दिव्य अनुकंपा का मखौल तो न हो

January 1990

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दैवी विशेष अनुकंपा के रूप में मनुष्य को दो असाधारण विभूतियाँ उपलब्ध हुई हैं— एक अन्य प्राणियों की तुलना में अद्भुत कही जा सकने योग्य शारीरिक संरचना, दूसरी अलौकिक चिंतन-चेतना वाली बुद्धिमत्ता। इन दोनों को तिरस्कृत—  उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाए, तो कचरा भर बनकर रह जाती हैं और कूड़े के ढेर में बुहार फेंकी जाती हैं, पर यदि उनका अभिवर्द्धन और सुनियोजन बन पड़े, तो इतने भर से उत्पन्न हुए चमत्कारों को ऋद्धि-सिद्धि जैसे नामों से जाना जा सकता है। लोगों के असंख्यों एक-से-एक बढ़कर प्रगति-प्रयोजन साक्षीरूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

पिछड़ेपन की दुर्गति सहते हुए तिरस्कृत और अभावग्रस्त वे लोग रह जाते हैं, जो इन उपलब्धियों की ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें ऐसे ही अनगढ़ स्थिति में पड़े रहने देते हैं। उपेक्षापूर्वक किसी कोने में पड़ा रहने पर तो तेज धार वाले चाकू को भी जंग खा जाती है। अन्यमनस्क, आलसी, बुद्धि रहते हुए भी उसे प्रखर बनाने और लाभ उठाने की स्थिति तक नहीं पहुँच पाते। इसी प्रकार जिनने पुरुषार्थ प्रयोग का अभ्यास नहीं किया है, उनको पेट भरने के भी लाले पड़े रहते हैं।

भगवान ने दो असाधारण उपहार देकर अपनी उदारता में कहीं कोई कसर नहीं रखी। इतने पर भी इस संबंध में मनुष्य की समझदारी पर विश्वास करते हुए यह छूट भी दी है कि अनुदान का वह चाहे जैसा भला-बुरा उपयोग करे। कर्तृत्व की दृष्टि से स्वतंत्रता प्रदान करते हुए भी नियंता ने उसकी परिणति उत्पन्न करने का काम अपने हाथ में रखा है। कोई स्वेच्छापूर्वक विषपान भी बेरोक-टोक के कर सकता है, पर उसके परिणाम— मरण से नहीं बच सकता। कोई चाहे तो आग से झुलसने का दुस्साहस भी कर सकता है, पर उसके कारण जलने-झुलसने की प्रतिक्रिया से नहीं बच सकता। यदि इतना भी अंकुश न रखा गया होता, तो उपलब्धियों को मटियामेट ही नहीं, ऐसे कामों में भी प्रयुक्त किया जाता, जिसके दुष्परिणाम अपने साथ अपने लिए ही नहीं, संपर्क में आने वाले अन्यान्य अनेकों का भी अहित करते कर्मफल की सुनिश्चित विधा को मानवीकृत्यों के साथ जुड़े रखने पर ही मनुष्य को यह अवसर दिया गया है कि वह अनर्थ और उत्कर्ष में से किसी एक को स्वेच्छापूर्वक अपना ले।

देखा जाता है कि वस्तुस्थिति की सही समीक्षा कर सकने वाले, दूरगामी भटकावों को ध्यान में रखकर अपनी रीति-नीति एवं दिशाधारा का निर्धारण कर सकने वाले ही सदुपयोग की बात सोच पाते हैं। उन्हीं के लिए उर्ध्वगमन— अभ्युदय का तारतम्य बिठा सकना संभव होता है, अन्यथा पतन के गर्त्त में खिसक पड़ने के लिए तो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी सहायता हेतु हर घड़ी तैयार रहती है। फल पेड़ से टूटने पर सीधा जमीन पर ही गिरता है। पानी ढलान की ओर ही बहता है। मनुष्य भी अपनी बिरादरी के अन्यान्य पशुओं की तरह पेट-प्रजनन की परिधि में ही सीमाबद्ध होकर रह जाता है। पेट की भूख बुझाने के लिए आहार जुटाने भर में अधिकांश समय बिता देता है। परिवार बटोरता-बढ़ाता है, तो वह अतिरिक्त उत्पादन भी कंधे पर लाद लेता है। कंगारू को पेट के ऊपर जमी हुई थैली में जने हूुए बच्चों की एक पूरी कंपनी हर घड़ी लादे फिरना पड़ता है।

