सबसे बड़ा पुण्य— सेवा-साधना

January 1990

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ऑस्ट्रेलिया के एक आदिवासी गाँव की ओर एक युवती घोड़ा दौड़ाते हुए जा रही थी। पहली नजर में ही उसे देखकर कहा जा सकता था कि वह किसी अभिजात्य कुल की है। घोड़े पर बैठने का ढंग, रूप-रंग, वेश-भूषा सभी उसके धनी और सुशिक्षित होने का परिचय दे रहे थे। गाँव में प्रवेश करते ही दिखा कि घरों के सामने कुछ स्त्री-पुरुष रो रहे थे। पूछने पर पता चला, उनके बच्चों को लकवा हो गया है। पूरे गाँव में एक-दो नहीं, छह बच्चे इस अपाहिज कर देने वाली बीमारी के शिकार हैं। गाँव में फैला गरीबी और दारिद्र्य  का कुचक्र इस बात की इजाजत ही नहीं देता कि वे इलाज करा सकें।

इस दयनीयता को देखकर वह सकते में आ गई। मनुष्य इतना असहाय और दीन हो सकता है; यह आज पता चला। अब तक जिसे अपने वैभव, ऐश्वर्य से ही अवकाश न मिलता था। उसे इस कड़वे सच का बोध हुआ कि धरती में दैन्य और दारिद्र्य भी कम नहीं। परमात्मा के प्रति वह कृतज्ञ होती आई थी, पर जब उसने देखा कि हमने स्वयं उसकी अनंत कृपा के प्रति अपना कर्त्तव्यभाव जाग्रत नहीं किया, तो उसे बड़ी ग्लानि हुई। जब आधे से अधिक मानव समूह पतन के अंँधेरे गर्त्त में पड़ा पीड़ा से छटपटा रहा हो, तब कुछ साधनसंपन्न व्यक्ति रंग-बिरंगी जिंदगी जीने की ललक संजोए उन्मादियों की तरह खुशियाँ मनाएँ— यह कल्पना भी उसे कष्टकर प्रतीत हुई।

एक चिकित्सक को खबर भेजी। पर जवाब आया कि समय नहीं है। हताश कर देने वाले इस उत्तर से न तो उसका विवेक डगमगाया और न साहस। उसने शौकिया नर्सिंग सीखी थी। थोड़ा-बहुत चिकित्सा संबंधी पुस्तकों से पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया था। सो उसने अपने विश्वास के बलबूते औषधि मंगाकर उन बच्चों को दी। थोड़ी गर्मी प्रतीत हुई। जिन अंगों में रक्तसंचार बंद हो गया था— धीरे-धीरे फिर प्रारंभ हो गया। कई दिन-रातों की अथक सुश्रूषा के बाद बच्चे उठ बैठे। युवती को ऐसा लगा, सचमुच सेवा के सुख से बढ़कर संसार में कोई सुख नहीं। सम्मान तो कैसे भी प्राप्त किया जा सकता है, पर यह अहंकार की तुष्टि के सिवा और क्या है? किंतु आत्मीयता भरे प्यार का आनंद कहीं भी पाया जा सकता है। जिसने सेवा का सुयोग पहिचाना और इसमें जुट पड़ने का सौभाग्य अर्जित किया, उसे यह हमेशा मिला है।

उसकी इस सेवापरायणता की कहानी धीरे-धीरे आस-पास के चिकित्सकों के कानों तक पहुँची। उन्होंने इस लड़की की बड़ी प्रशंसा की और उसे नियमित रूप से नर्सिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया। लड़की थोड़ा-सा हिचकिचाई। उसने कहा— "यह तो भगवान की कृपा से जैसे-तैसे हो गया। मैंने तो विधिवत् नर्सिंग पढ़ी नहीं है, सो ठीक-ठीक हो सकेगा, इसमें संदेह है।"

