नवयुग की वरिष्ठतम शक्ति-संपदा: भाव-संवेदना

January 1990

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गिरने-गिराने की, मिटने-मिटाने की ध्वंसात्मक योजनाओं में अनेकों मनचले साथ देने— सहायता करने के लिए सहज समुद्यत हो जाते हैं। होली जलाने के कौतूहल हेतु छोटे बच्चों से लेकर किशोर-युवकों तक का एक बड़ा समूह लकड़ियाँ बीनते देखा जाता है। जब उस ढेर में आग लगती है, तो तालियाँ बजाने और हुल्लड़ मचाने वालों की भी कमी नहीं रहती। कठिनाई तब पड़ती है, जब छप्पर छाने की आवश्यकता पड़ती है। बुलाने पर भी पड़ोसी तक आना-कानी और बहानेबाजी करते देखे गए हैं। तब काम अपने बलबूते ही आरंभ करना पड़ता है। कवि टैगोर ने लोक-प्रचलन का आँकलन करते हुए यह ठीक ही कहा था कि यदि सत्प्रयोजन की दिशा में कुछ करना-सँजोना हो, तो 'एकला चलो रे' की नीति अपनानी और तदनुरूप सहायता जुटानी चाहिए। साथियों का मुँह नहीं ताकना चाहिए।

सृजनात्मक साहस जब व्यापक परिप्रेक्षण में किया जाना हो तो अपने को अग्रगामी बनाने वाले मनस्वियों को आशा और विश्वास की तेल-बाती वाला ऐसा दीपक जलाए रहना चाहिए, जिसके माध्यम से प्रकाश की किरणें अपना काम करती एवं चमत्कार दिखाती हैं।

निविड़ अंधकार से निपटने के लिए जब माचिस की एक तीली अपने को जलाने का साहस सँजोकर प्रकट होती है, तो दीपक उस तीली के बुझने से पहले ही अपने को ज्योतिर्मय कर लेते हैं। इतना ही नहीं, दिवाली जैसे विशेष पर्वों पर प्रज्वलित दीपकों की विशालकाय वाहिनी तक स्थान-स्थान पर जगमगाती दृष्टिगोचर होती है। अकेले चल पड़ने वालों का उपहास और विरोध आरंभ से ही होता है, पर जब स्पष्ट हो जाता है कि उच्चस्तरीय लक्ष्य की दिशा में कोई चल ही पड़ा, तो उसके साथी-सहयोगी भी क्रमशः मिलते और बढ़ते चले जाते हैं। दुष्टता में ही नहीं, सदाशयता में भी अपेक्षाकृत अधिक सशक्त चुंबकत्व होता है, जो अपने जैसे अनेकों को जहाँ-तहाँ से खींच-बुला सके और विशालकाय खदान का रूप धारण कर सके।

सर्वविदित है कि सशक्त अनाचारियों के गिरोह में उसी स्तर के लोग जुड़ते चले जाते हैं। चोर, उचक्के, लबार-लफंगे, दुराचारी-व्यभिचारी, नशेबाज, धोखेबाज मिल-जुलकर अपने-अपने सशक्त गिरोह बना लेते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि सृजन-संकल्प के धनी प्रामाणिक और प्रतिभावानों को अंत तक एकाकी ही बना रहना पड़े। भागीरथ की सहायता के लिए, गंगा को स्वर्ग से नीचे उतरने के लिए, आना-कानी करने वाली सुरसरि की पीठ पर विष्णु ने कसकर लात जमाई थी। धरती पर उतरते समय जब भयंकर गर्त्त बन जाने की आशंका उत्पन्न हुई, तो शिवजी बिना बुलाए ही नियत स्थान पर जा पहुँचे और अपनी जटाएँ बिखेरकर समस्या के समाधान में असाधारण सहायता पहुँचाई। ऐसा ही द्रौपदी के चीरहरण, ग्राह के मुख से गज को निकालने वाली शक्ति जैसे प्रसंगों में हुआ। आसन्न व्यवधानों से नवसृजन में संलग्न व्यक्तियों की कोई सहायता न करे, यह हो ही नहीं सकता। जब हनुमान, अंगद, नल-नील जैसे रीछ-वानर मिलकर राम को जिताने का श्रेय ले सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि नवसृजन के कार्यक्षेत्र में जुझारू मूड में लड़ने वालों की सहायता के लिए अदृश्य सत्ता, दृश्य घटनाक्रमों के रूप में सहायता करने के लिए दौड़ती चली न आए।