उसे प्रकृति का कौतुक-कौतूहल ही समझा जाना चाहिए कि बैठे-बैठाए प्राणी पर वह यदा-कदा कामुकता का बुखार चढ़ा देती है। उसी उन्माद से प्रेरित होकर यौनाचार की राई-रत्ती जैसी बिडंबना के फेर में पड़कर प्रजनन कृत्य में जुट जाता है। ऐसे उत्तदायित्वों में बँधता है, जिसकी जंजीरें उसे जीवनभर कसे रहती हैं। मदारी के बंदर जैसे कौतुक करते रहने में जिंदगी गुजार देने के लिए यह कौतुक ही प्रधान बंधन बनता है, जिसे यौनाचार नाम से जाना जाता है। प्रकृति यह कठिन कार्य प्राणियों पर इसलिए लादती है कि उसकी वंशवृद्धि जैसी खिलवाड़ यथावत् चलती रहे। मरण की विधा निश्चित कर देने के बाद उसके लिए भी यह मजबूरी ही थी, कि नया उत्पादन जारी रखे, अन्यथा बूढ़ों के मरते रहने पर नए उत्पन्न न होने की दशा में यहाँ सुनसान ही बढ़ता जाता।

भूख रोज लगती है, जबकि कामुक उन्माद एक विशेष मानसिकता उभार लेने पर ही पनपती है। इस उन्माद के रहते हुए भी विभुक्षा और कामेच्छा का प्रयोजन एक ही है कि मनुष्य जाल-जंजाल में फँसा हुआ वैसा ही कौतुक-कौतूहल करता रहे जैसे कि पिंजड़े में फँसा हुआ चूहा असाधारण रूप से उछल-कूद करता रहता है। बुभुक्षा का बढ़ा हुआ रूप लोभ, लिप्सा और वासना के फलस्वरूप लदी हुई ललक को तृष्णा कहते हैं। देखा जाता है कि इन्हीं दो प्रयोजनों में भगवान की वे दोनों ही महती अनुकंपाएँ खप जाती हैं, जो उसे अन्य प्राणियों की तुलना में अतिरिक्त अनुग्रह के रूप में मिली थी।

नशा पीने पर कभी-कभी मनुष्य आपे से बाहर हो जाता है और ऐसे कृत्य करने लगता है, जिसे बोल-चाल की भाषा में 'पगलाना' कहते हैं। उन्मादी ऐसे ही विलक्षण वचन बोलते, आचरण करते देखे गए हैं। इस पगलाने का नाम है— अहंकार का प्रदर्शन। अपने को औरों की तुलना में अधिक संपन्न, अधिक सुंदर, अधिक प्रतिभावान, सौभाग्यशाली सिद्ध करने के लिए अपने मुँह शेखी बघारने से लेकर दूसरों के मुँह प्रशंसा सुनने जैसे उद्धत आचरण करने के लिए भी कई लोग कई बार इतने आकुल-व्याकुल हो जाते हैं कि उनके लिए घरफूँक तमाशा देखना ही एकमात्र समाधान सूझ पड़ता है। ठाट-बाट रचने वाले और उस मद में ढेरों, समय, साधन और वैभव खपा देने वाले अपने को कुछ भी कहें या समझें, पर वस्तुतः हैं वे विदूषक जैसे आचरण में निरत पगलाए हुए।

क्या दैवी अवलंबन— अनुकंपा का उपयोग यही है, जिसे आम आदमी लिप्सा, लालसा, अहंता के निमित्त खर्चता रहता है ? क्या इससे अच्छा उपयोग और कुछ संभव नहीं हो सकता था ? यह प्रश्न आज के मानव को देखकर रह-रहकर मन में कौंध उठता है।

विश्व-व्यवस्था की संचालक सत्ता की अदालत में अगले दिनों यह अभियोग प्रस्तुत किया जा सकता है कि या तो वह मनुष्य के अधिकार-अनुदान में अभिवृद्धि करके उसके साथ पक्षपात करता, या फिर अन्य जीवों को निरर्थक—  उपेक्षित समझकर उन्हें ऐसे ही गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहने देता। दोनों ही परिस्थितियों में यह अत्याचार नहीं तो कम-से-कम अन्याय तो कहा ही जाएगा।

बड़ों पर छोटा आक्षेप भी चर्चा का विषय बनता है और उस पर रोष असंतोष प्रकट किया जाता है। ईश्वर को सबसे बड़ा सृष्टि का सृजेता, व्यवस्थापक एवं नियामक अधिपति माना जाता है। कम-से-कम मनुष्य को तो यह शोभा नहीं देता कि अपनी कमजोरियों, त्रुटियों को परे रख वह उस सत्ता पर लांछन लगाए, जिसने उसे बनाया, विविधत-विशिष्टताओं से सुशोभित किया है। भगवान पर लांछन की नहीं, नए भगवान की नहीं, नए इंसान को बनाने की आवश्यकता है जो अगले दिनों ही पूरी होने वाली है। इक्कीसवीं सदी देव मानवों की नई पीढ़ी लेकर आने वाली है, जो तर्क पर नहीं, श्रद्धा-सद्भावना की आधारशिला पर विनिर्मित होगी।


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