फिर एक ईसा ने सूली को स्वीकारा

January 1990

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गोवा प्रांत का कुनारा गाँव। एक साधु अपनी कुटिया में बैठे स्वाध्याय कर रहे थे। अचानक बाहर से दरवाजा पीटने की आवाजें आईं। पोथी बंदकर वह उठे और धीरज से द्वार खोला। बाहर कुछ स्त्री-पुरुष  छोटे-छोटे बच्चों सहित बदहवास खड़े थे। क्या हो गया तुम्हें ? पूछा ही था  कि उनमें से कुछ ने कहा— "महाराज ! पहले भीतर आने दें, फिर बता सकेंगे।" साधु ने इशारा किया और वे एक-एक करके अंदर आ गए ।

उनमें से एक ने बताना शुरू किया— चारों तरफ गोलियों की बौछार होती हैं। वे पुरुषों को अपमानित करते, मारते और स्त्रियों को अपनी ‘पाशविक हविश का शिकार बनाते हैं।" "वे कौन ?" जवाब मिला— "पुर्तगाली"। घटना के समय सोलहवीं शती में गोमंतक क्षेत्र में उन्हीं का अधिकार था। एक-एक करके हर किसी ने उनकी बर्बरता के किस्से रो-रोकर सुनाए। सुनकर साधु का मन क्षुब्ध हो गया। इतने में रात्रि हो चुकी थी, वे सभी जैसे आए वैसे ही एक-एक करके अँधेरे में लीन होते गए। कहाँ? बस कहीं सुरक्षित स्थान की तलाश में।

पीड़ित तो चले गए, पर पीड़ा छोड़ गए। क्या करें ? कैसे करें ? मन में यह भी आया कि मुझे क्या करना, उन्हें भुगतने दो; किंतु स्वाध्याय के क्षणों में पढ़े जा रहे श्वेताश्वतर उपनिषद के कथन— “तू ही स्त्री है, तू ही पुरुष, तू ही सभी के रूप में प्रकट है।”, ने कायरता के मुँह पर जोरदार थप्पड़ जमाया। मन में विचार दृढ़ हुआ। परमात्मा के लिए ही तो संन्यास लिया है और उपनिषद् के शब्दों में वह तो सभी रूपों में है। उसकी सेवा के लिए एकांत सुख का त्याग करना ही होगा। सर्वहित के लिए व्यक्तिगत सुखों का त्याग ही तो संन्यास है।

दृढ़ धारणा के साथ योजना भी दृढ़ हुई। बुराइयाँ तभी पनपती हैं, जब अच्छाइयाँ अपनी जीवनीशक्ति खो देती हैं। दुर्बल हुई जीवनीशक्ति पर बुराइयों के लगातार प्रहार का नाम अत्याचार हैे। उपाय एक ही है बुराइयों से असहयोग और अच्छाइयों का पोषण। इसके लिए कायरता और क्लीवता से ग्रसित जनमानस में विश्वास का संचार करना होगा। विश्वास अपने प्रति, कर्मठता संघर्ष के प्रति। यदि यह जग सका तो परमेश्वर की कृपा उतरे बिना न रहेगी।

अन्य साधु भी इसमें शामिल हों, इस हेतु उनके पास जाकर अपनी इस योजना से अवगत कराने की सोच उभरी। इसी फेर में वह घूम रहे थे। जंगल में एक स्थान पर कुछ साधु रह रहे थे। उनसे अपनी सारी बातें कहीं। आशा के विपरीत जवाब मिला, क्या इसीलिए संसार छोड़ा है कि फिर उसी भ्रम-जंजाल में पड़ें। संसार नहीं परिवार कहिए— क्रांति का संदेश सुनाने आए साधु ने उनके कथन को सुधारा।

चलिए यही सही, पर यहाँ हम लोग अपनी मुक्ति के लिए यत्न कर रहे हैं, उसमें रोड़ा न अटकाएँ।

“मैं रोड़ा अटकाने नहीं; वरन उस यत्न को और अधिक परिमार्जित करने आया हूँ”।

सभी उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगे। उसने कथन जारी रखा—  मुक्ति आलस्य-अकर्मण्यता से, इंद्रियों की दासता से, दैन्य की भावना से, अहंकार से, प्रमाद से, क्लीवता, कायरता से। यदि तुम अपनी और सबकी इस मुक्ति के लिए, अपने सुख और जीवन की बलि नहीं दे सके, तो तुम्हारा संन्यास व्यर्थ है। फिर तो यही कहा जाएगा कि वैराग्य के नाम पर पलायन, तप के नाम पर अहंकार, त्याग के नाम पर जड़ता पनप रही है और इन तीनों के मिश्रित स्वरूप त्रिदोष संन्यास नहीं, सन्निपात को जन्म देंगे। जिससे आत्मा जन्मांतर तक सिसकती रहेगी । 

साधुओं के समझ में उसकी बातें आ रही थीं। उन्होंने पूछा फिर संन्यास क्या है ?