एक डॉक्टर ने कहा— "ठीक-ठीक करने की क्षमता अपने ही अंदर पनपती है। शायद तुम्हें मानवीय अंतराल की असीमित शक्तियों की जानकारी नहीं है। जानकारी न होने और उपयोग न करने के कारण सब कुछ निष्क्रिय-सा लगता है। यदि तुम अपने आप पर विश्वास करो, अपने अंदर के वैभव को पहचानों तो इन्हीं परिस्थितियों में पहाड़ जैसा श्रम कर सकती हो, अगणित व्यक्तियों की सेवा कर सकती हो।"

लगन तो थी ही— विश्वास भी जम पड़ा। कर्मठ-लगनशीलता जब दृढ़ विश्वास के साथ मिलती है, तो अंतराल की क्षमताएँ अणुबम की तरह फट पड़ती हैं, जिनका सुनियोजन चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करता है। क्षमता जाग जाने पर सुनियोजन की दिशा के अनुरूप व्यक्ति डॉक्टर, शिक्षक, इंजीनियर, समाज-सुधारक बनता है। मनुष्य का ढाँचा सभी जगह एक-सा है। दिशा के अनुरूप योग्यता का विकास उसे अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ बना देता है। चाहे यह योग्यता किसी विद्यालय में विकसित हुई हो अथवा अपने आप पैदा हुई हो।

लड़की ने अपनी योग्यताएँ बढ़ानी शुरू कीं। नर्सिंग का सैद्धांतिक ज्ञान पुस्तकों के अनवरत अध्ययन से प्राप्त किया। इसका व्यावहारिक उपयोग सेवा-सुश्रूषा के क्षेत्र में किया। चिकित्सकों से सलाह ली, उनके सहयोग से सीखा और एक दिन उसने यह सिद्ध कर दिखाया कि योग्यताएँ सिर्फ संस्थानों में नहीं पनपती, वरन घरों में, अवकाश के प्रत्येक क्षण के उपयोग से कहीं भी क्रियाशील हो बढ़ाई जा सकती है। इन योग्यताओं का स्तर किसी भी विधिवत् शिक्षण से प्राप्त योग्यता से कम नहीं होता।

अर्जित योग्यता का नियोजन वह सेवा के उर्वर क्षेत्र में करती गई। परिणामतः योग्यता के अभिवर्द्धन के साथ ख्याति भी बढ़ी। एक दिन उसके सगे-संबंधियों ने उस पर दबाव डाला कि वह शादी कर ले। उसने विनम्र भाव से असहमति प्रकट करते हुए कहा— "किसी व्यक्ति से शादी करने की बात उस समय तक तो ठीक थी, जब तक मेरा व्यक्तित्व सिकुड़ा और सिमटा था। मेरी कामनाएँ, भावनाएँ, अपेक्षाएँ सभी कुछ शरीर के लघु दायरे में कैद थीं। पर अब स्थिति बदल गई है। मैंने भगवान से शादी कर ली है, वही मेरा सब कुछ है। उसी के अनुरूप मेरा व्यक्तित्व भी विशाल और सुविस्तृत हो गया है। अब मैंने सेवा-साधना का स्वाद जो चख लिया है। समाजरूपी भगवान से मैं अब एक हो गई हूँ। मेरा पृथक कुछ भी नहीं। ऐसे में जबकि भगवान असंख्यों रूपों में दीन-हीन दशा में पड़ा कराह रहा हो, उसे इस दयनीय हालत में छोड़कर मैं किस तरह जा सकती हूँ? नहीं! मेरी तो शादी हो चुकी है, इसी को निभाने में मुझे सुख-शांति है, साथ ही गौरव की अनुभूति भी।” गौरव की अद्वितीय उपलब्धि को पाने वाली इस महिला को संसार सिस्टर एलिजाबेथ केनी के नाम से जानता है। विश्व के अनेकों विश्वविद्यालयों ने उसे डॉक्टरेट प्रदानकर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर की। यह सब औपचारिकताएँ उन मूक भावाभिव्यक्तियों के समक्ष गौण हैं, जो दुखी-पीड़ितों के चेहरों पर व उनके साथियों ने देखीं— समझीं और आत्मसात कीं।


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