श्रम की सार्थकता भाव-संवेदना से जुड़ने में

January 1990

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एक गाँव में झोपड़ी के सामने भीड़ लगी हुई थी। स्त्री-पुरुष सभी के चेहरे पर संवेदना के भाव थे। ऐसा लगता था जैसे कुछ अघटित घट गया है। सभी के मनों को व्यथित करने का कारण था— गाँव की एक नवयुवती वधू का विधवा हो जाना। जटिल सामाजिक परम्पराएँ, ऐसे में युवती महिला का बेसहारा हो जाना। सभी सांत्वना दे रहे थे। कोई दूसरा विवाह करने की सलाह देता, कोई दयार्द्र हो कुछ आर्थिक सहायता देने का आश्वासन देता।

इन सभी की अंतहीन बातों को काटते हुए बीच में महिला का दृढ़ स्वर उभरा— आपकी सद्भावनाओं की मैं आभारी हूँ, किंतु मुझे बेसहारा समझने की भूल न करें।” लोगों ने समझा शायद इसका दूर-दराज का कोई रिश्तेदार हो। सोच उभरा ही था कि कुछ रुककर उसने अपनी बात पूरी की— अभी मेरे दो भाई हैं, जिनके सहारे मैं आसानी से जीवनयापन कर सकती हूँ।” पास खड़े जनसमुदाय को अपने चिंतन की प्रामाणिकता नजर आने लगी।

एक साथ कई प्रश्न बरस पड़े, कौन हैं ? कहाँ हैं ?

युवती ने अपने दोनों हाथ ऊँचे किए— यही हैं वे।” आश्चर्यचकित हो घेरे खड़े जन देख रहे थे कि उसके कंठ से स्वर फूटा—" दायांँ हाथ है— श्रम जो मेरे पास है। बायांँ हाथ— सहयोग के लिए आपके सामने फैला है।" क्या सहयोग चाहिए ?— उपस्थित जनों में जिज्ञासा उभरी। युवती का जवाब था — "श्रम के नियोजन में सहायता। बात आगे बढ़ाते हुए उसने कहा— " आप लोग मुझे अनाज दे दिया करें, मैं उसे पीस दिया करूँगी। इस श्रम के बदले दो चार पैसे दे दिया करें।"

सभी को उसकी यह बात औचित्यपूर्ण लगी। श्रमशील ग्रामवासी श्रम की महत्ता से अपरिचित न थे। मन और शरीर एक धारा में लगन से युक्त हो चल पड़े, तो जीवनयापन की बात क्या, कुछ अधिक भी किया जा सकता है। मन में बिखराव हो, ऊट-पटांग सोचने, दिवास्वप्न देखने, शेख-चिल्ली जैसी कल्पनाएँ करने की आदत हो। शरीर निकम्मा, आलसी, अकर्मण्य पड़ा रहता हो। शरीर और मन दोनों में आपसी तालमेल न बने तो साधन-सुविधाओं के रहते हुए भी व्यक्ति को कठिनाइयाँ ही सदा घेरे रहती हैं।

पर उसके साथ ऐसी कोई उलझन न थी। साधारण खाना— मोटा पहनना, जिसकी जीवन-नीति हो। उसे स्वाभाविक स्वल्प आवश्यकताओं को पूरा करने में क्या परेशानी? लोग अनाज दे जाते। उसे दिनभर पीसती। पिसाई में कोई आटा देता, कोई पैसे। घर के बाहर पड़ी जमीन पर शाक-भाजी बो लेती। खाने के लिये आटा मिल ही जाता— शाक-वाटिका उसे सब्जी जुटा देती। साधारण मोटे कपड़े थोड़े दामों में मिल जाते। शेष पैसों को एक मिट्टी के घड़े में डाल देती।

अनवरत श्रम का सिलसिला चल निकला। यह जीवनक्रम— जीवनयापन पद्धति नहीं, बल्कि उपासना-प्रणाली में रूपांतरित होता चला गया। मुख में नाम, हाथ में काम और चित्त में राम। इन तीनों की एकरूपता सधने लगी। प्रातःकाल भजन गाते हुए अनाज पीसने के साथ मन यह सोचकर भावविभोर होता रहता कि पता नहीं कि कितनों के उदर में आसीन भगवान वैश्वानर की ज्वाला इस पिसे अन्न से शांत होगी। सब्र का प्रसाद मुझे मिलेगा।

