आदर्शोन्मुख कर्मनिष्ठा

January 1990

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लंदन के एक होटल में दो व्यक्ति बैठे काफी की चुस्कियाँ लेते हुए बात कर रहे थे। इनमें एक था— भारतीय दूसरा यूरोपियन। चर्चा का विषय था, भारतीय व्यक्ति द्वारा दिया गया आज का भाषण। वह भारतीय अभी 35-36 वर्ष का युवक ही था, परंतु आज के व्याख्यान में विज्ञान के जिन नए क्षितिजों की ओर उसने इंगित किया था, उनसे विज्ञान-जगत की नइ संभावनाएँ साकार होने लगी थीं। भारतीय वैज्ञानिक ने अपने अन्वेषणों का सार-विश्लेषण करते हुए सिद्ध किया कि बिना तार की सहायता के भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजे जा सकते हैं। तब रेडियो वायरलैस की कल्पना भी किसी को न हुई थी। ये आविष्कार तो उसी खोज के बाद किए गए; जिनका श्रेय निश्चित रूप से भारत के प्रतिभासंपन्न वैज्ञानिक— ऋषि और लंदन के होटल में ठहरे उस युवक को हैं, जिसे लोग जगदीश चंद्र बसु के नाम से जानते थे।

चर्चा के बीच बसु के व्याख्यान की प्रशंसा करते हुए यूरोपियन व्यक्ति ने कहा— “तो आप इस आविष्कार को कब करवा रहे हैं”? “क्षमा करना ! मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। मैं विश्वास करता हूँ कि वैज्ञानिक आविष्कार मनुष्यमात्र की संपत्ति है और उनका ।करना उचित नहीं है।" — जगदीश बसु का उत्तर था।

इस विश्वास को सराहते हुए यूरोपियन व्यक्ति ने कहा— “मित्र एक सुझाव है। मेरे एक मित्र हैं, जो आपको इस आविष्कार के बदले जो चाहेंगे मूल्य चुकाएँगे। आप इस आविष्कार के संबंध में किसी से चर्चा न करें।”

“यह सुझाव भी मेरे सिद्धांतों के विपरीत है। मैं मानव जाति की सेवा के लिए विज्ञान की आराधना करता हूँ। किसी व्यापारी को अपनी पूजा कैसे बेचूँ” ?

चर्चाएँ और भी चलती रहीं ! दोनों मित्र विदा हुए। परंतु दूसरे दिन जगदीश चन्द्र बसु को पता चला कि इस आविष्कार के संबंध में उन्होंने जो परीक्षण किए थे और जिन निष्कर्षों पर पहुँचे थे, उन्हें कोई चुरा ले गया है।

घटना सन् 1895 की है। पता नहीं किसने बसु की मेहनत और साधना के परिणामों और सफलताओं को चुराया, पर वह खिन्न न हुए और न ही उद्विग्नता ने उन्हें सताया। उसी शांतभाव से वह अपने आगे के कार्य में लगे रहें। अभी एक वर्ष पूर्व जब उन्होंने अपनी पैंतीसवीं वर्षगाँठ मनाई थी, तब अपना सारा जीवन विज्ञान की शोध और मानव जाति की सेवा में लगाने का निश्चय किया था। इस निश्चय की पूर्ति में यह पहली सफलता मिली थी, वह भी हाथ से फिसल गई।

परंतु हताश न हुए। उन्होंने सीखा था कि सफलता से भी कई गुना मूल्यवान उद्देश्य की महानता है, जिसके प्रति स्वयं को नियोजित किया गया। संघर्ष जीवन की शान है, जो हजार मुखड़े लेकर चुनौती देता है। उस चुनौती को जो स्वीकार कर लड़ने के लिए कमर कस ले, वे विजयी होते, पर जो चुनौतियों को सामने देखकर घबड़ा जाए, उन्हें काल किसी कूड़े के ढेर में फेंक सकता है।

इस घटना के कुछ दिनों बाद एक दूसरे यूरोपियन वैज्ञानिक ने रेडियो और वायरलैस के आविष्कार को अपने नाम से पेटेंट करा लिया। कहते हैं यह वैज्ञानिक ही उस दिन लंदन के होटल में वसु के साथ देखा गया था। जब तक आविष्कार प्रकट न हुआ था, तब तक बसु थोड़े चिंतित थे। परंतु जब आविष्कार की घोषणा हुई तो बसु को चेहरा खिल उठा। इसलिए नहीं कि अपराधी मिल गया। वरन इसलिए कि उनकी उपलब्धियों का लाभ मनुष्य जाति को मिलना संभव हुआ। अब इसका श्रेय किसे मिला, इसकी उन्हें कोई चिंता न थी।

