जीवन देवता को कैसे साधें ?

January 1990

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प्रकृति अलमस्त बच्चे की तरह निरंतर अपने खेल-खिलवाड़ में लगी रहती है। पंचतत्त्वों के रेत-बालू को बटोरना, सँजोना, बढ़ाना-घटाना, बिगाड़ना, बस यही उसके क्रियाकलाप का केंद्रबिंदु है। बाजीगर का तमाशा देखने में अपनी सुध-बुध खो बैठने वाले मनचले दर्शकों की तरह लोग उस कौतुक-कौतूहल को देखने के लिए एकत्रित हो जाते हैं। हाथ की सफाई का कमाल उन्हें ऐसा सुहाता है कि कहाँ जाना था, क्या करना था, जैसे तथ्यों को भूल बैठते और बेतुकी कल्पनाओं में उड़ने-तैरने लगते हैं। इन प्रपंच-कौतुकों में मन भी सहायता देता है, रोने-हँसने तक लगता है। विचित्र है यह कौतुक-कौतूहल, जिसने समझदार कहे जाने वाले मनुष्यों को भी अपने साथ बेतरह जकड़-पकड़ रखा है। इस दिवास्वप्न की प्रवंचना का पता तब चलता है, जब आँख खुलती है, नशे की खुमारी उतरती है और भगवान के दरबार में पहुँचकर सौंपें गए कार्य के संबंध में पूछताछ की बारी आती है। इससे पूर्व यह पता ही नहीं चलता कि कितना गहरा भटकाव सिर पर हावी रहा और वह कराता रहा, जिसे करने के लिए उन्मादग्रस्तों के अतिरिक्त और कोई कदाचित ही तैयार हो सकता है।

अब आइए, जरा समझदारी अपनाएँ और समझदारों की तरह सोचना आरंभ करें। मनुष्य जीवन, सृष्टा की बहूमूल्य धरोहर है, जो स्वयं को सुसंस्कृत और दूसरों को समुन्नत करने के दो प्रयोजनों के लिए सौंपा गया हैं। इसके लिए अपनी योजना अलग बनानी और अपनी दुनिया अलग बसानी पड़ेगी। मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है। उसे कभी-कभी बंधन समझती है तो रोती-कलपती भी है; किंतु जब भी वस्तुस्थिति की अनुभूति होती है, तो समूचा मकड़जाल समेटकर उसे गोली बना लेती और पेट में निगल लेती है। अनुभव करती है कि सारे बंधन कट गए और जिस स्थिति में अनेकों व्यथा-वेदनाएँ सहनी पड़ रही थी, उसकी सदा-सर्वदा के लिए समाप्ति हो गई ।

ठीक इसी से मिलता-जुलता दूसरा तथ्य यह है, कि हर मनुष्य अपने लिए अपने स्तर की दुनिया अपने हाथों आप रचता है। उसी घोंसले में वह अपनी जिंदगी बिताता है। उसमें किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं है। दुनिया की अड़चनें और सुविधाएँ तो धूप-छाँव की तरह आती-जाती रहती हैं। उनकी उपेक्षा करते हुए कोई भी राहगीर, अपने अभीष्ट पथ पर निरंतर चलता रह सकता है। किसी के भी बस में इतनी हिम्मत नहीं, जो बढ़ने वालों के पैर में बेड़ी डाल सके। भले या बुरे स्तर के आश्चर्यजनक काम कर-गुजरने वालों में से प्रत्येक की कथागाथा इसी प्रकार की है, जिसमें प्रतिकूल परिस्थितियों का झीना पर्दा उनने हटाया और वही कर गुजरें, जो उन्हें अभीष्ट था।

शास्त्रकारों और आप्तजनों ने इस तथ्य का पग-पग पर प्रतिपादन किया है। वेदांत विज्ञान के चार मह्त्त्वपूर्ण सूत्र हैं— “तत्त्वमसि”, “अयमात्मा ब्रह्म”, “प्रज्ञानं ब्रह्म", “सोहम्”। इन चारों का एक ही अर्थ है कि परिष्कृत जीवात्मा ही परब्रह्म है। हीरा और कुछ नहीं, कोयले का ही परिष्कृत स्वरूप है। भाप से उड़ाया हुआ पानी ही वह स्त्रीवत् जल (डिस्टिल्ड वाटर) है, जिसकी शुद्धता पर विश्वास करते हुए उसे इंजेक्शन जैसे जोखिम भरे कार्य में प्रयुक्त किया जाता है। मनुष्य और कुछ नहीं, मात्र भटका हुआ देवता है। यदि वह अपने ऊपर चढ़े मल, आवरण और विक्षेप को, कषाय-कल्मषों को उतार फेंके, तो उसका मनोमुग्धकारी अतुलित सौंदर्य देखते ही बनता है। गांधी और अष्टावक्र की दृश्यमान कुरूपता उनकी आकर्षकता, प्रतिभा, प्रामाणिकता और प्रभाव-गरिमा में राई-रत्ती भी अंतर न डाल सकी। जब मनुष्य के अंतःकरण का सौंदर्य खुलता है, तो बाहरी सौंदर्य की कमी का कोई मह्त्त्व नहीं रह जाता।

