आदर्शवादी बिक नहीं सकता!

January 1990

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दरवाजे पर खट-खट की आवाज हुई और अंदर कमरे में नीचे फर्श पर दरी बिछाकर बैठे चौकी पर कागज रखकर लिख रहे गुप्त जी ने छोटे लड़के को आवाज देते हुए कहा— ”देखना बेटा ! कौन आए हैं?” 

छोटे लड़के ने अपने पिता की आवाज सुन दरवाजा खोला और एक सज्जन अंदर प्रविष्ट हुए। गुप्त जी उन्हें देखकर तुरंत खड़े हो गए, “बहुत दिनों बाद दिखाई दिए हो मित्र ! कहाँ हो आजकल, क्या कर रहे हो?" 

आगंतुक सज्जन जो उनके पुराने मित्र थे, उनके इन प्रश्नों के उत्तर तो दे ही रहे थे, पर साथ घर की स्थिति को भी बारीकी से देख रहे थे। सोचा तो यह था कि 'भारत मित्र’ जैसे प्रतिष्ठित अख़बार के संपादक से मिलने जा रहा हूँ। घर में ठाट-बाट और रौनक नहीं होगी, तो कम-से-कम मध्यमवर्गीय परिवार जैसी स्थिति तो होगी ही। पर यहाँ चारों ओर फटेहाली दिखाई पड़ रही थी। ‘भारत मित्र’ हिन्दी दैनिक के संपादक श्री बालमुकुंद गुप्त की कमीज, जो बहुत ही हलके और सस्ते कपड़े की सिली हुई थी, पीछे दीवार पर खूँटी पर टँगी हुई थी। गुप्त जी बहुत मोटी निब वाली सस्ते दामों वाली कलम से लिख रहे थे।

आगंतुक सज्जन इन सब वस्तुओं को, घर के वातावरण को, बड़ी बारीक नजर से देख रहे थे। इधर-उधर की बातें चल रही थीं । सज्जन अपना मंतव्य कहने ही जा रहे थे कि गुप्त जी का ज्येष्ठ पुत्र कमरे में आया और उसने बाजार से खरीदकर लाई हुई दो कमीजें अपने पिता के सामने रखीं।

गुप्त जी ने उससे पूछा—“कमीज तो अच्छी है। कितने की है, बेटा!“ "चार रुपये की।”,

“चार रुपए की ?”— गुप्त जी ने बड़े ही विस्मय और आपत्तिजनक स्वर में कहा। “इतनी महंँगी क्यों खरीदी ? इतने में तो घर के सभी सदस्यों के लिए कपड़े बन सकते हैं।"

आगंतुक सज्जन ने कहा— “बच्चे ही तो हैं, गुप्त जी ! यदि ये अभी अपनी पसंद का खा-पी और पहन नहीं सकेंगे तो कब खाएँगे और पहनेंगे।”

“लेकिन यह तो सरासर फिजूलखरची है। हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति इस योग्य नहीं हैं कि हम इतने महँगे कपड़े पहन सकें”— गुप्त जी ने कहा।  “रही खाने-पीने की उम्र वाली बात, तो उन्हें मितव्ययिता अभी नहीं सिखाएँगे तो कब सिखाएँगे।”

अर्थाभाव वाली कठिनाई तो मैं दूर किए देता हूँ। मैं इसीलिए आपके पास आया हूँ। यह कहते हुए आगंतुक मित्र ने पाँच हजार रुपए उनकी चौकी पर रख दिए ।

यह देखकर गुप्त जी ऐसे चौंके, जैसे सैकड़ों साँप-बिच्छू उनके शरीर पर रेंग गए हों। गुप्त जी ने विस्मय-विस्फारित नेत्रों से मित्र महोदय की ओर देखते हुए कहा— "क्या मतलब ?"

मित्र ने कहा— “यह तो आपको मालूम ही है कि यहाँ की फौजदारी अदालत में दो धनिकों के बीच मुकदमा चल रहा है। दोनों पक्षों के सनसनीपूर्ण विवरणों द्वारा अपने पत्र में उनका आप समर्थन करें तो उन्हें लाभ हो सकता हैं। इसी के लिए मैं उनकी ओर से यह भेंट आपके पास लाया हूँ।"

गुप्त जी ने धीरे, पर गंभीर स्वरों में कहा— “मित्र ! तुम गलत समझे हो। अगर अर्थोपार्जन मेरा ध्येय रहा होता तो आप जो अभी चारों ओर घूर-घूरकर देख रहे थे और मेरी गरीबी पर आश्चर्य कर रहे थे, वह न होता। गरीबी मेरी शान है। मैंने स्वेच्छया इसका वरण किया है। कारण कि मैं भारत के आम नागरिक से एक होकर जीना चाहता हूँ। उसके दुःख-दर्द के समझने, अनुभव करने की ललक है। यही अनुभव मेरे साहित्य को प्राण देते हैं, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीबी मेरा प्राण बन चुकी है। आप मेरा प्राण हरण करने आए हैं, वह भी अन्याय की खातिर, कदापि संभव नहीं।" गरीबी की गरिमा का गान सुनकर मित्र अपना रुपया उठा चलते बने और गुप्त जी पुनः लेख में व्यस्त हो गए।


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