मधु-संचय (कविता-संग्रह)

January 1990

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(1)  प्रगति-गान

कर्मक्षेत्र में प्रगति पंथ पर, रहें चरण गतिमान ।

थकें नहीं, हम रुकें नहीं, प्रभु माँग रहे वरदान॥

हिमगिरि के ऊँचे शिखरों से गंगा की धारा बहती।

मंजिल को पाने से पहले कितनी बाधाएँ सहती॥

अनगिन चट्टानें धारा का मार्ग भले ही हो रोकें।

कितने ही वीरान मरुस्थल उस प्रवाह को यदि टोकें॥

सागर से जा ही मिलती तब जग करता गुणगान।

प्राणवायु का शीतल झोंका कभी राह में क्या थकता ?

अरे तेल रहते दीपक का जलना भी क्या रुक सकता ?

धरती, चंद्र और तारे पथ अपना-अपने आप बनाते।

वृक्ष, वनस्पति, सारे प्राणी सतत प्रगति करते जाते॥

नहीं ठिठकते बीच राह में यही सभी की आन।

सृष्टिमौर मानव आखिर फिर हो निराश क्यों थक जाएँ।।

मंजिल पर बढ़ने वाले पग, लक्ष्य पूर्व क्यों रुक जाएँ।

जीवन मग की हर बाधा हम फूल समझ बढ़ते जाएँ॥

काम, क्रोध और लोभ, मोह, सब प्रलोभनों टकरएँ।

बिन भटकें, बिन मुड़े मार्ग से करें लक्ष्य संधान।

कर्मक्षेत्र में प्रगति पंथ पर रहें चरण गतिमान॥

— सुरभि कुलश्रेष्ठ


(2)  प्रतिभा संवर्द्धन 

प्रतिभा अमर हुई है, उसका पौरुष अमर हुआ।

उसकी साधों के सौरभ पर, जन-मन भ्रमर हुआ॥

प्रतिभा की विनम्रता ! उसकी नींव बनाती है।

अपने साहस, संकल्पों के, भवन उठाती है॥

वह ही जीता जग में, जिसका जीवन-समर हुआ।

प्रतिभा अमर हुई है, उसका पौरुष अमर हुआ॥

प्रतिभा ही जनमंगल की, आहुतियाँ देती है।

जनहिताय विष भी पीने की पीड़ा सहती है।

अमृत हुआ, अधर को छूकर शुभ कब जहर हुआ।

प्रतिभा अमर हुई है, उसका पौरुष अमर हुआ।

युग-पीड़ा प्रतिभाओं को, आवाज लगाती है।

मानवता के घर में, पशुता सेंध लगाती है॥

युग-प्रज्ञा का आहुतियों को, इंगित उधर हुआ।

प्रतिभा अमर हुई है, उसका पौरुष अमर हुआ।

— मंगल विजय


(3)  हम जिएँ किस तरह

हों खुले मन, खुली खिड़कियों की तरह।

रोशनी बाँटते हों दियों की तरह॥1॥

हों अगर खिड़कियाँ बंद, बढ़ती घुटन,

हो बंँधा नीर तो खूब बढ़ती सड़न,

वायु- से बह सकें हम सभी के लिए।

बज सकें हम मधुर घंटियों की तरह॥2॥

सूर्य बँधता नहीं बादलों में कभी,

कौन प्रतिभा रुकी दलदलों में कभी ?

यदि हृदय में प्रबल एक संकल्प हो।

विघ्न मिट जाएँगे गलतियों की तरह॥3॥

गिरिशिखर-सा सदा उच्च आदर्श हो,

फूल-सा शूल के बीच उत्कर्ष हो,

फूल बनकर खिलें पुण्य, उद्यान में।

हों नहीं हम विजन घाटियों की तरह॥4॥

कर सकें यदि न कुछ हम समय के लिए,

दे सकें कुछ न दुखते हृदय के लिए,

व्यर्थ रह जाएँगे काल की रेत पर।

हम पड़े खोखले सीपियों की तरह॥5॥

— शचीन्द्र भटनागर


(4)  पर-उदारता उसकी

पहुँच न पाए हम सागर तक— बहुत दूर था। 

पर उदारता उसकी— बरस गया बादल बन॥1॥

छू न सके हम सूरज को— वह बहुत गरम था।

पर उदारता उसकी— हमको छुआ किरण बन।।2।।

भर न सके बाहों में हम, आकाश विशद था।

पर उदारता उसकी— आया नित ऊर्जा बन।।3।।

ला न सके आँगन में नंदन कानन को।

पर उदारता उसकी— आता रहा गंध बन॥4॥

हिमगिरि पर चढ़ते, यह बात असंभव ही थी।

पर उदारता उसकी— आया गंग नीर बन॥5॥

और परम प्रभु की दूरी तो बस अनंत है।

पर उदारता उसकी— तन में बसा प्राण बन॥6॥

— माया वर्मा




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