपको नोबेल पुरस्कार दिया जाने वाला है”। “अच्छा!”— कहकर वह पुनः अपने काम में जुट गए।

इतनी बड़ी सफलता का समाचार सुनकर इस तरह का व्यवहार, किसी को इसकी आशा न थी। एक ने हिम्मत जुटाई— “ हम आपका कुछ समय चाहते हैं”?

इस पर काम में जुटे व्यक्ति ने एक सहयोगी की तरफ इशारा करते हुए कहा— "ये आप सबको स्थान बता देंगे, शाम तक रुकें, तब आराम से बातें होंगी”।

शाम हुई, उसने अपने स्वच्छता कार्य को विराम दिया। हाथ-पैर साफ करके नपे-तुले कदमों से चलता हुआ वहाँ जा पहुँचा जहाँ प्रातः आए व्यक्ति ठहरे थे।

सामान्य शिष्टाचार के बाद आगंतुक सज्जनों ने जिज्ञासा की— “पुरस्कार आपको साहित्य-क्षेत्र में मिला और आप जुटे थे, सेवाकार्य में।”

तनिक-सा मुस्कराते हुए उसने कहा— “साहित्य और सेवा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सेवा करने से भाव-संवेदनाएँ परिपक्व होती हैं और साहित्य के माध्यम से शब्दों में उभरती हैं। दूसरी तरह से देखें तो चिंतन और कर्म दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। एक उत्कृष्ट होगा— दूसरा प्रखर बनेगा”। “आपको कहाँ से लिखने की प्रेरणा मिली?''— "प्रेरणा ?” इतना कहकर मानो वह अतीत के गहरे सागर में डूब गए। सागर के कुछ मोती उनकी आँखों में थे। कुछ क्षण बाद उनके मुख से बोल फूटे— “हिरोशिमा की विनाश लीलाओं का हृदयविदारक विवरण पढ़कर मेरा साहित्यकार जगा। लगा, क्या यही है आधुनिक यथार्थवादी संस्कृति; जिसके बीच उलझकर मनुष्य ने अपनी पहचान खो दी। सृजन का देवता होते हुए वह विध्वंस का शैतान बनता जा रहा है। मानवी बुद्धि को शैतान के चंगुल से छुड़ाने के लिए मैंने साहित्य के माध्यम से प्रयास शुरू किया।" — कहने वाले के साथ मानो सुनने वाले भी गहरे भावों में डूब गए।

थोड़ी देर के बाद एक ने पूछा— “क्या यह संभव है"?

“अवश्य।”—  उसका दृढ़ स्वर था। “साहित्यकार द्रष्टा ही नहीं स्रष्टा भी है, जो समाज की मानसिकता को नए संस्कार देकर उन्नत बनाता है। समाज के वैचारिक नेतृत्व की जिम्मेदारी उसी पर है। वह समाज का प्रहरी है।”

“तो क्या आप अकेले उस कलंक को धो सकेंगे, जो साहित्यकारों पर लगा है”। "मैं ही क्याें और भी बहुत से आएँगे और वर्त्तमान की समस्त निषेधात्मक और ध्वंसकारी प्रवृत्तियों के बावजूद भी शीघ्र ही मानव जाति अंततः आत्मा की शक्ति के बल पर विजयी होगी। न केवल जीवित रहेगी, वरन पुनः समर्थ और सशक्त बनेगी।”

“नोबेल पुरस्कार की धनराशि का क्या होगा”? कोई कुछ और कहे कि उनका जवाब था —"समाज का धन समाज के कामों में लगेगा”।

पत्रकारों की टोली श्रद्धानत थी और इन सबके श्रद्धाभाजन थे—'सांलबेंलो', जो निरंतर चिंतन व कर्मपीड़ित मानवता की मरहम-पट्टी करते रहे।"


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