औद्योगीकरण का कुकुरमुत्ता ऐसे नष्ट होगा

January 1990

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इसे बीसवीं सदी की एक विडंंबना ही कहा जाना चाहिए कि उद्योगों के फलने-फूलने में जनरुचि का बहुत बड़ा हाथ रहा है। यह प्रोत्साहन इसलिए मिला कि अधिक साफ-सुथरी अधिक आकर्षक, पॉलिश्ड वस्तुएँ हाथ की बनी वस्तुओं की तुलना में अधिक रास आने लगी हैं। वे कुछ सस्ती भी पड़ती हैं एवं प्रचुर मात्रा में आसानी से उनके विक्रेता उन्हें हस्तगत करा देते हैं।

शासनसत्ता एवं धनाधीशों ने बड़े उद्योगों को देश की प्रगति और जनता को सस्ती व अधिक सुविधा-साधन देने का आश्वासन देकर इस तेजी से गत कुछ दशकों में बढ़ाया हैं कि चारों ओर उन्हीं की भरमार दिखाई देती हैं। उन्हें स्थान व मुद्रा उपलब्ध कराने में टैक्स की अधिक प्राप्ति के प्रलोभन के कारण और भी बढ़ावा मिला। मशीनें बनाने वालों को अपने लिए काम का एक नया क्षेत्र मिला। किसानों ने अधिक राशि के बदले बहुमूल्य अन्न पैदा करने वाली अपनी जमीनें बेच दीं; फलतः जहाँ-तहाँ कुकुरमुत्तों की तरह उद्योग खड़े होते चले गए एवं भारत जैसे कृषि प्रधान देश में एक असमंजस व विरोधाभास वाली स्थिति उत्पन्न करते चले गए। आटोमेशन (स्वचालन पद्धति) ने नई-नई जटिल मशीनों का निर्माण किया। जिसमें प्रारंभ में लागत अधिक लगने पर भी अत्यधिक लाभांश मिलने की पूरी संभावना थी; किंतु रोजगार के अवसर उतने ही कम होते चले गए। कम श्रमिक, कम लेबर, यूनियन समस्या, अधिक उत्पाद अधिक लाभ, इन नीति ने ऐसा जोर पकड़ा है कि क्रमशः टेक्नालॉजी, सुपर टेक्नालॉजी में बदलती गई एवं आज की विद्रूपताभरी स्थिति खड़ी हो गई, जिसमें अगणित श्रमिक एंव शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ खड़ी दिखाई देती हैं।

कुटीर उद्योगों के साथ सुविधा-सामग्री का अभाव, हर जगह उनका उपलब्ध न होना, अधिक श्रम की माँग जैसे पक्ष जुड़े होने से यह स्वाभाविक ही था कि क्रमशः हस्तउद्योग गिरते चले जाएँ एवं उनके स्थान पर कस्बा स्तर तक भी उत्पादन प्रधान बड़े उद्योग लग जाएँ। इसे हीन भावना एवं श्रम की अवमानना का समन्वय ही कहना चाहिए कि विदेशी आयात की हुई वस्तुएँ या बड़ी मिलों से निकली सामग्रियाँ अधिक आकर्षक लगने लगती हैं एवं उपभोक्ता के संबंध में यह मान्यता दर्शकों की बनती हैं कि वह कदरदान है, कृपण या निर्धन नहीं। ऐसी मनःस्थिति में स्वाभाविक है कि सोफियानी वस्तुओं की खरीद ही होगी, वह भी अनावश्यक, चाहे वे देशी हो या विदेशी।

