चिंतन-प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन होकर रहेगा

January 1990

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“मानवी विचारधारा के अनुरूप ही वातावरण का निर्माण होता है। मन-मस्तिष्क में उठने वाले विचार-प्रवाह एक विशेष आकार धारण करते और चित्र-विचित्र या संतुलित क्रियाकलापों के रूप में प्रकट होते है। विचारों की, चिंतन-चेतना की उत्कृष्टता- निकृष्टता ही वह प्रमुख आधार है, जो मनुष्य समुदाय के उत्थान-पतन का, प्रगति-दुर्गति का निमित्तकारण बनती है। एक व्यक्ति के चिंतन की पद्धति दूसरे को भी समान रूप से प्रभावित करती है।” यह कथन है विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक एवं मनोविज्ञानी विलियम जेम्स का।

आज समस्त विश्व में हिंसा व अपराध का व्यापक दौर चल रहा है। यह प्रकारांतर से विचार-प्रदूषण की देन है। आणविक प्रयोग—परीक्षणों से उत्पन्न विषाक्तता जिस तरह समूचे बायोस्फियर को निगलती जा रही है और पर्यावरण को जो क्षति पहुँच रही है, उसके प्रति वैज्ञानिकों में गहरी चिंता व्याप्त हो गई है। उनका कहना है कि हम जिस विषैले वातावरण में श्वास ले रहे हैं, उसे हमने स्वयं विनिर्मित किया है। अब इसका समाधान भी हमें ही ढूँढ़ना पड़ेगा। सोचने-समझने का तरीका बदलना होगा। चिंता का विषय मात्र वातावरण की विषाक्तता ही नहीं है, वरन प्रमुख समस्या सामूहिक विचारतंत्र में घुस पड़ी अवांछनीयताओं की भरमार भी है। सभी इस बात से चिंतित हैं कि आज मनुष्य-मनुष्य के बीच बढ़ती कटुता को कैसे रोका जाए ? उनमें आपसी स्नेह-सद्भाव, सौजन्य कैसे स्थापित किया जाए ? दुःख-कष्टों को दूरकर जीवन को सुखी कैसे बनाया जाए और स्वयं के तथा पर्यावरण के मध्य संतुलन स्थापित कैसे किया जाए?

इस संदर्भ में पिछले दिनों टोरोंण्टो (कनाडा) में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें संसार भर के मूर्धन्य वैज्ञानिकों एवं मनीषी विचारकों ने भाग लिया। मानवी प्रगति की समीक्षा करते हुए ब्रिटिश विज्ञानी प्रो. जॉन डब्ल्यू वॉकर ने कहा कि हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ तो अभूतपूर्व व अत्यंत विशाल हैं, किंतु इसके साथ ही हमारे विचारतंत्र में घुस पड़े संकीर्ण स्वार्थपरता के विषदंश ने हमें कही का नहीं रहने दिया हैं। सर्वत्र लूट-खसोट मची है। इसके दुष्परिणामों से उत्पन्न खतरे को रोक पाने में हम अक्षम— असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं। निरंतर बढ़ता जा रहा विचार प्रदूषण मानव अस्तित्व के लिए एक संकट बनता जा रहा है। मानवी मस्तिष्क से निस्सृत होने वाली विचार तरंगों के विज्ञान से संबद्ध इस संगोष्ठी में इस बात पर सम्मिलित रूप से जोर दिया गया कि यदि मनुष्य जाति को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उसे अपने विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा। भौतिकवादी विचारधारा की बहुलता ने ही आणविक अस्त्रों को जन्म दिया, जिसने अपने सहित समस्त जीवों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। जब तक इस विचार-प्रक्रिया में कोई बदलाव अथवा परिवर्तन नहीं आता, तब तक मानवजाति का भविष्य उसका अस्तित्व खतरे में पड़ा रहेगा।

मैसाचुसेट्स के मानसिक स्वास्थ्य-प्रभाग के वरिष्ठ प्राध्यापकों का कहना है कि प्रस्तुत समय की विचारणा-प्रक्रिया के सामान्य संचालन में मनुष्य-मनुष्य के प्रति एवं पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का अभाव स्पष्टरूप से परिलक्षित हो रहा है। उनका मत है कि मस्तिष्क की सामान्य प्रक्रिया के इस दोष को मात्र ज्ञान या विचार परिष्कार द्वारा ही दूर किया जा सकता है और तभी एक आदर्श मानवतावादी ‘इकोलॉजी’ विकसित हो सकती है। मात्र इसी परिशोधित विचार-विकास के माध्यम से हम उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें मानवी हृदय शुद्ध— परिष्कृत होकर सभी प्रकार की दुर्भावनाओं से मुक्त हो सकेगा। मनीषीगण कहते हैं कि विचार-विकास या परिवर्तन प्रस्तुत समय की अनिवार्य आवश्यकता है और वह असंभव भी नहीं है, प्रयत्नों द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। भूतकाल में भी ऐसा अर्जित किया गया है।