विपन्नताएँ इन दिनों सुरसा जैसा मुँह बनाए खड़ी दिखती हैं। आतंक रावण स्तर का है। प्रचलनों के चक्रवात, भँवर, अंधड़, तूफान अपनी विनाश क्षमता का नग्न प्रदर्शन करने में कोई कसर रहने नहीं दे रहे हैं। सघन अंधकार में हाथों को हाथ नहीं सूझता। वासना, तृष्णा और अहंता का उन्माद महामारी की तरह जन-जन को भ्रमित और संत्रस्त कर रहा हैं। नीति को पीछे धकेलकर, अनीति ने उसके स्थान पर कब्जा जमा लिया है। यह विपन्नता दो-पाँच पर नहीं, संसारव्यापी समूचे जनसमुदाय पर अपने-अपने आकार-प्रकार में बुरी तरह आच्छादित हो रही हैं। तब 600 करोड़ मनुष्यों की ब्रेन वाशिंग कैसे बन पड़े ? अनौचित्य से भरे-पूरे प्रचलनों की दिशाधारा उलट देने का सुयोग किस प्रकार मिले ? जब अपना छोटा-सा घर-परिवार सँभाल नहीं पाते, तो नया इंसान बनाने, नया संसार बसाने और नया भगवान बुलाने जैसे असंभव दीख पड़ने वाली सृजन-प्रक्रिया को विजयश्री वरण करने की सफलता कैसे मिले ?

निःसंदेह कठिनाई बड़ी है और उसे पार करना भी दुरूह है, पर हमें उस परम सत्ता के सहयोग पर विश्वास करना चाहिए, जो इस समूची सृष्टि को उगाने, उभारने, बदलने जैसे क्रियाकलापों को ही अपना मनोविनोद मानता और उसी में निरंतर निरत रहता है। मनुष्य के लिए छोटे काम भी कठिन हो सकते हैं, पर भगवान की छत्रछाया में रहते ऐसा कोई भी काम बन नहीं पड़ता, जिसे असंभव कहा जा सके। जो इतने बड़े संसार की संरचना कर सकता है, उसके लिए युग-परिवर्तन की प्रक्रिया क्यों कठिन होनी चाहिए? विषम वेलाओं में अपनी विशेष भूमिका निभाने के लिए तो 'सम्भवामि युगे युगे' के संबंध में वह वचनबद्ध भी हैं। यह तो उसका आए दिन का क्रीड़ा-कल्लोल है।

युग-परिवर्तन में दृश्यमान भूमिका तो प्रामाणिक प्रतिभाओं की ही रहेगी, पर उसके पीछे अदृश्य सत्ता का असाधारण योगदान रहेगा। कठपुतलियों के दृश्यमान अभिनय के पीछे भी तो बाजीगर की उँगलियों से बँधे हुए तार ही प्रधान भूमिका निभाते हैं। सर्वव्यापी सत्ता निराकार है। पर घटनाक्रम तो दृश्यमान शरीरों द्वारा ही बन पड़ते हैं। देवदूतों में ऐसा ही उभयपक्षीय समन्वय होता है। शरीर तो मनुष्यों के ही काम करते हैं, पर उन श्रेयाधिकारियों का पथप्रदर्शन, अनुदानों का अभिवर्द्धन उसी महानसत्ता द्वारा होता है, जिसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहकर आधा-अधूरा परिचय दिया जाता है।

जिस महान प्रयोजन में इन दिनों परमेश्वर की महती भूमिका संपन्न होने जा रही है, उसका श्रेय तो उन जागरूकों, आदर्शवादियों, प्रतिभासंपन्नों को ही मिलेगा, जिनने अपने व्यक्तित्व को परम सत्ता के साथ जुड़ सकने जैसी स्थिति को विनिर्मित कर लिया है। इसी आवश्यकता की पूर्ति को कोई चाहे तो युग-साधना भी कह सकता है।

समर्थता, कुशलता और संपन्नता जैसी महाशक्तियों से ऊपर उठकर एक चौथी शक्ति है—  भाव-संवेदना । इसी का प्रमाण-परिचय श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा के रूप में मिलता है । इन्हीं को तृप्ति, तुष्टि और शांति के रूप में अपनी उपस्थिति का प्रमाण-परिचय देते देखा गया है। यही दैवी अनुदान जब मनुष्य की स्वच्छ अंतरात्मा पर उतरता है, तो उसे निहाल बनाकर रख देता है। मात्र आदर्शवादी भाव-संवेदना ही है, जो जब अंतःकरण के साथ जुड़ती है, तो उसे देवदूत स्तर का बना देती है। उसकी समर्थता इस स्तर की होती है कि वह भौतिक आकर्षणों, प्रलोभनों एवं दबावों से स्वयं को बचा लेने की पूरी क्षमता रखता है। साथ ही ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में भी उसका योगदान सामान्य नहीं, असामान्य स्तर का होता है। जब कभी भी मनुष्य के अंतराल में श्रद्धा-संवेदना उभरती है, तो वह आदर्शवादी उत्कृष्टता के अतिरिक्त और कुछ माँगना चाहती नहीं। इस एक के आधार पर ही उसमें अनेकानेक दैवी तत्त्व भरते चले जाते हैं। महामानव इसी प्रकार उभरते व संधिकाल में विशिष्ट भूमिका निबाहते देखे जाते हैं।


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