भारत की आत्मा का सिंहावलोकन

January 1990

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परिव्राजक विवेकानंद उन दिनों घूम-घूमकर समूचे देश की स्थिति का अवलोकन कर रहे थे। उन्होंने देखा कि परंपराए—रीति-रिवाज इस कदर अस्त-व्यस्त और विकृत हो चुके हैं कि भारत की आत्मा इस विकृति के बोझ से दबी-पिसी जा रही है। इसे उबारने और सँवारने का कार्य तो धर्म का है, तो क्या धर्म नहीं रहा ? अथवा धर्म की संजीवनी से नवजीवन का संचार करने वाले परिव्राजक— संन्यासी नहीं रहे।

इन दिनों वह दक्षिण भारत में थे। पदयात्रा के साथ विचार-मंथन चल रहा था कि मार्ग में एक मठ दिखाई पड़ा। साधु आ-जा रहे थे। जिज्ञासा बढ़ी और पैर उधर की ओर मुड़ गए। अंदर प्रवेशकर महंत से पूछा— “क्या मैं यहाँ एक-दो दिन रह सकता हूँ।” उद्देश्य था यहाँ की जीवन-प्रणाली का अध्ययन करना।

देखा कुछ लोग स्वाध्याय कर रहे हैं। पूछा— "क्या पढ़ रहे हैं ?" "उपनिषद्।"— उत्तर मिला।

“आप लोग इस ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए क्या कर्म करते हैं?" अगला प्रश्न था ?

“कर्म!" अरे कर्म के झगड़े में हम क्यों पड़ने लगे? इससे हमारा क्या प्रयोजन?”

“पर ईशावास्य उपनिषद् तो सौ वर्ष सशक्त और समर्थ जीवन जीने और सतत कर्मरत रहने का उपदेश देता है, क्या आपने उसे नहीं पढ़ा?" कोई उत्तर नहीं मिला। “शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति आप लोग कैसे करते हैं?” “अरे इतना भी नहीं मालूम ?” जवाब देने वाले साधु ने इस तरह उनकी ओर देखा, मानो बहुत बचकाना सवाल हो। “यह काम गृहस्थों का है। वे ही हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।”

“बदले में आप उन्हें क्या देते हैं ?”

“भला हमें किसी लेन-देन से क्या मतलब।” अब वह घूमते-घूमते एकदूसरे स्थान पर पहुँचे, जो साधुओं के निवास के लिए था। संगमरमर का फर्श, विशाल कमरे, गद्देदार पलंग, यह सब देखकर उन्होंने साधु से पूछा— “क्यों महात्मा जी! आपने वे बस्तियाँ देखी हैं, जहाँ यहाँ के शिल्पी मजदूर निवास करते हैं?” "हाँ! कभी-कभी हमें उन बस्तियों से होकर भी जाना पड़ा है। पर वहाँ तो दुर्गंध और धूल-मिट्टी के कारण खड़ा भी नहीं हुआ जाता।” “कभी उनके घरों से भी भिक्षा ली?” “अरे भला वे क्या देंगेय़ उनके पास खुद ही नहीं है।” “क्या कभी आप लोगों ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि इन लोगों का दुःख-दारिद्र दूर होना चाहिए ?”

“संसार के मायाजाल में फँसे ये प्राणी अपने-अपने पापों का दंड भुगत रहे हैं। सो इनका भुगतना ही अच्छा है।”

“अरे क्या यही संन्यास है? जो पवित्रव्रत मानव समाज की सेवा के लिए लिया जाता था, उसकी यह दुर्दशा। जहाँ इन व्रतशीलों के समुदाय साहसी, सेवाभावी सृजनसैनिकों की अनुशासनबद्ध सेना के रूप में होना चाहिए, वहीं अब इन मूढ़ों, अकर्मण्यों-विलासियों का जमाव हो गया है। ”

उनका मन उद्विग्न हो गया। उनका मन रह-रहकर विचलित हो उठता। घूमते-घूमते वह कन्याकुमारी जा पहुँचे। आधी रात्रि में उत्ताल तरंगों को बेधकर, समुद्र की छाती को चीरकर जा पहुँचे, एक विशाल पाषाणशिला पर, जहाँ कभी आद्यशक्ति ने नवसृजन के लिए तप किया था। आज उन्हीं का पुत्र समाज के नवसृजन के ध्यान में डूब गया।

उन्हीं के शब्दों में यह ध्यान ईश्वर का नहीं, वरन भारत की आत्मा का था। समाज के करोड़ों मनुष्यों का था और नया संकल्प उभरा। परिव्राजकों की परंपरा को पुनः जाग्रत करना होगा। सुशिक्षित, अनुशासित कर्मठ व्यक्तियों का दल जो घूम-घूमकर द्वार-द्वार पर जाकर जीवन-बोध कराए, जिनके स्वरों से मानवीय कर्त्तव्य मुखरे और वे जुट जाएँ नवीन भारत के गठन में। एक नया भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ से, कारखाने से, हाट-बाजार से। निकले, झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों पर्वतों से ! अतीत के कंकाल समूह ! यही है तुम्हारे सामने तुम्हारा उत्तराधिकारी भारत ! इन्हीं को सुधारकर, इन्हीं की सेवा करने से सारे पापों का प्रायश्चित होगा।

कन्याकुमारी की पाषाणशिला पर लिया गया संकल्प रामकृष्ण मठ-मिशन के रूप में मूर्त्त हुआ। ऐसे व्रतशील कर्मठ सृजनसेना के रूप में जो जीव को शिवमानकर सेवा में जुट पड़े। संन्यास का सही स्वरूप सामने आया। यह बोध कराने कि संन्यास का तात्पर्य सेवा लेना नहीं, सेवा करना है। ज्ञान अर्जित करना और ज्ञान बाँटना हैं, घर-घर, द्वार-द्वार जाकर। इसमें जो कष्ट मिले, भूखे रहना पड़े, अपमान सहना पड़े उसे सहर्ष सहना है। आगे बढ़ते जाना है।

रूढ़िवादी समाज, अंधमान्यताओं से पिछड़े बने समाज का कायाकल्प आज यदि होना है तो उपर्युक्त चिंतनशैली को आधार बनाकर ही। विराट विश्व की आराधना जो कर सकें, ऐसे संन्यासी-वानप्रस्थ-परिव्राजक समयदानी-लोकसेवी समाज के हर अंचल से निकलें एवं प्रतिगामिता से मोर्चा लें, धर्म—अध्यात्म को प्रगतिशील बना उसे नए प्राण दें।

यही है सच्ची प्रव्रज्या—यही है वह सच्चा संन्यास धर्म, जिसकी अवधारणा कभी स्वामी विवेकानन्द ने कन्याकुमारी की समुद्र-अवस्थित उस शिला पर ध्यानस्थ होकर की थी। हमारे कपड़े रंगे हों या न रंगे हों, भाव उतर आया हो, तदनुरूप कर्म बन पड़ रहे हों, यही बहुत है। समय की यही आवश्यकता है कि मानवमात्र का जीवन इस भावधारा में स्नात हो, सामाजिक कर्त्तव्य निभाने में जुट पड़े, इस दिशा में जागरूकता बढ़े। इतनी कि मुक्ति की नहीं, स्वयं के मोक्ष की नहीं, सबके हित हेतु उद्यत कर्मठता ही जीवन का ध्येय बन जाए।


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