गृह की सफाई-सुव्यवस्था में व्यस्त गृहिणी को कमरे में रखे एक बक्स में दो पांडुलिपियाँ प्राप्त हुईं। सरस्वती के उपासक के घर इनकी प्राप्ति कोई अस्वाभाविक न थी। वह स्वयं पढ़ी-लिखी थी। कोई भारी-भरकम उपाधि का बोझ न ढोने पर भी स्वाध्याय की निरंतरता ने उनके भीतर विवेक को जाग्रत किया, चिंतन को विकसित किया था। पति के द्वारा तैयार की गई इन पांडुलिपियों को एक सरसरी निगाह से देखा तो अवाक रह गई। लज्जा और क्रोध से उनका चेहरा आरक्त हो गया। साहित्य के नाम पर यह प्रवंचना उन्हें असह्य लगी।
वस्तुतः ये पांडुलिपियाँ कामशास्त्र पर थीं। जिन्हें उनके पति ने लगातार परिश्रम के बाद तैयार किया था। इस विषय पर उनकी एक पुस्तक सुहागरात पहले छप चुकी थी। इस किताब को जनसमुदाय ने खूब पसंद किया। बिक्री भी खूब हूई, पर्याप्त धन भी मिला। धन और सस्ती लोकप्रियता के यों ही मिल जाने पर मित्रमंडली ने आग्रह किया कि ऐसा ही कुछ और लिखें। परिणाम उक्त दो पांडुलिपियाँ थीं। अपने पति की यह करतूत देखकर सिद्धांतनिष्ठ पत्नी तिलमिला गई। जनमानस में कुत्सित भावों को पनपाने पर जो लोकप्रियता और धन मिलता है, उस पर धिक्कार है। ऐसे साहित्यकार से तो गँवार होना अच्छा।
उस विवेकशील नारी को साहित्यकार की उत्तरदायित्वहीनता एकदम असहनीय लगी। उनकी दृष्टि में साहित्यकार की प्रतिभा ईश्वरप्रदत्त विभूति थी और जनमानस को श्रेयपथ पर चलाने वाले साहित्य का सृजन करना उस विभूति का सदुपयोग था। इस सिद्धांत का हनन करना किसी भी साहित्यकार के लिए उचित नहीं। अतएव उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पति को इस मोह से विरत करके रहेंगी।
यह विचारकर उन्होंने पांडुलिपियाँ पृथक संदूक में रख लीं, चाबी उनके अपने पास थी। कई दिनों बाद पति अपने संदूक में इन्हें खोज रहे थे, न मिलने पर परेशान भी थे। पर पूछें किससे ? पत्नी के स्वभाव से परिचित थे, पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इसी उधेड़बुन में माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आई।
परेशानी को भाँपकर गृहिणी ने पूछा— "आप क्या खोज रहें है” ?
“कुछ भी नहीं। “कुछ तो नहीं। ”
“अपनी किताबों की पांडुलिपियाँ ढूँढ़ रहा हूँ। “
जहाँ रखी थीं, वहाँ मिल नहीं रही हैं।”
“वह मेरे बक्से में ताले में बंद है और आपको कभी नहीं मिलेगी।”
“लेकिन मैंने उन पर बड़ा परिश्रम किया है। कुएँ में पड़े ऐसा परिश्रम।“ “स्त्री-पुरुषों के शारीरिक संबंधों के उद्दीपक भावों को चित्रित करने जनमानस में कुत्सा भड़काने में ही अब श्रम करना सार्थक हो गया है। भगवान ने अकल दी है, कलम में ताकत दी है, तो सामाजिक समस्याओं के निदान क्यों नहीं सुझाते ? जनरुचि को परिमार्जितकर आदर्शों की ओर मोड़ने के लिए क्यों नहीं लिखते ? कलम चलाना है तो मनुष्य में मुरझाई-कुम्हलाई संवेदनाओं को क्यों नहीं सींचते ? यदि यह नहीं कर सकते तो साहित्य लिखने की जगह मजदूरी करिए। इससे मुझे भी संतोष मिलेगा और आप दुष्कर्म से बचेंगे”।
पत्नी की फटकार से पति का सोया विवेक जाग पड़ा। क्षमा-याचना के स्वर में कहा— "तुम ठीक कहती हो देवी ! तुमने मेरी आँखें खोली दी”।
जाग्रत विवेक ने साहित्यकार को दिशा दी। वह दायित्व को पहचान जुट पड़ा लोकमानस का परिष्कार करने। साहित्यकार के दायित्व व गरिमा को पहचानने वाले मनीषी थे— पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी और दिशा बोध कराने वाली थीं— उनकी पत्नी, जिनके प्रयासों व आदर्शनिष्ठा से वह युगनिर्माता, साहित्यकार के रूप में जाने गए, अनेकों को गढ़ा और निखारा।