दैवी अनुकंपा के प्रमाण एवं तथ्य

January 1990

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दैवीशक्तियाँ अपने प्रिय पात्रों को सहयोग देतीं और उन पर अनुग्रह बरसाती रहती हैं। कितने ही अवसरों पर किन्हीं-किन्हीं को उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायताएँ भी मिलती रहती हैं। इन्हें दैवी अनुदान या वरदान माना जाता है। ऐसी उपलब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हुईं, उनके उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं।

इंग्लैंड के न्यायिक इतिहास में उन्नीसवीं सदी के आरंभ में एक ऐसी घटना घटी, जिसने कानून व्यवस्था को भी चुनौती दे दी। इंग्लैंड के एक्सटर जेल में ‘जॉन ली’ नामक एक व्यक्ति हत्या के आरोप में बंद था। न्यायालय द्वारा उसे मृत्युदंड सुनाया गया।

फाँसी के दिन निर्धारित समय पर डॉक्टर ने उसके स्वास्थ्य की परीक्षा की। पादरी ने ‘जॉन ली’ के किए गए अपराधों के लिए परमात्मा से क्षमा-प्रार्थना की। फाँसी का फंदा उसके गले में डालने से पूर्व जल्लाद— जेक्स वेरो ने फाँसीघर के उपकरणों की भली-भाँति जाँच कर ली। फाँसी का फंदा बनाकर खींचे जाने वाले रस्से को ठीक किया। मजिस्ट्रेट की देख-रेख में अपराधी के गले में फंदा डाला गया। जल्लाद ने पीछे हटकर नीचे के तख्ते को खींचा, किंतु तख्ता बिलकुल नहीं हिला। पुनः तख्ते का निरीक्षण किया कि संभवतः कहीं जाम हो गया हो, किंतु पाया कि वह बिलकुल ठीक था। दुबारा जोर लगाकर तख्ता खींचा गया, किंतु इस बार भी वह टस से मस न हुआ। जल्लाद ने तीसरी बार तख्ते की जाँच करने के बाद खींचने का प्रयास किया, किंतु असफलता ही हाथ लगी।

‘जॉन ली’ ठंड के दिनों में भी मानसिक पीड़ा से पसीने में डूबा था। मजिस्ट्रेट सामने खड़ा सारी कार्यवाही देख रहा था। उसके जीवन की यह अभूतपूर्व घटना थी। वह विस्मित था कि फाँसी के सारे उपकरण ठीक होते हुए भी तख्ता खिसक क्यों नहीं रहा है ? निरंतर सात मिनट तक अथक प्रयास तथा तीन बार फाँसी के तख्ते पर चढ़ाए जाने पर उसे मृत्युदंड नहीं दिया जा सका। फाँसी का निर्धारित समय बीत चुका था।

उच्च न्यायालय ने पुनः फाँसी की अपील को निरस्त करते हुए कहा कि, "आपराधिक दंड-प्रक्रिया संहिता के अनुसार न्यायालय द्वारा मृत्युदंड की सारी कार्यवाही पूरी हो चुकी है। इस समय को आगे बढ़ाना उनके क्षेत्राधिकार के बाहर है।" विश्व के न्यायिक इतिहास में यह आश्चर्यजनक घटना थी, जिसमें किसी व्यक्ति को कई बार फाँसी के फंदे में कसा गया हो और वह बच गया हो।

पत्रकारों से ‘जान ली’ ने कहा कि वह निर्दोष था। हत्या में उसे किसी प्रकार कँसा दिया गया था। अपनी सफाई एवं समुचित साक्ष्य वह न्यायालय में प्रस्तुत नहीं कर सका, जिससे उसे मृत्युदंड मिला। फाँसी के तख्ते पर चढ़ाए जाने पर वह ईश्वरीय न्याय एवं सहयोग की प्रार्थना निरंतर करता रहा, इसलिए वह बच गया।

इसी से मिलती-जुलती एक अन्य घटना सन् 1953 की है। इसमें जॉन पाल ट्रोट नामक एक व्यक्ति को फ्राँसीसी ड्यूक डिगाइज की हत्या के अपराध में मृत्युदंड दिया गया। मारने का तरीका यह निश्चित किया गया कि उसके दोनों हाथ, दोनों पैर चार अलग-अलग मजबूत घोड़ों से बाँध दिए जाएँ। घोड़े एक साथ दौड़ायें जाएँ, ताकि अपराधी के चार टुकड़े हो जाएँ। नियत व्यवस्था के अनुसार सेना के बलिष्ठ घोड़ों को घुड़सवारों द्वारा दौड़ाया गया, पर जूरी के सदस्यों को तब भारी आश्चर्य हुआ कि घोड़े एक कदम भी आगे न बढ़ सके। कैदी का शरीर इतना मजबूत बन गया कि उसका कोई अवयव न तो उखड़ता था, न ढीला पड़ता था। घोड़े तीन बार बदले गए। बारहों घोड़े जब असफल रहे, तो उसे रिहा कर दिया गया।

