लेखनी के योद्धा— मनस्वी वाल्टेयर

January 1990

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पेरिस के एक घर में पिता-पुत्र में बहस चल रही थी। पिता समझा रहा था—  "देखो बेटे ! अभी तुम्हें जीवन का अनुभव नहीं है। अपनी जिद पर अड़े रहने से तुम्हें दो जून की रोटी भी नहीं मिल पाएगी। अतएव इसे छोड़कर मेरा कहना मानो, वकालत शुरू करो।"

“वकालत करें और घर भरें, खुद के लिए, परिवार के लिए आलीशान भवन और नौकर-चाकर जुटाने में सारी ताकत खपा दें। नहीं ! यह मेरे से नहीं होगा, इन दिनों जनमानस के चिंतन में आई गिरावट को दूर नहीं किया गया, तो हमारे आस-पास भूख और पीड़ा से कराहते बच्चों की चीत्कार, उन्मादी होते जा रहे मनुष्य पर हावी शैतान के ठहाके क्या हमें चैन की जिंदगी जीने देंगे ?”— नवयुवक का तर्क था। अपनी जगह पर सही भी था। पिता तर्कों का उत्तर नहीं दे पा रहे थे, किंतु उनसे यह भी नहीं हो पा रहा था कि अपने होनहार बेटे को दुनिया से विमुख होते देख सकें। वकालत पास किया हुआ वह नवयुवक हालैंड चला गया।

इस बीच उसका चिंतन और दृढ़ हुआ। अब वह लेखनी के माध्यम से समाज में जागृति लाने के प्रयत्न में जुट गया। उद्देश्य के प्रति स्वयं की प्रगाढ़ता इतनी थी कि लाख प्रयत्नों के बाद भी पिता उसे तोड़ न सके। पिता ने उससे कहा कि, “यदि तुमने अपनी खब्त न छोड़ी, तो मैं तुम्हें अपनी जायदाद में एक कौड़ी भी नहीं दूँगा और हमेशा के लिए त्याग दूँगा।”

यह धमकी भी उसे झुका नहीं सकी। यह बात आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व की है। प्रेरक साहित्य का सृजन आज भी धन भरने वाला नहीं है। उस समय तो स्थिति और बदतर थी, पर एक उद्देश्य के लिए समाज में विवेक और विचारशीलता विकसित करने के लिए उस युवक ने अपने परिवार से लेकर समाज के प्रभुत्वसंपन्न वर्ग का विरोध सहते हुए साहित्य द्वारा जनमानस को झकझोरने, सही दिशा देने की साधना जारी रखी। अपने कार्यों के द्वारा समूचे इतिहास में अमर यह समर्थ पुरुष था- 'वाल्टेयर'।

वाल्टेयर के समय में समाज में अंधेरगरदी थी। धर्म के नाम पर मूढ मान्यताएँ, परंपराओं के नाम कुरीतियाँ समूचे जनजीवन को जर्जर किए दे रही थीं। कतिपय लोग इन्हें शोषण के हथकंडों के रूप में अपनाकर अपने भोग-विलास को चिरस्थाई बनाने के सपने सँजो रहे थे। भले इससे समाज का कुछ भी और कितना भी अहित क्यों न होता हो ?

वाल्टेयर ने स्थिति के अध्ययन से पाया कि अंधेरगरदी का एकमात्र कारण है— जनसाधारण में विचारशीलता का अभाव। इसलिए समाज में उन्होंने विचारशीलता जगाने और विवेक की प्रतिष्ठा करने को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था। कठिनाइयों और विरोधों के बावजूद उनका संकल्प था कि भूखे मरेंगे, तिल-तिलकर गलेंगे, फिर भी जागरण का मंत्र सुनाते रहेंगे।

वाल्टेयर का असली नाम था— फ्रांकई माँरी आरुई। आरंभ में इसी नाम से उनने लिखा। उनकी अभिव्यक्ति इतनी मर्मस्पर्शी और पैनी होती कि पढ़ने-सुनने वाले के हृदय को बेधकर रख देती। उन दिनों फ्रांस में अशिक्षित बहुसंख्यक थे। इनमें जागृति लाने के लिए नया तरीका ढूँढ़ा। इसके लिए उन्होंने रंगमंच को माध्यम बनाया। वह नाटक लिखते और रंगमंच पर उसे अभिनीत कराते। पुस्तकीय विचारों की तरह रंगमंच पर भी उनकी प्रेरणाएँ प्रखर बन पड़ती थीं। जनमानस पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ता।