इस संबंध में अमेरिकी मनःचिकित्सक डॉ. जॉर्ज आर. बैच का कहना है कि हमारी अंतश्चेतना पर सुखवाद और भोगवाद के आक्रमण ने आज सभी को स्वार्थी बना दिया है। सर्वत्र अपने हित-चिंतन की ही बात सोची जाने लगी है। उसकी पूर्ति के लिए उचित-अनुचित सभी तरह के तरीके अपनाए जाते हैं। इस मनोवृत्ति को उनने ‘हैंडसम डैविल’ के नाम से सबोधित किया है। इस निषेधात्मक विचार-प्रक्रिया को अपनाने के कारण न केवल भोगवादियों को संत्रस्त रहना पड़ रहा है वरन, परोक्ष रूप से उसका प्रभाव समूची मानव जाति पर पड़ रहा है। दार्शनिकों ने इस मनोवृत्ति को ‘हैडोनिज्म’ कहा है, जिसके कारण मनुष्य मादक पदार्थों के सेवन से लेकर परपीड़न, कामुकता, अपराधों, मनोरोगों, और आत्महत्या की ओर अग्रसर होता जाता है। उनके अनुसार यह दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं के अंदर से तो प्रस्फुटित होती ही हैं, साथ ही दूसरों द्वारा छोड़े गए हेय विचार तरंगों से भी प्रभाव एवं उत्तेजना ग्रहण करती हैं। मनुष्य को अस्त-व्यस्त करके रख देने वाला यह विचार-प्रवाह जब सामाजिक जीवन में प्रवेश पा जाता है, तो वह एक प्रकार से ‘सोशियोजेनिक मॉनीटर' का रूप धारण कर लेता है। इसकी परिणति भयावह होती है। संसार जिस द्रुतगति से परिवर्तनशील और गतिशील होता जा रहा है, मानवी चिंतन, चरित्र और व्यवहार में गिरावट के दृश्य ही परिलक्षित हो रहे हैं। उत्कृष्टता का पक्षधर वातावरण विनिर्मित होता कहीं दीख नहीं पड़ता।

उलटे को उलटकर सीधा कौन करे ? विधेयात्मक दिशा कैसे मिले ? इसका उत्तर देते हुए मनीषीगण कहते हैं कि भोगवादी वातावरण का निर्माण जिन मस्तिष्कों ने किया है, उन्हीं का यह भी कर्त्तवय बनता है कि वैज्ञानिक प्रगति की दिशा-परिवर्तन करें। मूर्धन्यों की चिंतनशैली के बदलने पर जनसामान्य की विचारणा भी नवनिर्मित वातावरण के अनुरूप ढलती चली जाएगी।

प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डॉ. रॉबर्ट एंथोनी का इस संबंध में कहना है कि जिस प्रकार किसी एक परमाणु के विखंडित होने पर भारी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है और अदृश्य ऊर्जा की ये सूक्ष्म-तरंगें समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त होती चली जाती हैं, मनुष्य के अंतराल की भी लगभग वैसी ही स्थिति है। हृदय से उद्भूत सद्प्रेरण—सद्विचारणा का विखंडन किया जा सके, तो उससे सूर्य के सदृश ऊर्जा भंडार फूट पड़ेगा। हमारा मस्तिष्क इस विखण्डित ‘साइक्लोट्रॉन’ ऊर्जा समुच्चय को धारण करने की क्षमता रखता है। इच्छा-आकांक्षा को, कल्पना-विचारणा को सृजनात्मक दिशा देना इसी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक उत्सर्जित मानसिक ऊर्जा तंत्र द्वारा संभव है। उनके अनुसार विश्व-ब्रह्मांड में जिस प्रकार एक प्रचंड विद्युत चुंबकीय शक्ति क्रियाशील है और आकर्षण-विकर्षण के अपने नियमानुसार कार्यरत रहकर सूर्यमंडल एवं उसके चारों ओर चक्कर काटने वाले ग्रह-गोलकों और तारागणों के गुरुत्वाकर्षण को नियंत्रित किए हुए है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क से निस्सृत विचार-प्रवाह का संतुलन अथवा असंतुलन उसके स्वयं के तथा वातावरण के भले-बुरे निर्माण में अपनी भूमिका निभाता है।

वस्तुतः मस्तिष्कीय चुंबकत्व का नियम प्रकृति के चुंबकीय नियम से बहुत कुछ मिलता-जुलता हेेै। चुंबक लौह-कणों को जिस तरह अपनी ओर खींच लेता है, मस्तिष्क भी लगभग वही प्रक्रिया अपनाता है। समानधर्मी विचारों से तो वह प्रभावित होता ही है, विधर्मी सशक्त प्रवाह भी उसे अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं।

जब किसी तालाब में पत्थर का एक टुकड़ा फेंका जाता है, तो लहरें उठकर एक गोलाकार वृत्त बना लेती हैं। पर यदि पृथक-पृथक आकार के दो टुकड़े कुछ दूरी पर एक साथ फेंके जाएँ तो उनके द्वारा विनिर्मित लहरों में विशेष अंतर दिखेगा और भारी टुकड़े की लहरें छोटे वाली लहरों पर हावी हो जाएँगी। मानवी विचारतंत्र पर भी यही तथ्य पूर्णरूप से लागू होता है। मनुष्य के उत्कृष्ट, परिष्कृत एवं विधेयात्मक चिंतन की ऊर्जा-तरंगें अपेक्षाकृत अधिक सशक्त और प्रबल होती हैं। आज इनका पोषण, अभिवर्द्धन एवं उत्सर्जन ही समग्र प्रगति, सुखद वातावरण एवं उज्ज्वल भविष्य के लिए अभीष्ट है।


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