आसन्न विभीषिकाएँ व उनके पीछे छिपी यथार्थता

January 1990

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वैभव को कमाया तो असीम मात्रा में भी जा सकता है, पर उसे एकाकी पचाया नहीं जा सकता। मनुष्य के पेट का विस्तार थोड़ा-सा ही है। उसमें सीमित मात्रा में ही आहार भरा जा सकता है। यदि बहुत कमा लिया गया है तो उसे सबको उदरस्थ कर जाने, उपयोग में लगाने की ललक, लिप्सा कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह संभव हो नहीं सकेगी। नियत मात्रा से अधिक जो भी खाया गया है वह दस्त, उलटी, उदरशूल जैसे संकट खड़े करेगा, भले ही वह कितना ही स्वादिष्ट क्यों न लगे।

शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्र भौतिक पदार्थ-संरचना के आधार पर विनिर्मित हुए हैं। उनकी भी अन्य पदार्थों की तरह एक सीमा और परिधि है। जीवित रहने और अभीष्ट कृत्यों में निरत रहने के लिए सीमित ऊर्जा, सक्रियता एवं साधन, सामग्री ही अभीष्ट है। इसका उल्लंघन करके असीम संचय और उपभोग की ललक जगे, तो समझना चाहिए कि तटबंधों को तोड़कर बहने वाली बाढ़ अपनी उच्छृंखलता के कारण अनर्थ ही अनर्थ करेगी। बिखरा हुआ पानी तो व्यर्थ जाएगा ही, उस उन्माद के कारण कितने ही खेत, खलिहान, बस्ती, झोंपड़ी तथा उपयोगी पदार्थ भी उसी प्रवाह में बहते और पड़ते, गलते दीख पड़ेंगे।

उपभोग की दृष्टि से थोड़े साधनों में भी भली प्रकार काम चल सकता है। पर अपव्यय की कोई सीम— मर्यादा नहीं। कोई चाहे तो लाखों के नोट इकट्ठे करके उनमें माचिस लगाकर होली जलाने जैसा कौतूहल करते हुए प्रसन्नता भी व्यक्त कर सकता है। पर इस अपव्यय को कोई भी समझदार न तो सराहेगा और न उसका समर्थन करेगा। बेहद चाटुकार तो कुल्हाड़ियों से अपना पैर काटने के लिए  उघत अतिवादी की भी हाँ-में-हाँ मिला सकते हैं। मन के छुपे रुस्तम का तो कहना ही क्या ? वह पीपल पर निवास करने वाले यक्ष-राक्षस की तरह अदृश्य तो रहता है, पर कौतुक-कौतूहलें इतने बनाता-दिखाता रहता है कि उस व्यामोह में फँसा मनुष्य दिग्भ्रांत होकर भूल-भुलैयाें में भटकने वाले बनजारे की तरह इधर-उधर मारे-मारे फिरने में ही अपनी समूची चिंतनक्षमता गँव— गुमा दे। तृष्णा तो समुद्र की चौड़ाई और गहराई से भी बढ़कर है। उसे तो भस्मासुर, वृत्तासुर, महिषासुर जैसे महादैत्य भी पूरी न कर सके। फिर बेचारे मनुष्य की तो बिसात ही क्या है?, जो संतोष की अभिव्यक्ति के लिए कहीं कोई आश्रय प्राप्त कर सके ?

दिग्भ्रांत मनुष्य आज अपने आपे को शरीर तक सीमित मान बैठा है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो इतना ही कुछ दीख पड़ता है। मन यद्यपि अदृश्य है पर वह भी शरीर का ही एक अवयव है। इसे ग्यारहवीं इंद्रिय भी कहा जाता है। वासना, तृष्णा इन्हीं दोनों का मिला-जुला खेल है, जो अनंतकाल तक चलते रहने पर भी कभी समाप्त नहीं हो सकता है। इसी उलझन के भवबंधनों में बँधा हुआ जीव चित्र-विचित्र प्रकार के अभाव अनुभव करता, असंतुष्ट रहता और उद्विग्नता-चिंता, आशंका के त्रास सहता रहता है। कोल्हू के बैल की तरह पिसते-पीसते रहने पर भी उसके पल्ले थकान और निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता। आश्चर्य इस बात का है कि अवांछनीय जाल-जंजालों से अपने को उबारने के लिए कुछ करना तो दूर, सोचने तक का अवसर नहीं देता। उलटे अनाचारों पर उतारू होकर कुछ भी करते रहने के लिए स्वयं सनकता, औरों को उकसाता रहता है, भले ही वह घृणित एवं अनर्थ स्तर का ही क्यों न हो ?