इन सारे माध्यमों से वह जनमानस में दो तथ्यों को प्रवेश करा रहे थे; बुराइयों, अनीतियों के प्रति वितृष्णा, अच्छाइयों और नीतियों के प्रति लगाव। वह बताते कि काठ की हाँडी एक ही बार चढ़ती है, परिणाम में अपने अंदर के पदार्थ के साथ स्वयं भी राख होती और धूल चाटती दिखाई पड़ती है। अनीतिवान की भी यही हालत होती है। शुरू में सम्मान पाता हुआ दिखाई पड़ने पर भी परिणाम में अनीति स्वयं के साथ उसे भी नष्ट कर डालती है।

इन्हीं भावों को एक व्यंग नाटक के रूप में उनने मंचन किया। फलस्वरूप कुछ विकृत बुद्धि की दासता करने वालों ने मारने की कोशिश की, नहीं मार पाए तो जेल भिजवा दिया। पर जिस तरह सोना तपने पर और अधिक चमकता है, उसी तरह वह और अधिक प्रभावशाली बन गए एवं निर्दोष जेल से छोड़ दिए गए।

नाटक-मंचन, साहित्य लेखन से जो पैसा मिलता उसे वह दुखी, कष्टपीड़ितों की सहायता में लगाते। स्वयं के लिए कम-से-कम खर्च और दूसरों की सहायता में जी खोलकर खर्च करने की प्रवृत्ति ने उनकी लोकप्रियता में चार चाँद लगाए, अभिव्यंजना को भी प्राणवान बनाया।

पर षड्यंत्रकारी पीछे लगे थे। उनके चक्कर में पड़कर उन्हें इंग्लैंड, जर्मनी में भटकना पड़ा, स्विट्जरलैंड भी गए। पर जहाँ भी गए, उद्देश्य नहीं भूले। इसी बीच उनकी एक पुस्तक “लेटर्स ऑन द इंग्लिश” ने तहलका मचा दिया। जागृत जनचेतना अवांछनीयताओं के लबादे को उतार फेंकने को उतारू थी।

वह अभी भी शोषितों-पीड़ितों में नवजीवन का, चेतना का, संचार करने में जुटें थे। इस काम से विरत करने के लिए उन्हें धन का प्रलोभन भी दिया गया और जान से मारने की धमकी भी। किंतु सिद्धांतों पर दृढ़ और आदर्शों के प्रति निष्ठावान वाल्टेयर न उन प्रलोभनों से टूटे और न धमकियों के सामने झुके। उनके विचार और प्रयास निरंतर सोए अन्तःकरणों में प्राण फूँकते रहे।

वह जीवन के अंत तक कार्यरत रहे। काम ही उनका आनंद था। जीवन के अंतिम दिनों में लगातार श्रम करने के कारण यद्यपि वह बीमार रहने लगे थे, परंतु उनकी विचारों की धारा अविराम बहती रही। 83 वर्ष की आयु में वह पुनः फ्राँस लौट आए। इन दिनों चिकित्सकों ने उन्हें काम करने, अधिक सोचने को मना कर दिया था। इस पर उन्होंने कहा"—" नहीं, मैं निष्क्रिय जीवन नहीं जी सकता।"

जब तक प्राणों में एक भी श्वास है— शरीर में एक भी रक्तबिंदु है, तब तक समाजसेवा हेतु प्रयत्न भी चलते रहेंगे। आखिर सब कुछ उसी का जो है। सन् 1778 में मृत्यु से थोड़ा पहले अपने सचिव को सारे जीवन का निष्कर्ष नोट कराया, जिसमें यह कहा गया था कि मैं ईश्वर की उपासना करते हुए, अपने मित्रों से प्रेम करते हुए, मुझे शत्रु समझने वालों के प्रति किसी भी प्रकार का विद्वेष न रखते हुए और अविवेक, अंधविश्वास तथा अन्याय को दूर हटाने की गुहार करते हुए मृत्यु का आलिंगन करता हूँ। इस गुहार को सुनें और आगे आएँ।


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