व्यत्कित्त्व का सर्वांगपूर्ण जादुई कायाकल्प

January 1990

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मनुष्य की समूची अंतर्निहित क्षमताएँ एक-एक करके जीवनक्रम का अंग बने, इस हेतु जरूरी है कि अनुपयोग के कारण धूल-गर्द में पड़ी जंग खा रही मानसिक चेतना सही ढंग से, संतुलित रूप से क्रियाशील हो। उपयोग की कुशलता न मालूम होने पर अनाड़ी चालक नई-से-नई मोटर को खड्डे में गिराता तथा अपने साथ औरों की भी जान गँवाता है। कारतूस और राइफल में शेर और हाथी मारने की सामर्थ्य होते हुए भी बेवकूफ निशानेबाज से चिड़ियाँ मारना भी नहीं बन पड़ता। इतना ही नहीं, राइफल के धक्के से खुद ही लुढ़ककर गिर पड़ता है। मन की जादुई, ताकत उपयोग के कौशल के अभाव में निष्क्रिय पड़ी रहती अथवा आधे-अधूरे ढंग से अभिव्यक्ति हो पाती है।

यों मन का वैभव अपार है। विचारक, गुह्यवेत्ता, मनोविज्ञान के आचार्य सभी अपने शोध-अनुभवों के आधार पर एकमत से इस सत्य को स्वीकार करते हैं। इसके बाद भी तथ्य यही है कि आज का आदमी अपने को संकटों से घिरा, परेशानी में फँसा, असहाय-सा अनुभव कर रहा है। उसे न तो निकल भागने की कोई राह सूझ रही है और न ही उलझनों को सुलझाने के कोई समाधान।

कारण कि मानसिक चेतना अपने सुधरे-सँवरे रूप में ही अपने रत्न उछालती है। ऐसी ही दशा में ये विभूतियाँ चरित्र के गलियारे से चलकर व्यवहार के दरवाजे से बाहर निकलती हैं और बरबस सभी का मन मोह लेती हैं। इसमें सफल जन व्यक्तित्वसंपन्न कहलाते और प्रतिभावानों की श्रेणी में गिने जाते हैं। सभी के पास मन होते हुए भी ऐसों की गिनती उँगलियों पर गिने जाने लायक भर है। “होल ब्रेन थिंकिंग” के रचनाकार मनःशास्त्री “जैक्यूलिन वंडर व प्रिंसिला दोनोवान” ने अपनी इसी पुस्तक में कारण को समझाने की चेष्टा की है। उनके अनुसार बेतरतीब और अस्त-व्यस्त होने के कारण हमारे मन का मात्र एक छोटा-सा भाग सही ढंग से क्रियाशील रहता है। बाकी की प्रभाविकता अल्प या न्यून होती है।

मनोवैज्ञानिक स्पेरी ने समूचे मन में निहित विभूतियों को दो वर्गों में बाँटा हैं— आदर्शप्रधान और यथार्थप्रधान। आदर्श प्रधान वर्ग में कल्पना, रचना, संवेदना, अनुभूति, बहु-आयामी चिंतन, दूरगामी योजना बनाना, चेहरे आकार के माध्यम से व्यक्तित्व की गहरी परतों में प्रवेश, दर्शन, विविध कलाओं में कुशलता, साहित्य में विशेषज्ञता आदि की गणना की जाती है। जबकि यथार्थोन्मुख वर्ग में विविध भाषाओं के ज्ञान, तार्किक और विश्लेषक चितन, तंत्र व संगठन गणित करने, संतुलन बिठाने, द्वि-आयामीय चिंतन, गणितीय आकलन तथा सामान्य बौद्धिक क्षमताएँ आती हैं।

इस सबके बाद भी मन में बिखराव तथा संतुलन के अभाव के कारण व्यक्ति मूढ़ता के चंगुल में फँसा बुद्धू बना रहता है। इतना ही रहे, तब भी ठीक है। असंतुलन की बढ़ती दर अनेकों समस्याओं को जन्म देती और विघटन के नए-नए स्वाँग खड़े करती हैं। अमेरिकन मनोवेत्ता व्ही. एच. मार्क एवं एफ. आर. इरविन ने “वायलेंस एंड ब्रेन” में इस असंतुलन से दो स्थितियों का पनपना स्वीकारा है। पहली स्थिति में क्षमताओं के कपाट बंद होते और मनुष्य अपने को निस्तेज व शक्तिहीन पाता है। दूसरी दशा शक्तियों के अनियंत्रित— बहाव की है। ऐसे में इनका सुनियोजित उपयोग कर पाना असंभव होता है। आक्रामकता और उन्माद इसी दशा में जन्म लेते और बढ़ते हैं।

