अस्पताल में काफी भीड़ थी। बाहर बरामदे में बैठे लोग एक-एक करके कमरे के अंदर बैठी महिला डॉक्टर के पास जा रहे थे और अपने रोग का निदान पा रहे थे। रोगियों की इस भीड़ के दो कारण थे। प्रथम— उसका व्यवहार, स्नेहपूर्ण बर्ताव, कर्त्तव्यनिष्ठा, मातृसुलभ परिचर्या, जो सभी को अपने दायरे में घेरकर समेट लेती। दूसरा उसने अपना अस्पताल ऐसी जगह खोला था, जहाँ कोई दूसरा तैयार न होता। कारण कि लंदन के इस गरीब इलाके में अधिक कमाई की उम्मीद न थी।
इस समय में वह एक ऐसे मरीज की परिचर्या में जुटी थी, जिसके सिर में घातक घाव हो गया था। परिचर्या समाप्त होने वाली थी कि एक व्यक्ति भीड़ को चीरता हुआ उसके कक्ष में घुसा। सहायिका की रोकने की कोशिश भी नाकाम रही। सामने आ खड़े होने पर उसका ध्यान भंग हुआ। पूछा— "कहिए ?" “मुझे पेट में हल्की तकलीफ रहती है।” “ठीक है! लाइन में बैठिए, नंबर आने पर आपको देख लूँगी।”
आगंतुक कब मानने को तैयार था। उसने कटाक्ष करते हुए— “ये सलीके, कायदे-कानून, सभी कुछ पैसे के लिए ही तो हैं और आपको वह दे रहा हूँ, उचित से कुछ ज्यादा ही।”
“ओह ! तो धन ही सब कुछ है। इसके लिए कुछ भी किया जा सकता है, कुछ भी छोड़ा जा सकता है। यह आज पता चला। रोगी मरते हों तो मरें ! किसी माँ की गोद सूनी हो, किसी युवती का सहारा छिने, किसी का भाई तड़पकर जान दे दे। कोई दुर्घटनाग्रस्त इलाज के अभाव में छटपटाकर जान दे दे। क्यों ? सिर्फ इसलिए कि उनके पास धन नहीं है और चिकित्सक, वह आपके कहे मुताबिक यह सिद्धांत बना ले कि धन ही सब कुछ है।” कहते-कहते उसका गला भर्रा गया। अभ्यस्त हाथ घायल के सिर की पट्टी करने में संलग्न थे। काम पूरा हो गया और मरीज जा रहा था।
पर आगंतुक ने तो जैसे उसके घावों को कुरेद दिया था। कुछ रुककर वह फिर बोली— “आह री मनुष्यता ! तूने ही दूसरों के कष्टों के लिए सूली की पीड़ा सहने वाले ईसा पैदा किए हैं। तेरे बीच से जन-जन का दरद बाँटने वाले फ्रांसिस निकले हैं और आज हतभाग्य ! तेरे परिकर में संवेदनाशून्य प्राणियों की भरमार है। जो बुद्धि के तिकड़म का जाल बिछाकर “धन सभी कुछ है”, यह मानते हुए उसके द्वारा कुछ भी करने को तैयार हैं।
सुनने वाला अवाक् था। उसके मुँह से निकला— "मैडम ! आप संत हैं, मुझे नहीं पता था। मुझे क्षमा करें।” संत कहकर मुझे अपवाद मत घोषित करो भाई ! "मैं एक सामान्य मनुष्य हूँ, इससे कम और अधिक कुछ नहीं। मेरे अंदर की मनुष्यता अभी साँसें ले रही हैं, वर्त्तमान में अपने अंदर की संवेदनाओं का लगातार गला घोटते जाने के कारण बहुसंख्यक जन ऐसा मानने लगे हैं कि संवेदना किसी संत नाम वाले विशेष प्राणी की बपौती है। पर ऐसा नहीं है। वास्तव में यह प्रत्येक मनुष्य की मनुष्यता की कसौटी है। इसके बिना तो मनुष्य मनुष्य नहीं, सचल पुतला भर है।”
"मैं तो मात्र चिकित्सक हूँ; सिर्फ चिकित्सक, जिसका धर्म है— कराहती मानवता के घावों में मरहम लगाना, सेवा करना। मेरे लिए सेवा ही सब कुछ है और धन वह सब कुछ न होकर कुछ है। जब कम से काम चल जाता है, तो अधिक के लिए क्यों भागूँ-दौड़ूँ ।
"मैं तुम्हें लौटा तो नहीं सकती मित्र !” कहते हुए उसने दवा दी। "पर मैं फीस नहीं लूँगी। जब तुम्हें यह महसूस होने लगे कि सेवा सब कुछ और धन कुछ है। उस समय आना और इस सेवा कार्य में जो बने सहायता कर देना।" इतना कहकर उसने दूसरे मरीज को बुलाने का इशारा किया। सामने खड़े व्यक्ति का धनमद उतर चुका था, वह “कुछ और सब कुछ” का मर्म समझकर चलता बना। सेवा का सही अर्थ बताने वाली यह महिला थी, ब्रिटेन की प्रथम महिला चिकित्सक एलिजाबेथ गेरेट, जिनकी उक्त नीति और तदनुरूप कर्म आज भी हर मानव के लिए एक आदर्श है।