श्रेय-सम्मान की चाहत प्रायः सभी को होती है। दीपक लेकर ढूँढ़ने पर भी शायद ऐसा कोई नहीं मिलेगा, जो अपमान को अपनी झोली में डालना चाहे। चाहत की तीव्रता के बावजू इसके वास्तविक रूप को बिरले समझ पाते हैं। अधिकांश इसकी मृगतृष्णा में भटकते-भटकते बिना पाए ही प्राण गँवा बैठते हैं। कुछ एक असली के धोखे में नकली बटोरते और कलई खुलने पर सिर धुन-धुनकर पछताते हैं।
प्राचीन समय के राजघरानों से लेकर अर्वाचीन समय तक पद-प्रतिष्ठा को झटकने के लिए न जाने कितने षड्यंत्र पनपे और पनप रहे हैं। इस सबके पीछे एक ही चाहत रही है किसी भी तरह अधिक-से-अधिक सम्मान अपनी झोली में आ गिरे। पर होता है इसके विपरीत। इतिहास गवाही देता है कि जिन्होंने इसकी तनिक भी अपेक्षा न रखी— कर्त्तव्य कर्म में निरत रहे— इतिहास पुरुष कहलाए— मरकर भी सम्मानित हुए।
ऐसे ही सम्मान के लोभ-लालच से विरत एक सज्जन निरंतर सेवा कर्म में संलग्न रहते। जनसामान्य को अधिक-से-अधिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूक किया जा सके। बिगड़े को ठीक किया जाए और ठीक हुए को न बिगड़ने दिया जाए— इसी प्रयोजन की पूर्ति हेतु उन्होंने एक दवाखाना खोल लिया था। सहायता के लिए कंपाउंडर की नियुक्ति भी कर ली, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को लाभ पहुँचे।
सेवा के साथ सहृदयता जुड़ जाने पर अस्पताल का वातावरण ऐसा चुंबकीय बन गया कि लोग खिंचे चले आते। ऐसे में भीड़ होना स्वाभाविक भी था। एक दिन ऐसी ही भीड़ के बीच कंपाउंडर एक मरीज का घाव साफ करके मरहम-पट्टी कर रहा था। डॉक्टर दूसरों को सलाह दे रहे थे। एक-एक को रोग का निदान बताते और उचित दवा देते। इसी बीच डॉक्टर के लड़के की उँगली में अस्पताल के बाहर चोट लग गई। चोट मामूली थी, वह दौड़ा-दौड़ा आया और कंपाउंडर से पट्टी बाँधने को कहा। उसके इस कथन पर कंपाउंडर ने बैठने का इशारा किया, क्योंकि वह एक मरीज के गंभीर घाव की मरहम-पट्टी में व्यस्त था। उसकी व्यस्तता उचित भी थी।
पर डॉक्टर का लड़का आदेश की अवहेलना सह न सका। उसने गुस्से में आकर कंपाउंडर को दो चाँटे जड़ दिए। बोला— “अस्पताल हमारा है और तुझे हमारे आदेश की अनसुनी कर दूसरों का इलाज करते शरम नहीं आती?” तब तक उसका काम समाप्त हो चुका था। उसने विनम्रतापूर्वक क्षमा माँगते हुए लड़के की उँगली में पट्टी बाँध दी।
शाम को यह बात डॉक्टर साहब को मालूम पड़ी। उन्होंने लड़के से कुछ नहीं कहा, वरन कंपाउंडर से क्षमा-याचना की और प्रायश्चित स्वरूप पेंटर को बुलाकर आदेश दिया कि अस्पताल के साइन बोर्ड से मालिक के स्थान से मेरा नाम हटाकर कंपाउंडर का नाम लिख दिया जाए। पेंटर ने ऐसा ही किया। अपने पिता का यह कार्य देखकर लड़के के अभिमान का हिमालय गलकर आँसुओं में बहने लगा। उसने क्षमा-याचना की। पिता ने कहा— "क्षमा माँगना है तो उसी से माँगो जिसके प्रति अपराध किया है।" गलती स्वीकारने माफी माँग लेने पर पिता ने समझाते हुए कहा— "सम्मान पाने का तरीका वह नहीं है, जो तुमने अपनाया। वास्तविकता तो यह है कि सम्मान की पूँजी देने पर मिलती, बाँटने पर बढ़ती और बटोरने पर समाप्त हो जाती है।"
सम्मान के इस सूत्र का प्रतिपादन करने और तदनुरूप जिंदगी जीने वाले सज्जन थे— लाला लाजपतराय। सारा देश जानता है, इस सूत्र के परिपालन से उनको कितना सम्मान मिला और आज भी युगपुरुष के रूप में उन्हें सराहा, पूजा और सम्मानित किया जाता है।