डॉ. जगदीश चंद्र बसु को अपनी इस आदर्शनिष्ठा के कारण प्रायः घाटे में ही रहना पड़ा। आविष्कार पेटेंट कराने के बाद उसके आविष्कर्त्ता वैज्ञानिक अपने लिए पर्याप्त सुविधा और साधनसंपन्न परिस्थितियाँ निर्मित कर लेते थे, परंतु भारत का यह तप:पूत ऋषि आजीवन अपने आदर्शों के लिए कष्ट-कठिनाइयों से भरा जीवन जीता रहा। उनका हृदय इस बात के लिए तैयार ही नहीं होता था कि विज्ञान की साधना और उपलब्धियों का उपयोग पैसा कमाने के लिए करें, न ही उन्हें श्रेय की कभी चिंता होती थी।

आगे चलकर उन्होंने और अनेकों चमत्कृत कर देने वाली खोजें की। पहली बार उनके प्रयासों से संसार को मालूम हुआ कि पौधों में भी जीवन है। इन खोजों का परिचय जब विभिन्न देशों में फैला, तो कई देशों के पूँजीपति-उद्योगपति उनके पास यह प्रस्ताव लेकर आने लगे कि वे अपने आविष्कार को पेटेंट करवा लें अथवा बेच दें। परंतु सिद्धांतों और आदर्शों को प्राणों से अधिक मानने वाले आचार्य बसु के लिए पैसा नहीं, आदर्श मूल्यवान था। पूँजीपतियों के प्रस्ताव से उन्हें लगा कि ज्ञान और मानवता के कल्याण की जो साधना कर रहा हूँ और उससे जो उपलब्धियाँ मिल रही हैं, उन्हें यदि इन लोगों के हाथ बेच दिया तो साधना- पथ में व्यवधान उपस्थित हो जाएगा और यह भी कि इस कारण वह एक साधक की भाँति विज्ञान के क्षेत्र में अपना अस्तित्व खाे देंगे।

अंत तक उन्होंने अपनी खोजों से आर्थिक लाभ नहीं उठाया। वरन श्रमपूर्वक ही जीविकोपार्जन करते रहे। जिस संस्था में वह प्राध्यापक थे, वहाँ से उन्हें डेढ़ हजार रुपया प्रतिमास मिलता था। चाहते तो उस रकम में ठाट-बाट के साथ रह सकते थे। पर नहीं शान-शौकत उनका दर्शन नहीं था और न ही किसी से कुछ प्रशंसा करवाने की आकांक्षा। इस वेतन का भी पाँचवाँ हिस्सा अपने लिए रखते। बाकी जनसेवा और शोधकार्यों में खर्च करते।

उनकी इस जीवन-नीति पर आश्चर्य प्रकट करते हुए उनके एक मित्र ने पूछा— “आप अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति होते हुए जिस ढंग से रहते हैं, उससे आपका मूल्यांकन कैसे होगा ? आचार्य बसु ने गंभीरता से कहा— “ मित्र ! मनुष्य जीवन के मूल्यांकन की कसौटी उसके द्वारा किया गया शान-शौकत का अर्जन नहीं है। वरन वह आदर्शोन्मुख कर्मनिष्ठा है। जिसके बलबूते हम समाज को कुछ सार्थक और उपयोगी दे पाते हैं। शान-शौकत बटोरने वालों की तो नीति उलटी है। वह देने के स्थान पर समाज से हड़पन— दूसरों को हक छीनने और अपने पास बटोरने में ही सारा जीवन गँवा देते हैं। जबकि जीवन की सार्थकता कम-से-कम लेने और अधिक-से-अधिक देने में है। इस तरह व्यक्ति संतुष्ट और समाज सुखी रहता है।” बसु की यह व्याख्या सुन मित्र चकित रह गया। अब उसे पता लगा कि उन्होंने श्रेय-सम्मान, शान-शौकत को क्यों ठुकराया ? इसके पीछे जीवन के प्रति उनका सार्थक दृष्टिकोण ही था।


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