यह बात सभी मनीषियों, अर्थविशेषज्ञों, समाजविज्ञानियों ने कही है कि यदि समाज को ढहने से बचाना है, तो ग्रामों को व कुटीर उद्योगों को फिर जिंदा करना होगा। मशीनीकरण, शहरीकरण के साथ निष्ठुरत-शुष्कता का समंवय यह बताता है कि आने वाले समय में जैसे-जैसे शहर फूलेंगे, उनका विस्तार होगा। समस्याएँ और बढ़ेंगी तथा अंततः उन विभीषिकाओं को आमंत्रित करेंगी; जिनसे पश्चिम जगत को न केवल परेशान होना पड़ रहा है; अपितु महाविनाश की तलवार ऊपर लटकती देख सतत भयाक्रांत होकर जीना पड़ रहा है।

डॉ. इ. एफ. शुमाकर (1910-1977) जिन्हें गांधीवादी अर्थशास्त्र का एक प्रमुख प्रवक्ता माना जाता रहा है, अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “स्माल इज ब्यूटीफुल” में लिखते है कि “हमें भोगवादी प्रौद्योगिकी का मुकाबला करने के लिए मानवमुखी प्रौद्योगिकी का विकास करना होगा, जो मनुष्य के हाथों और दिमाग को बेकार बनाने के बजाए उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक उत्पादन बनाने में सहायक हो। वे कहते हैं कि— ''बड़े पैमाने के उत्पादन की प्रौद्योगिकी हिंसक पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली, संसाधनों के समाप्त होते चले जाने की दृष्टि से आत्मघातक और मनुष्य को नाकारा बना देने वाली है। इसके विपरीत बहुत से लोगों द्वारा छोटे पैमाने पर उत्पादन की प्रौद्योगिकी अच्छी-से-अच्छी, आधुनिकतम जानकारी अनुभव का उपयोग करते हुए विकेंद्रीकरण में सहायक होती है, पर्यावरण से छेड़खानी नहीं करती, दुर्लभ संसाधनों के प्रयोग में संवेदनशील होती है तथा मनुष्य को मशीन का दास नहीं बनाती, उनकी सेवा करती है। इसे 'मध्यवर्त्ती प्रौद्योगिकी' भी कहा जा सकता है, जो आने वाले समय में मानव समाज के विकास का प्रमुख आधार बनेगी।”

श्री शुमाकर का उपरोक्त कथन दूरदर्शितापूर्ण है एवं आज जब हम इक्कीसवीं सदी की कगार पर खड़े हैं, यह और भी सही  प्रतीत होता है। जब शहरों में, गंदी बस्तियों में हैजा फैलता है, तो सब वहाँ से भागने लगते हैं। कहीं अग्निकांड हो जाए तो भले ही सब कुछ जीवन भर का संजोया उपार्जन नष्ट हो जाए, पहले जान बचाने की पड़ती है एवं भागने की प्रवृत्ति चल पड़ती है। भूकंप आने के पूर्व जानवरों को पूर्वाभास होने लगता हैं, एवं वे उस स्थान से पहले ही भाग जाते हैं। अगले दिनों यही होने जा रहा हैं। औद्योगीकरण ने शहरों को फैलाया, विस्तार दिया, श्रमिकों की फौज खड़ी कर दी, आवास की सारी व्यवस्था छिन्न- भिन्न कर गंदी बस्तियों में रहने के लिए उन्हीं को विवश किया। जो गाँवों से काम के लिए भागकर शहर आए थे, अब प्रकृति ऐसी व्यवस्था कर रही है कि शहरों की बुराइयाँ ही शहरवासियों को वहाँ से भगाएँ, ताकि वे प्रकृति के साहचर्य में शरण ले सकें। आदमी विलासी न बनकर उद्यमपारायण हो, भले ही हाथ से छोटी-मोटी खेती करे या एक या दो हार्स पॉवर की मशीनों से न्यूनतम प्रदूषण पैदा करने वाला उत्पादक उद्योग वह शहरों से दूर रहकर संपादित करें।

