निकटता और घनिष्ठता अनावश्यक नहीं

January 1990

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संचार-साधनों से विचार-विनिमय का तरीका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं। पत्र-व्यवहार, साहित्य आदि के माध्यम से पारस्परिक विचार-विनिमय की आवश्यकता बहुत हद तक पूरी होती रहती है। चित्रों के सहारे भी दृश्यों और घटनाओं का पता चल जाता है। इस संदर्भ में विकसित वैज्ञानिक साधन भी बहुत कुछ कर दिखाता है। रेडियो प्रसारण, टीवी की फिल्मों और रिकार्डरों से भी प्रचार-प्रक्रिया में बहुत कुछ सहयोग मिलता है।

इतना सब कुछ होते हुए भी मिलन और पारस्परिक प्राणशक्ति के प्रत्यावर्तन की आवश्यकता अपने स्थान पर बनी ही रहती है। स्थानों की, वातावरण की भी अपनी-अपनी प्रभाशक्ति होती है, उनकी उपयोगिताओं और आवश्यकताओं से इंकार नहीं किया जा सकता।

तीर्थयात्रा, पदयात्रा, परामर्श, प्रवचन अपना काम करते हैं, क्योंकि उनमें स्थान की, वातावरण की एवं व्यक्ति की अपनी विशिष्ट क्षमता का समावेश होता है। यदि ऐसा न होता, तो पारस्परिक विचार-विनिमय करने की आवश्यकता न पड़ती। पत्र-व्यवहार द्वारा भी समस्याओं का समाधान हो जाया करता है। विवाह-शादी, बधाई, मृत्यु, शोक, संवेदना, दुर्घटना आदि के स्थलों पर स्वयं पहुँचने की आवश्यकता न रहती। इस संदर्भ में लोग इतना समय, श्रम और खर्च वहन न किया करते। जो मिलकर कहा जाना है, उसे पत्र की थोड़ी-सी पंक्तियों से तथा टेलीफोन आदि के सहारे कहकर काम चल जाया करता। जो देखने-दिखाने का प्रयोजन है, उसे फोटो, चित्र आदि के सहारे घर बैठे संपन्न कर लिया जाया करता।

संचार-साधनों का अपना महत्त्व होते हुए भी पहुँचने, बुलाने, मिलने और प्रत्यक्ष उपस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाले प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। उसकी क्षमता और उपयोगिता को सर्वथा नकारा नहीं जा सकता। अशोक, अंबपाली, अंगुलिमाल आदि के जीवन में जो परिवर्तन हुए, वे बिना वरिष्ठों के साथ प्रत्यक्ष मिलन संपन्न हुए असाधारण परिवर्तन की स्थिति उत्पन्न न कर सके होते, देवर्षि नारद ने किसी माध्यम से संदेश भेजकर नहीं, वरन स्वयं सत्पात्रों के पास पहुँचकर, प्रत्यक्ष प्राण-प्रेरणा देकर ही व्यक्तित्वों में महान परिवर्तन संपन्न किया था। अब भी घनिष्ठता और निकटता अपने-अपने चमत्कार दिखाती हैं। परिवारों और गिरोहों की गणना इसी आधार पर संभव और संपन्न होती है। अखण्ड ज्योति परिजन, पत्रिका में छपती रहने वाली सामग्री से, पुस्तकों से, पत्रों से कुछ प्रभाव ग्रहण न करते हों, सो बात नहीं, एक से अनेक होने में, चिनगारी के ज्वालमाल बनने में इस आधार पर भी बहुत हद तक सफलता मिली है, फिर भी वह आवश्यकता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई कि युगचेतना के उद्गम केंद्र शान्तिकुञ्ज पहुँचा जाए और वहाँ किन्हीं सत्रों में सम्मिलित होकर विद्यमान वातावरण और प्राण-प्रवाह के सान्निध्य का लाभ उठाया जाए।

