हजार तालों की एक चाबी

January 1990

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मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियाँ उत्पन्न होती, तदनुरूप सुख या दुःख सामने आते हैं। विचार ही कर्म के उत्पादक हैं और उन्हीं के आधार पर भले-बुरे परिणाम सामने आते रहते हैं। विचारों को यदि संयमित और परिष्कृत बनाया जा सके तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ निश्चित रूप से बन गईं।

पराचेतना और जीवसत्ता के मध्य चलने वाले प्रवाह का माध्यम विचार ही है। उसे असुरता के साथ भी जोड़ा जा सकता है और देवत्व के साथ घुल-मिलकर तदनुरूप वर्त्तमान एवं भविष्य का निर्माण-निर्धारण भी बन पड़ता है। चूंकि विचारों का स्तर इच्छानुरूप बन पड़ना मनुष्य की अपनी इच्छा और चेष्टा पर निर्भर है। इसलिए उसे अपने भाग्य का निर्माता आप होने वाली बात को सर्वत्र मान्यता मिली है।

हेय विचारों से बुरी आदतें विकसित होती हैं। बुरे स्तर की इच्छा-आकांक्षाएँ उभरती हैं, तदनुरूप मनुष्य कर्म करने लगता है। आज के कर्म ही कल के भाग्य बनकर सामने आते हैं। इस तथ्य से अवगत दूरदर्शी अपने विचारों पर कड़ा नियंत्रण करते हैं, उन्हें सुधारते-परिष्कृत करते और मानवी गरिमा के साथ जुड़े हुए आदर्शों के अनुरूप बनाते हैं; किंतु जो इस केंद्रबिंदु पर चौकड़ी चूक जाते हैं और वासना, तृष्णा, अहमन्यता एवं पतन-पराभव का स्तर अपना लेते हैं, उनकी विचारणा ही उन्हें नारकीय परिस्थितियों में धकेल देती है। असंतोष, आक्रोश, अनिष्ट, विग्रह जैसी आशंकाओं से खिन्न-विपन्न बनाए रहती है। उतावली और लिप्सा से मतिभ्रम अपनाकर तात्कालिक लाभ को सब कुछ समझते हुए संलग्न तो अनाचार में भी हुआ जा सकता है, पर उनके दुष्परिणामों से बच सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं होता। उदात्त दृष्टिकोण और शालीनतायुक्त चरित्र-व्यवहार अपनाकर ही लोग महापुरुषों जैसी उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, ऊँचे उठते और साथियों को प्रोत्साहन-समर्थन देकर ऊँचा उठाते हैं। श्रेय और सम्मान उन पर बरसता है। आत्मसंतोष का असाधारण लाभ मिलता है, सो अलग है।

इन दिनों की उलझनों को तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो उनका सब के मूल में एक ही आधारभूत कारण  दिख पड़ता है— 'विचार-विपर्यय', अर्थात आस्था-संकट, चिंतन क्षेत्र में अवांछनीयता का घुस पड़ना। यदि इस एक ही तथ्य पर पहुँचा जा सके और विचार-परिष्कार को समस्त समस्याओं का एक हल माना जा सके, तो बात इतने भर से बन जाती है। इस एक ही चाबी से उलझनों के अगणित ताले सरलतापूर्वक खुल सकते हैं।

लोक-शिक्षण और जनमानस के परिष्कार को हाथ में लिया जाए और हर किसी को यह हृदयंगम कराया जाए कि मानवी गरिमा के अनुरूप ही विचारणा को मान्यता मिलनी चाहिए। जो अनुपयुक्त एवं अवांछनीय है, उसकी जड़ विचार-क्षेत्र में जमने ही न दी जाए तो फिर वे विषवृक्ष उग ही नहीं सकते, जो शारीरिक मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक-क्षेत्र में भयंकर विग्रहों और अनर्थों के रूप में मानवी सुख-शांति को चुनौती देते दीख पड़ते हैं। जनमानस का परिष्कार यदि चरम लक्ष्य की तरह अपनाया जा सके तो उस विचार-क्रांति की परिणति ऐसी सुखद हो सकती है, जिसका परिणाम इसी धरती पर स्वर्ग के अवतरण जैसा देखा जा सके।


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