यही है अपने समय के मनुष्य का तात्त्विक पर्यवेक्षण। मूर्खता को कहने-सुनने में तो उपहासास्पद बताया जाता है, पर वस्तुतः वह इतनी प्रबल, आतुर एवं आवेशग्रस्त होता है कि उसके आवेग को रोक सकना अच्छे-अच्छों तक के लिए कठिन हो जाता है। यह उन्माद जब सामूहिकता के साथ जुड़ जाता है तो फिर स्थिति विशालकाय पागलखाने जैसी हो जाती है, जिसमें उस क्षेत्र के रोगी एकदूसरे को उकसाने, भड़काने, गिराने, सताने जैसी विडंबनाओं में ही लगे रहते हैं। वे सभी मात्र हानि ही हानि उठाते हैं।

गीताकार ने सच ही कहा है कि जब दुनिया सोती है, तब योगी जागते हैं। यह अनबूझ पहेली तभी प्रामाणिकसिद्ध हो सकती है, जब यह सोचा जाए कि असंख्यों अवांछनीयताओं की लहरें उठाते चलने वाले प्रस्तुत प्रवाह के साथ बहते रहने की अपेक्षा कोई आश्रय दे सकने वाला किनारा खोज सकने का मन उभरे। प्रचलनों को एक किनारे पर रखकर नए तौर-तरीके अपनाकर यथार्थता का आश्रय लेने वाली उमंग उमगे, अन्यथा अच्छे-भले नदी-नाले वाली जलसंपदा खारे समुद्र में गिरकर अपेय ही बनती चली जाएगी।

वर्त्तमान में सर्वत्र कुहासा छाया दिखता है। पतझड़ की तरह सर्वत्र ही ठूँठों का जमघट दीख पड़ता है। पतन और पराभव का नगाड़ा बजता सुनाई देता है। भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता और लगता है कि मनुष्य समुदाय अब सामूहिक आत्महत्या करने पर ही उतारू होने के आवेश से बुरी तरह ग्रसित हो रहा है। चूहों और खरगोशों की संख्या जब असाधारण रूप से बढ़ जाती है, और उनके लिए खाने, पीने, रहने के लिए सहारा शेष नहीं रहता, तो वे किसी बड़े जलाशय में स्केण्डिनेवियन लेमार्क की तरह डूब मरने के लिए बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। चल रही गतिविधियों का प्रभाव, परिणाम समझने के लिए जो भी समझदार प्रयत्न करते हैं उन्हें ऐसी ही विनाशकारी विभीषिका पूर्व की दिशा में उठने वाले घटाटोपों की तरह बढ़ती चलती आ रही प्रतीत होती है; साथ में चला आ रहा तूफान अपनी भविष्यवाणी अलग से करता है कि मानवी सत्ता, महत्ता, संपदा और प्रगति जैसे संचय में से कुछ भी उसकी चपेट से बचकर रह नहीं सकेगा।

अहंकारी यदुवंशी आपस में ही लड़कर कर खप गए थे। उनपर बाहर से कोई वज्रपात नहीं टूटा  था। आग सबसे पहले उसी स्थान को जलाती है, जहाँ से वह प्रकट होती है। बाहर फैलने और अन्यान्य वस्तुओं को जलाते चलने की प्रक्रिया तो बाद में आरंभ होती है। उद्दीप्त वासना, अनियंत्रित तृष्णा और उन्माद जैसी अहंकारिता का त्रिदोष जब महाग्राह की तरह मानवी गरिमा को निगलता, गटकता चला जा रहा तो बच सकने की आशा यत्किंचित ही शेष रह जाती है। वर्त्तमान में उफनते तूफानी अनाचार को देखते हुए औसत आदमी भावी संभावनाओं के संबंध में आशंकित और आतंकित ही हो सकता है। सचमुच हम महाविनाश की प्रलय-प्रक्रिया की ओर सरपट चाल से दौड़े जा रहे हैं।

प्रचंड प्रवाह को रोक सकने वाला बाँध विनिर्मित करने, जलधारा को नहरों के माध्यम से खेत-बगीचे तक पहुँचाने का काम तो निश्चय ही बड़ा कष्टसाध्य और श्रमसाध्य है। पर करने वाले जब प्राणपण से अपने पुरुषार्थ को सृजन की सदाशयता के साथ संबद्ध करते हैं, तो उनकी संसाधना भी कम चमत्कारी परिणाम उत्पन्न नहीं करती। फरहाद शीरी को पाने के लिए पहाड़ खोदकर लंबी नहर निकाल सकने में एकाकी प्रयत्नों के बलबूते ही सफल हो गया था। गंगा को स्वर्ग से घसीटकर जमीन पर बहने के लिए बाधित करने में भगीरथ अकेले ही सफल हो गए थे। व्यापक अंधकार पर छोटा दीखने वाला सूरज ही विजय प्राप्त कर लेता है, फिर यह आशा भी की जा सकती है कि मनुष्य में उत्कृष्टता का उदय होगा तो यह वातावरण भी बदल जाएगा, जो हर दृष्टि से भयंकर ही भयंकर दीख पड़ रहा है। यह आशावाद ही उज्ज्वल भविष्य का प्राण है।


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