क्रियाकलाप प्रत्यक्ष— प्रेरणा परोक्ष

January 1990

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प्रत्यक्षवाद को ही प्रमुख मानने वाले बुद्धिजीवियों में प्रथम गणना होती है—वैज्ञानिकों की। इनके उपहास की चिंता न कर ब्रिटेन और अमेरिका के कुछ परामनोवैज्ञानिकों ने ऐसे प्रकरणों का अध्ययन-विश्लेषण आरंभ किया, जिन्हें दिव्य प्रेरणा या संदेश की संज्ञा दी गई थी। अध्ययन का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इतना ही कहा कि जिन्हें संयोग या अपवाद कहकर टाल दिया जाता है, वस्तुतः वे परोक्ष के अनुदान हैं, जो अनुकूल माध्यमों को ही मिल पाते हैं।

यह सत्य है कि कई बार हम कुछ चिंतन कर रहे होते हैं, पर अनायास इस क्रम में ऐसे विचार कौंध जाते हैं, जिसकी आशा भी नहीं की गई होती है। कुछेक अवसरों पर ऐसे विचार क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते हैं। 17वीं सदी के फ्रांसीसी दार्शनिक रेने डेस्कार्टिस के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जो प्रतिपादन आधुनिक युग के वैज्ञानिक तरीकों, सिद्धांतों एवं उनसे संबंधित दर्शन के बारे में किया, उन सबके मूल में परोक्ष जगत की अदृश्य प्रेरणा की ही प्रमुख भूमिका थी। इस क्रांतिकारी प्रतिपादन के कारण ही उन्हें वैज्ञानिक युग का ‘जनक’ माना गया है।

ब्रिटेन के सर ई.ए. वेलिंगटन को पुरातन भाषाओं और लिपियों का विशेषज्ञ माना जाता है। इस दिशा में ये अपनी सफलता का श्रेय मुख्य रूप से देेैवी चेतना को देते हैं और कहते हैं कि यदि इसका सहयोग न मिला होता, तो आज मैं वह न बना होता, जो हूँ। 'डिवाइन हेल्प' नामक पुस्तक में ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया है। एक घटना की चर्चा करते हुए ये लिखते हैं कि, "एक रात जब वे सोए हुए थेेे, तो किसी ने उन्हें झकझोर कर यह कहते हुए उठाया कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पुरातन विद्या का एक शोध विशेषज्ञ नियुक्त किया जाना है, जिसके लिए जल्द ही एक प्रतियोगिता परीक्षा होने वाली है। तुम्हें उसमें अवश्य सम्मिलित होना चाहिए। सफलता मिलेगी।" वेलिंगटन हड़बड़ाकर उठ बैठे और चारों ओर देखने लगे, पर वहाँ कोई नहीं था। पत्नी-बच्चे भी सो रहे थे। उन्होंने उसे देैवी प्रेरणा मानकर वैसा ही करने का निश्चय किया। तैयारी शुरू कर दी। समय कम था, अतः अच्छी तैयारी तो नहीं हो सकी, फिर भी उन्हें जो-जो प्रकरण महत्त्वपूर्ण जान पड़े, उन्हें भली-भाँति हृदयंगम कर लिया। आश्चर्य की बात तो यह थी कि प्रश्न पत्र में जो-जो प्रश्न आए थे, सिर्फ उन्हें ही उन्होंने पढ़ा था। परीक्षा दी और वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष के रूप में हो गई। बाद में इस पद पर काम करते हुए उनने प्राचीन लिपियों का सफल अन्वेषण किया। उनके प्रतिपादन को प्रामाणिक माना गया और कितने ही अविज्ञात रहस्यों का उद्घाटन उनके द्वारा हुआ।

प्रख्यात अमरीकी शरीरशास्त्री डॉ. आट्टोलोबी ने जिन आविष्कारों के आधार पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया, उसके आवश्यक सूत्र-संकेत उन्हें परोक्ष जगत की दिव्य प्रेरणा से ही मिले थे। शरीरकोश और स्नायुतंतुओं पर वे शोधकार्य कर रहे थे, पर ऐसा कोई सुनिश्चित आधार नहीं मिल पा रहा था, जिसके माध्यम से किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सके। ईस्टर के दिन उन्हें अनायास वह सूत्र हाथ लगा, जिसके कारण उनका अनुसंधान सफल और पूर्ण हो सका।

यदि व्यक्ति दैवी संदेशों को ग्रहण करने हेतु पात्रता के अनुबंधों को पूरा कर सके, जागरूक रहे और उन संकेतों को समझ सके, तो वह सब कुछ कर-गुजरने में सफल हो सकता है, जिसे सर्वसाधारण असंभव मानते रहे है।


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