यह पूर्वभास सहज ही उन सबको हो रहा है, जो दैवी सत्ता से परोक्ष रूप से जुड़े हैं, चिंतक-मनीषी वर्ग के हैं, दिव्य दृष्टिसंपन्न हैं, कि व्यक्ति अब शहर से पलायनकर उद्योग-प्रदूषण से भरे माहौल से भागकर प्रकृति की शरण में आएगा, खोदी खाई को पाटेगा तथा पुनः ग्रामीण परिकर की समस्वरता को स्थापितकर सारे आवास-प्रौद्योगिकी तंत्र का विकेंद्रीकरण करेगा।

यह तो नहीं मान लेना चाहिए कि यह सब अनायास रातों-रात ही हो जाएगा; क्योंकि जिन धनाध्यक्षों के हाथ में औद्योगीकरण है, वे अपना लाभ छोड़कर छोटे उद्योगों में अपनी पूंजी लगाकर अधिक श्रमिकों को, अधिक काम एकाएक दे देंगे, मलाई छोड़कर छाछ पर संतोष करने के लिए तैयार हो जाएँगे, यह भी तो तर्क संगत नहीं लगता। परंतु विश्वास क्रिया की प्रतिक्रिया वाले सिद्धांत पर किया जाना चाहिए। औद्योगीकृत नगरों के रहन-सहन ने जो-जो भी आदतें जनसाधारण को दी हैं, वे उनके पलायन का कारण बनेंगी। नशाखोरी उनमें चरम सीमा पर हैं। स्मैक, हिरोइन, चरस, तंबाकू से लेकर देशी शराब में ही मजूरों-रहवासियों का सारा उपार्जन व स्वास्थ्य नष्ट होता चला जा रहा है। यही आदतें उनके परिवारजनों को भी लग चुकी हैं। परिणाम आर्थिक कंगाली एवं अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों के रूप में सामने है। ऐसे लोगों को शहरों की सुविधा का प्रलोभन छोड़कर दूर जाना ही होगा। मध्य वर्ग व उच्च वर्ग के लोगों में भी अब ये आदतें तेजी से प्रविष्ट होती जा रही हैं। अंततः बसेरा उन्हें भी बाहर खोजना होगा।

साँप चमकीला, आकर्षक दिखाई पड़ता है; किंतु जहरीला होता है। बिच्छू आकर्षक व खिलौनों के समान बच्चों को प्रतीत होता है। किंतु हाथ लगाते ही वह जलनभरा विष अंदर प्रविष्ट कर देता है। शहर के आकर्षण इसी प्रकार के हैं। औद्योगीकरण इसी विषाक्तता; किंतु बाह्य आकार एवं पूँजी-प्रलोभन के कारण शहरों-कस्बों को फैलाता-बढ़ाता व जनशक्ति के साथ संकटों को भी आमंत्रित करता चला जा रहा है। उसे अब अपनी मौत मरना ही होगा, यह इक्कीसवीं सदी की प्रमुखशक्ति-जनशक्ति का कहना है। 

अब आदमी के मानस का ऐसा विकास होने जा रहा है कि वह स्वयं को ऐसे आकर्षणों से बचाएगा। बदन टूटना, जम्हाई लेना बुखार आने का पूर्वसंकेत है । अभी से यह संकेत बदलती परिस्थितियाँ दे रही हैं कि बड़े उद्योगों की अभिवृद्धि का क्रम रुकेगा एवं छोटे कुटीर उद्योगों को प्रश्रय मिलेगा। लोग गाँवों में, छोटे कस्बों में सीमित सुविधाओं में रहना अधिक पसंद करेंगे । इन्हें नवयुग की आधारशिला रखने वाले कम्यून भी कह सकते हैं। दैवी प्रेरणा यह कहती है कि यह सब होकर के रहेगा; क्योंकि प्रकृति यही चाहती है। चाहे मानव ऐसा विवश होकर करे तो भी उसे शहरों से गाँवों की ओर, बड़े उद्योगों से लघु उद्योगों की ओर उन्मुख होना ही पड़ेगा, यह ऋषिसत्ता की अंतःस्फुरणा है।


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