गंगा जी का जल ही नहरों, रजवाहों, कुलावों आदि के माध्यम से खेतों और तालाबों तक पहुँचता हैं, फिर भी उस उल्लास को समाधान नहीं मिलता, जो गंगास्नान के लिए गोमुख-गंगोत्री तक पहुँचने-पहुँचाने के लिए उद्वेलित होता है। तीर्थ-पर्वों का दृश्य टी.वी., वीडियो आदि माध्यमों से घर बैठे भी देखने को मिल जाता है, पर उस उमंग को क्या कहा जाए और उसके समाधान के लिए क्या किया जाए, जो पर्वों पर उन विशिष्ट स्थानों तक स्वयं जा पहुँचने के लिए मचलती रहती है। तर्कों से उस उत्कंठा को निरस्त नहीं किया जा सकता, जो अन्तःकरण में अपने स्तर पर उमंग बनकर उभरती है।

शान्तिकुञ्ज में चलते रहने वाले पाँच दिवसीय, नौ दिवसीय और एक महीने वाले सत्रों का महत्त्व ऐसा है, जिसकी पूर्ति घर बैठे रहकर हो नहीं सकती। उसकी पूर्ति के लिए भावनाशीलों को अवसर एवं अवकाश निकालने का प्रयत्न करना ही चाहिए। बैटरी को दुबारा चार्ज कराने के लिए जिनने डायनेमो का प्रयोग होते देखा है, उन्हें यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि प्रचंड प्राण-प्रवाह की निकटता किस प्रकार अपनी असाधारण प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। पारस, कल्पवृक्ष, अमृत आदि की निकटता उपलब्ध न हो तो दूरवर्त्ती माध्यमों से वह प्रयोजन सध नहीं पाता। माता के पेट में निश्चित अवधि गुजारे बिना भ्रूण-कलल को शिशु जैसी स्थिति प्राप्त कर सकना कहाँ बन पड़ता है ?

घर बैठे परीक्षा पास करने की भी एक विधा है। पुस्तकें पढ़ते रहा जाए और आवेदन-पत्र भरकर परीक्षा स्थान पर नियत समय पर जा पहुँचा जाए। परिणाम तो उसका भी छपता ही है, फिर भी विद्यालय में भर्ती रहकर पढ़ने और घर बैठे उसी प्रयोजन को किसी प्रकार पूरा कर लेने के बीच अंतर तो रहेगा ही। दोनों वर्गों की स्थिति में जो अंतर रहता है, उसे नकारा नहीं जा सकता।

भाषाएँ पढ़ाने का कार्यक्रम रेडियो पर आता रहता है, उन्हें निरर्थक तो नहीं कहा जा सकता, किंतु यह आवश्यकता बनी ही रहेगी कि जहाँ उस प्रशिक्षण की समग्र अवस्था है, उसमें भरती रहकर जो सीखना है, उसे प्रभावशाली ढंग से सीखा जाए। विश्वभ्रमण में जो ज्ञानवर्द्धन एवं अनुभव विकास का प्रयोजन पूरा होता है, उसे टीवी पर आने वाले दूरदर्शन कार्यक्रम देख लेने भर से काम नहीं बनता। झलक-झाँकी पा लेना एक बात है और निकटतम का लाभ उठाना सर्वथा दूसरी।

शिल्प, संगीत जिन्हें सीखना होता है, उन्हें अध्यापक ही नहीं, उपकरणों को भी साथ सँजोना पड़ता है। पहलवानी अखाड़े से दूर रहकर संदेशवाहक के द्वारा नहीं सीखी जा सकती।

डॉक्टर, इंजीनियर, आर्कीटेक्ट, वकील, वैज्ञानिक आदि को अपनों से मूर्धन्य लोगों के साथ रहकर व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है। पुस्तकीय पढ़ाई पूरी कर लेने भर से काम नहीं चलता। गाय के दूध दुहने के लिए उसके थनों तक पहुँचता पड़ता है। दूर रहने पर उस उद्देश्य की पूर्ति कहाँ हो पाती है ? यही बात व्यक्तित्व के विकास, प्रतिभा-परिष्कार और प्रगति के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए भी अभीष्ट होती है। शान्तिकुञ्ज आने और यहाँ से निस्सृत होने वाली ऊर्जा से लाभ उठाने के लिए इसी दृष्टि से परामर्श दिया जाता है।


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