 गीताकार ने इस तथ्य की अनेक स्थानों पर पुष्टि की है, वे कहते है— ''मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है और स्वयं अपना मित्र है”। “मन ही बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण है”। “अपने आप को ऊँचा उठाओ, उसे गिराओ मत”। इन अभिवचनों में अलंकार जैसा कुछ नहीं है। प्रतिपादन में आदि से अंत तक सत्य ही सत्य भरा पड़ा है। एक आप्तपुरुष का कथन हे—” मनुष्य की एक मुट्ठी में स्वर्ग और दूसरी में नरक है। वह अपने लिए इन दोनों में से किसी को भी खोल सकने में पूर्णतया स्वतंत्र है।

यदि कस्तूरी वाले मृग की तरह निरर्थक न भटकना हो, तो अपना ही अंतःकरण टटोलना चाहिए। उसी पर्दे के पीछे बैठे परमात्मा को जी भरकर देखने की, हृदय खोलकर मिलने-लिपटने की अभिलाषा सहज ही पूरी कर लेनी चाहिए। भावुकता भड़काने या काल्पनिक उड़ानें उड़ने से बात कुछ बनती नहीं। ईश्वर जड़ नहीं, चेतन है। इसे प्रतिमाओं तक सीमित नहीं किया जा सकता। चेतना वस्तुतः चेतना के साथ ही, दूध-पानी की तरह घुल-मिल सकती है। मानवी अन्तःकरण ही ईश्वर का सबसे निकटवर्त्ती और सुनिश्चित स्थान हो सकता है।

मंदिर बनाने के लिए अतिशय व्याकुल किसी भक्तजन ने किसी सूफी संत से मंदिर की रूपरेखा बना देने के लिए अनुरोध किया। उनने अत्यंत गंभीरता से कहा— ”इमारत अपनी इच्छानुरूप कारीगरों की सलाह से बजट के अनुरूप बना लो, पर एक बात मेरी मानो, उसमें प्रतिमा के स्थान पर एक विशालकाय दर्पण ही प्रतिष्ठित करना, ताकि उसमें अपनी छवि देखकर दर्शकों को इस वास्तविकता का बोध हो सके कि या तो ईश्वर का निवास उसके लिए विशेष रूप से बने इसी काय-कलेवर के भीतर विद्यमान है, अथवा फिर यह समझें कि आत्मसत्ता को यदि परिष्कृत किया जाए, तो वही परमात्मसत्ता में विकसित हो सकती है। इतना ही नहीं, वह परिष्कृत आत्मसत्ता, पात्रता के अनुरूप दिव्य वरदानों की अनवरत वर्षा भी करती रह सकती है। भक्त को कुछ का कुछ सुझाने वाली सस्ती भावुकता से छुटकारा मिला। उसने एक बड़ा हाल बनाकर सचमुच ही ऐसे स्थान पर एक बड़ा दर्पण प्रतिष्ठित कर दिया, जिसे देखकर दर्शक अपने भीतर के भगवान को देखने और उसे निखारने-उभारने का प्रयत्न करते रह सकें।

मनःशास्त्र के विज्ञानी कहते हैं कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही करता है एवं वैसा ही बन जाता है। किए हुए भले-बुरे कर्म ही संकट एवं सौभाग्य बनकर सामने आते हैं। उन्हीं के आधार पर रोने-हँसने का संयोग आ धमकता है। इसलिए परिस्थितियों की अनुकूलता और बाहरी सहायता प्राप्त करने की फिराक में फिरने की अपेक्षा, यह हजार दर्जे अच्छा है कि भावना, मान्यता, आकांक्षा, विचारणा और गतिविधियों को परिष्कृत किया जाए। नया साहस जुटाकर, नया कार्यक्रम बनाकर प्रयत्नरत हुआ जाए और अपने बोए हुए को काटने के सुनिश्चित तथ्य पर विश्वास किया जाए। बिना भटकाव का यही एक सुनिश्चित मार्ग है।

मानव जीवन का परम पुरुषार्थ सर्वोच्च स्तर का सौभाग्य एक ही है, कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पाए। भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण वाले स्वभाव-अभ्यास को और अधिक गहन करते रहने से स्पष्ट इनकार कर दे। भूल समझ में आने पर उलटे पैरों लौट पड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। गिनती गिनना भूल जाने पर, दुबारा नए सिरे से गिनना आरंभ करने में किसी समझदार को संकोच नहीं करना चाहिए। जीवन सच्चे अर्थों में धरती पर रहने वाला देवता है। नर-कीटक, नर-पशु, नर-पिशाच जैसी स्थिति तो उसने अपनी मनमर्जी से स्वीकार की है। यदि वह कायाकल्प जैसे परिवर्तन की बात सोच सके, तो उसे नर-नारायण, महामानव बनने में भी देर न लगेगी। आखिर वह है तो ऋषियों, तपस्वियों और मनीषियों का वंशधर ही ।


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