पिछले दिनों फिलीपाइंस के मनीला स्थित “एशियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट” ने इस संबंध में एक विस्तृत सर्वेक्षण किया था। जिसकी रिपोर्ट ‘टाइम’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। प्रकाशित विवरण के अनुसार समाज में अधिकांशतया दो तरह के लोग हैं। पहले उपरोक्त असंतुलित, दूसरे वे जो मन के यथार्थोन्मुख हिस्से का थोड़ा-बहुत उपयोग करते, बाकी भाग को निठल्ला छोड़ देते हैं। बढ़ती जा रही यथार्थवादी प्रवृत्ति, पनपता बुद्धिवाद, धनशक्ति के पीछे भाग-दौड़ का यही कारण है। उपर्युक्त पत्रिका का यह मानना है कि पश्चिमी जनजीवन पर यथार्थवादी चिंतन हावी हो गया है। जबकि पूर्व, विशेषतया भारत के सांस्कृतिक चिंतन से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यहाँ की सभ्यता ने आदर्शवादी जीवन-प्रणाली पर बल दिया है। यही नहीं, यहाँ के निवासियों ने चिंतन में यथार्थ और आदर्श के संतुलन को अपनाया होगा। अन्यथा एक व्यक्ति से एक साथ अध्यात्मिक और वैज्ञानिक गवेषणाएँ संभव न बन पड़तीं।

आज भी ऐसा ही संतुलन जरूरी हो गया है। पश्चिम के ख्यातिनामा भविष्यवेत्ता जॉन नेयाविट “मेगाच्वाइसेज” में लिखते हैं— धरती की सभ्यता एक बार पुनः पुराने ऋषिनेतृत्व का अनुगमन करेगी। ऐसा अनुगमन, जिसमें मानवी मन चिंतन के स्तर, यथार्थ व आदर्श के मध्य सामंजस्य बिठाने और व्यवहार में उसे लागू कर पाने में समर्थ होगा। स्वाभाविक है ऐसे युग में वही टिक सकेगा, जो इसे कर्त्तव्य के रूप में पहचानकर निर्वाह कर सके।

"एशियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट" मनीला ने इस ओर पहला किंतु प्रभावी कदम उठाया है। उसने प्रबंधकों को प्रशिक्षण देते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि उन्हें समूचे मन का संतुलित रीति से उपयोग करना आए, ताकि वे भावी समय में अधिक उपयोगी साबित हो सकें। भावी समय में उपयोगिता के आधार पर कार्यक्रम बनाने के कारण इस योजना के नाम ही “भावी समय के प्रबंधकों का प्रशिक्षण’ रखा गया है।

हमारी अपनी उपयोगिता भी भावीयुग में असंदिग्ध हो। इसके लिए उपर्युक्त नीति ही उचित रहेगी। मानसिक क्षमता को जगाने और संतुलित उपयोग करने का कौशल बताते हुए एफ.टी. भिखेलोव का “द रिडिल ऑफ सेल्फ” में मानना है कि सर्वप्रथम हम अपनी चेतना में समाई शक्तियों के प्रति जागरूक हों। इनके प्रति विश्वास जमाएँ। साथ ही यह समझें कि प्रत्यक्ष-यथार्थ का उपयोग आदर्श के लिए है। आदर्श को व्यवहार में उतार लाना ही सार्थक है।

इसके लिए काम बदलने अथवा दोनों ही प्रकार के कामों का दैनिक जीवन में समावेश करने को मनोविज्ञान ने प्रभावी माना है। उदाहरण के लिए दैनिक कामों में सेवा, सत्साहित्य अध्ययन का भी समावेश किया जाए। इससे यथार्थपरायण जीवन में बढ़ती जा रही तार्किकता, विश्लेषक चिंतन के साथ सोई पड़ी आदर्शवादी संवेदना, कल्पना जागेगी। इतना ही नहीं, अनुभूति का भी विस्तार होगा। यथार्थवादी चिंतन और जीवन में आदर्शों का समावेश सूखे पड़े पतझड़ वाले वन में बसंत की तरह नवजीवन को संवार लाने वाला सिद्ध होगा।

मानसिक चेतना के दोनों पक्षों को उभारें। यह उभर सके, ऐसी जीवन-प्रणाली गठित करें। इस तरह उपजे संतुलन से चेतना के क्षेत्र में समाई रहस्यमई शक्तियाँ पूर्ण प्रखरता के साथ जीवन में उतरेंगी और समूचे व्यक्तित्व का जादुई रीति से कायाकल्प होता दीख पड़ेगा। प्रतिभावानों के भाव युग में स्वयं अपना भी विशिष्ट स्थान होगा।


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