पुराणों में ऐसी कथाएँ बहुतायत से पढ़ने को मिलती हैं; जिनमें यह बताया गया होता है कि किसी देवता ने किसी भूखे-प्यासे व्यक्ति को आकाश से भोजन भेजा, सवारी भेजी, वाहन भेजे, सहायताएँ प्रस्तुत कीं। भूखे-प्यासे उत्तंक को देवराज इंद्र ने अन्न-जल दिया था। अश्विनी कुमार आकाश-मार्ग से देव-औषधि लेकर च्यवन ऋषि के पास आए थे और उन्हें अच्छा किया था। भगवान राम को ‘विरथ’ देखकर इंद्र ने अपना रथ भेजा था। द्रौपदी की सहायतार्थ कृष्ण ने उनकी साड़ी को योजनों लंबा कर दिया था। बाइबिल में ऐसे वर्णन आते हैं, जब महाप्रभु ईसा को देवताओं ने देव-भोग भेजे थे।

घटना सन् 1881 के मध्य की है। कैप्टन नीलकैरी अपने दो बच्चों के साथ ‘लारा’ नामक जहाज को लेकर लीवरपूल से सेनफ्रांसिस्को की ओर समुद्री लहरों के साथ आँखमिचौनी खेलते गंतव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। मैक्सिको की पश्चिमी खाड़ी से 1500 मील दूर लारा में आग लग गई। कैप्टन नील अपने परिवार तथा 32 अन्य जहाज कर्मियों के साथ जान बचाने के लिए उसे छोड़कर छोटी लाइफ बोटों पर सवार हो गए। लंबी समुद्रयात्रा करते हुए सभी को प्यास सताने लगी। पीने योग्य पानी न मिलने के कारण दल के 6 सदस्य बेहोश हो गए। अथाह समुद्र में दूर-दूर तक कहीं मीठा पानी नहीं दिख रहा था। एकाएक नील को झपकी-सी आई और उनने किसी अदृश्य सत्ता को यह कहते हुए सुना कि पास में कुछ दूरी पर समुद्र के छोटे से घेरे में हरा पानी है, जो पीने योग्य है। निद्रा भंग होते ही कैप्टन ने अपनी नाव को हरे पानी पर तैरते हुए पाया। थोड़ा-सा पानी एक बर्तन में लेकर पीने पर पाया कि वह मीठा एवं स्वच्छ जल था, जो एक छोटे-से समुद्री नखलिस्तान में भरा था। सभी ने इसे दैवी चमत्कार बताया।

एक घटना सन् 1874 की है। इंग्लैण्ड का एक जहाज धर्मप्रचार के सिलसिले में 214 यात्रियों को लेकर रवाना हुआ। विस्के की खाड़ी में पहुँचकर जहाज के पेंदे में छेद हो गया। अब जहाज का डूबना निश्चित था। जहाज के कर्मचारियों ने यात्रियों को लाइफबोट के सहारे बचाने का प्रयास करना प्रारंभ कर दिया। कुछ मल्लाह पंपों से जहाज का पानी निकालने लगे। अचानक पंपों पर काम करने वाले मल्लाहों में खुशी की लहर दौड़ गई, पानी आना बंद हो गया। जहाज तेजी से बंदरगाह की ओर दौड़ाया गया। वहाँ जाँच-पड़ताल की गई, तो पाया गया कि एक मोटी मछली जहाज के पेंदे के छेद में फँस गई हैं और अब उसके डूबने की कोई संभावना नहीं है। न जाने कौन-सी शक्ति आई व विशाल मत्स्य का रूप धारण कर सभी को बचा गई। धर्मपरायणों ने इसे परमात्मा की अदृश्य शक्तियों द्वारा उपलब्ध कराई गई सहायता की संज्ञा दी और उसे शत-शत नमन किया।

सन् 1685 में फ्राँस के राजा लुईस चौदहवें के विरुद्ध जनता ने विद्रोह कर दिया। सन् 1702 में जगह-जगह गोरिल्ला युद्ध होने लगे। ऐसी विषम स्थिति में सेनानायक क्लैरिस को, जो एक प्रोटेस्टेण्ट विद्रोही था, राजा को परास्त करने और अग्नि-परीक्षा देने की दैवी प्रेरणा उभरी।

लकड़ियों की चिता बनाई गई और क्लैरिस भाव समाधि की स्थिति में उस पर चढ़कर खड़ा हो गया। चिता में आग लगा दी गई। धीरे-धीरे आग की लपटों ने क्लैरिस को चारों तरफ से घेर लिया और वह मैदान में उपस्थित 600 लोगों की भीड़ को संबोधित करता रहा। लकड़ियाँ जलकर राख हो गईं। आग बुझ गई तब तक उसका भाषण चलता रहा। सबने देखा प्रहलाद की तरह वह जीवित खड़ा था। इस तरह वह अग्नि-परीक्षा में विजयी रहा।

यदि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को वैसा बना ले, जैसा देव वर्ग को प्रिय है, तो फिर उसे सभी अनुदान प्राप्त हो सकते हैं। आत्मपरिशोधन की तपश्चर्या में तथा लोक-मंगल की सेवा-साधना में संलग्न ऋषिकल्प संत-महामानव ऐसे अनुदान अपनी पात्रता के आधार पर विपुल परिमाण में उपलब्ध करते रहे हैं। ऐसे प्रमाणों की हर धर्म में एक बहुत लंबी शृंखला है।


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