गत मास की पत्रिका से जुड़े हुए पत्रक में अखण्ड ज्योति परिजनों को कुछ विशेष उद्बोधन दिए गए हैं और उनके संबंध में कुछ अतिरिक्त विवरण पूछे गए हैं। प्रसन्नता की बात है कि उस सामयिक सूचना को समुचित उत्साह और ध्यानपूर्वक पढ़ा गया है। उत्तर और परिचय आने शुरू हो गए हैं।
बसंत पर्व (31 जनवरी 90) से परिजनों के लिए लगाए जाने वाले पाँच-पाँच दिवसीय विशेष सत्रों का शुभारंभ हो जाएगा। स्वभावतः पिछले दिनों चल रहे सत्रों की तुलना में शिक्षाथियों की संख्या अत्यधिक बढ़ेंगे। सत्रों का कार्यकाल अभी एक वर्ष में ही पूरी कर लिए जाने का निर्धारण है। पाँच लाख स्थाई सदस्यों को एक वर्ष में किस प्रकार अभिनव प्राण-चेतना शान्तिकुञ्ज बुलाएँ और उनके लिए आवश्यक व्यवस्था कैसे की जाए ? यह एक अत्यंत जटिल प्रश्न है। समीपवर्त्ती क्षेत्र में खाली भूमि मिल न सकी, फलतः तात्कालिक निर्णय यही किया गया है कि शान्तिकुञ्ज में जितनी भी जगह है, उस सबको तीन मंजिले भवनों में बदल दिया जाए। इन दिनों इसी प्रकार की तोड़-फोड़ और नई संरचना तेजी से चल पड़ी है। आशा की गई है कि बसंत पर्व तक लगभग दूनी जगह की— दूने शिक्षार्थी ठहराने की, भोजन, विचार-विनिमय आदि की व्यवस्था हो जाएगी।
सन् 90 अपने ढंग का विलक्षण है, विशेषतया अखण्ड ज्योति परिजनों के लिए, क्योंकि उनमें से अधिकांश को अगले दिनों अपने-अपने स्तर के अनेक उत्तरदायित्व निबाहने पड़ेंगे। अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ— अतिरिक्त शक्ति भी चाहती है, अतिरिक्त निर्माण भी और अतिरिक्त क्रियाकलापों को संपन्न करने के लिए नए स्तर का नया मार्गदर्शन भी। इस समय की माँग को ध्यान में रखते हुए सन् 90 में जो पाँच-पाँच दिन के प्रायः 60 सत्र संपन्न होने जा रहे हैं, उसकी गरिमा और उपयोगिता गंभीरतापूर्वक समझी जानी चाहिए। जिन्हें सूत्रसंचालक से कुछ पाने की उमंग व ललक हो, वे इस वर्ष की महत्ता को समझे व अपना शान्तिकुञ्ज आना सुनिश्चित करें।
स्थान की व्यवस्था और परिजनों की संख्या को देखते हुए लगता है कि इतने सीमित समय में प्रायः एक-चौथाई से भी कम लोगों को स्थान मिल सकेगा। शेष को बुला सकने के संबंध में अभी तो विवशता ही दिखती है। अगले दिनों कोई आकस्मिक प्रबंध हो जाए, तो बात दूसरी है।
नई सत्र-व्यवस्था में सम्मिलित होने के लिए समीपवर्त्ती परिजनों को कह दिया गया है कि वे उपरोक्त 60 सत्रों में से, जिनमें भी चाहें अपने स्थान रिजर्व करा लें। संख्या पूरी होते ही बाद में आने वाले आवेदन-पत्रों को रद्द कर देने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष नहीं रह जाता। सीमित स्थान और सीमित समय में जो किया जा सकता है, वही तो हो सकेगा।
सन् 90 में सैलानियों, पर्यटकों को साथ लाने पर पूर्ण प्रतिबंध है। शक्तिसंचय और गंभीर विचार-मंथन के बीच यह बन नहीं पड़ेगा कि घुमक्कड़ लोग शान्तिकुञ्ज को धर्मशाला समझकर वृद्धों, वधिरों, अशिक्षितों, बच्चों को लेकर यहाँ आ डटें और जिनने भावनापूर्वक प्रशिक्षण के लिए स्थान रिजर्व कराए हैं, उनके लिए कुछ भी पा सकना असंभव कर दें। इसलिए सन् 90 में पर्यटक आगंतुकों के लिए आना पूरी तरह निषिद्ध कर दिया है। धर्मशाला आदि में ठहरने के बाद ही वे शान्तिकुञ्ज दर्शन आदि के लिए आएँ।
उपरोक्त सत्रों में साधना के माध्यम से दैवी चेतना का वर्चस्व प्राप्त करने को प्रमुखता दी गई है। शिक्षण की दृष्टि से एक घंटे का प्रवचन ही पर्याप्त माना गया है। शेष समय में तो आत्मचिंतन और अंतराल का समुद्र-मंथन ही प्रधान कार्यक्रम है। तदनुसार ही नियमोपनियम भी बनाए गए है। संभवतः यहाँ पाँच दिन शान्तिकुञ्ज की परिधि में रहकर उसी प्रकार काटने होंगे, जिस प्रकार कि गर्भस्थ भ्रूण माँ के पेट में ही निर्वाह करता है और जिस प्रकार भी भरण-पोषण अनुशासन निर्धारित रहता है, उसी के परिपालन में एकाग्र रहता है। अन्वेषण हेतु वैज्ञानिकों को अपनी प्रयोगशाला में, योगियों को ध्यान-साधना हेतु अपनी कुटी में, कायाकल्प-प्रक्रिया संपन्न करने वालों को एक छोटी कुटिया में रहना पड़ता है। लगभग वैसी ही स्थिति साधकों की रहेगी। इसीलिए उन्हें वैसी ही मनोभूमि बनाकर आने के लिए कहा गया है।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों के ये कुछ विशिष्ट साधना सत्र हैं। इनमें देने व लेने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया संपन्न होने जा रही है। वर्त्तमान समय की महत्ता को समझते हुए, उस अंतिम वर्ष के सत्र-आमंत्रण को सक्रिय परिजन अनदेखा न करेंगे, यही आशा एवं विश्वास है।
*समाप्त*