मेरे नहीं, गीता के शब्दों में “काम्यानां कर्मणा संन्यासं कवयो विदुः” अर्थात स्वार्थपरता, क्षुद्र कामनाओं में उलझाने वाले कामों को सर्वहित में छोड़ना संन्यास है। बात समझ आ चुकी थी। संन्यास का मर्म पता चल गया था।

उनके नेतृत्व में सभी साधु अब जन-जन में पीड़ित मानवता में ईश्वरदर्शन करने लगे थे। अस्तु उनका प्रधान कार्य मानवोचित शौर्य-साहस उत्पन्न करने के लिए जनसंपर्क बनाना और जनसाधारण के क्रियाकलापों में निरत रहना बन गया। वे घर-घर जाते, जन-जन से मिलते और यही समझाते कि यदि संगठित रूप से अत्याचार-अनाचार का प्रतिरोध किया जा सके तो शक्तिशाली बर्बरता को भी परास्त किया जा सकता है। व्यक्तियों का संगठन करके ये जगह विचारों के क्रांतिकारी गुण ही तूफान को गति दे रहे थे। जनता में एक नवीन साहस पैदा होने लगा था।

पुर्तगाल के अत्याचारी यह जानने को बेचैन थे कि जो आतंकित जनता मुँह खोलने का साहस नहीं जुटा पाती थी। उसमें प्राण फूँकने वाला कौन है ? वे एकदूसरे को कहते— अरे मुर्दे भी जिंदा होने लगे। बहुत खोज-बीन करने के बाद उन्हें पता चल सका कि सद्विचारों के तूफान में दुष्प्रवृत्तियों की दुर्गंध उखाड़ फेंकने वाले और कोई नहीं संत गौरीनाथ हैं। जिन्होंने साधुओं और सामान्यजन को साथ ले जन-जन में नवजीवन का संचार किया है।

आखिर एक दिन अनाचारियों के समूह ने उन्हें पकड़ ही लिया। हंटरों से पीटा, भूखा-प्यासा रख गंदे और फटे कपड़े पहनाए, जूतों की माला गले में डाली और उनसे जनजाग्रति के कार्य से विरत होने को कहा। इस पर उनका जवाब था—“ न मुझे लोभ अपने पथ से डिगा सकते और न अत्याचारों में मुझे विचलित करने की सामर्थ्य है। क्रूरता के पुतलों ने मृत्युदंड दिया। जिसे उन्होंने यह कहते हुए स्वीकारा—  भाइयो ! हम खुशी-खुशी मृत्यु को स्वीकार रहे हैं, ताकि आप सभी जीवित रहें। सर्वस्व त्याग कर रहे हैं, ताकि आप सब स्वाधीन और गौरवमय जीवन बिता सकें। इसे देखकर-सुनकर सहृदय ईसाइयों ने कहा—  "प्रेम व सदाचार जीवित रह सकें, इसके लिए, आज फिर एक ईसा ने सूली को स्वीकारा। विचारशीलों के मुख से निकला, सद्विचारों की फसल लहराए, इसी हेतु युग के सुकरात ने जहर का प्याला पिया।" आस्तिक शिवभक्तों ने कहा— "शव की तरह सोए जनमानस में विचारों का प्राण फूँककर सर्वहित में जुट पड़ने का शिवत्व जागे और जागता रहे, इसीलिए आज पुनः मृत्युंजय ने हलाहल पिया। कहा भर नहीं, सभी ने संकल्प लिया कि उनके विचारों को मरने नहीं देंगे। स्वयं की कर्त्तव्यनिष्ठा सुप्त न होगी और एक दिन ऐसा आया, जब गोमंतक क्षेत्र मुक्ति पा सका।"

सर्वहित के लिए सर्वस्व त्याग की आवश्यकता कम नहीं हुई है। पर इस बदलते समय में जो कुछ हम देंगे, उसका अनेकों गुना जनश्रद्धा, आत्मीयता भरे प्यार के रूप में मिलेगा। नए युग की नई  समाज-संरचना के लिए अनेकों गौरीनाथ आवश्यक हैं, जो “अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहौं निरवान” का संकल्प दुहराते हुए विराट भगवान की भक्ति करने का असाधारण साहस दिखा सकें।


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