चिंतन सँवर जाए तो चरित्र एवं व्यवहार अपने आप सुधर जाता है। सँवरे चिंतन के कारण उसका चरित्र विषय-वासनाओं की कीचड़ से नितांत अछूता रहा। मृदुवाणी सहयोग-सहकारभरे व्यवहार के कारण कभी सपने में भी किसी से लड़ाई- झगड़े की नौबत नहीं आई। उलटे लोगों का सम्मानभाजन बनी। समय-समय पर गाँव वाले अपने अनेकानेक कामों के बारे में सलाह लेते रहते। उसकी सलाह को प्रामाणिक माना जाता।

भजन गाते हुए उसका चक्की-पीसना देखकर साखी गुनगुनाते हुए कपड़ा बुनते कबीरदास, रामधुन का गान करते जूता गाँठते रैदास, विट्ठल के भाव में विह्वल हो कपड़ा सीते नामदेव की याद आ जाती। ध्यान भी आवश्यक है, पर उत्पादक श्रम के साथ ध्यान, यही आदि से संतों की नीति रही है। अन्यथा ध्यान-भजन के नाम पर आलस्य पल्ले पड़ता और अकर्मण्यता हाथ लगती है। गीता में इसी कारण भगवान सूर्य को श्रेष्ठ भक्त, भक्तों का आचार्य और नारायणश्रेष्ठ माना है। इस मान्यता का एक ही राज है— उनकी अनवरत कर्मनिष्ठा, संपूर्ण संसार को बिना किसी भेद-भाव के प्रकाश, ऊष्मा, ऊर्जादान करने की अनोखी वृत्ति। उसने भी संतों से उत्पादक श्रमयुक्त भजन की नीति सीखी थी। चित्त निर्मल होता गया, भक्ति बढ़ती गई। भक्ति का एक ही स्वरूप है— अपनी इच्छाओं— आकांक्षाओं को आराध्य के साथ घुला-मिला लेना और आराध्य का साक्षात जाग्रत स्वरूप है—  समष्टि। वह बचे हुए धन को इस समष्टि के लिए सार्वजनिक हित में अर्पित करने के लिए सोचा करती। सर्वहित को ध्यान में रखकर, बचाकर रखा गया धन भी कई घड़े हो गया था। वह स्वयं वृद्धता की देहली में प्रवेश कर चुकी थी।

उसका निर्मल मन रह-रहकर यही सोचता कि इस धन का उत्तमोत्तम उपयोग किस तरह हो। चिंतन चल ही रहा था कि एक दिन रास्ता चल ही रहा था कि एक दिन रास्ता चलते मुखिया की चौपाल से आती आवाज कान में पड़ी। ये लोग गाँव के पानी के संकट की चर्चा कर रहे थे। हल किस तरह निकले, कुछ सूझ नहीं रहा था। कारण पक्का कुआं बनाने के लिए धन जो चाहिए। श्रम करने के लिए तो लोग तैयार थे, पर रुपया फेंट से निकालने ही हिम्मत किसी में नहीं थी। उसने रुककर बात सुनी और पास आई। बोली— "भाइयों ! श्रम आपका, धन मेरा। सार्वजनिक हित में एकत्रित धन खर्च हो जाए तो मुझे भी शांति मिले।" “ पर दीदी फिर आप..........!” वाक्य को बीच में काटकर कही— "फिर मैं आपकी तरह अपने श्रम और आपके सहयोग से पहले की तरह जीवनयापन करती रहूँगी।"

मुहूर्त्त शोधा गया, जगह चुनी गई। भूमि-पूजन हुआ। मथुरा से दिल्ली राजमार्ग पर कुआं बनाना निश्चित हुआ था, ताकि ग्रामवासियों के अतिरिक्त राहगीर भी तृषा शांत कर सकें। गाँव के सारे लोग इकट्ठे थे— आज फिर सर्वमेध की परंपरा दुहराई जा रही थी। वही सर्वमेध यज्ञ जो भारतभूमि में राजा से रंक तक सभी करते आए हैं। विश्वामित्र को विश्वहित में, हरिश्चंद्र का सर्व-अर्पण, रघुवंश जिनके नाम से ख्याति प्राप्त हुआ, उन महाराज रघु का जनकल्याण को सब कुछ देकर मिट्टी के बर्तनों में खाना, महाभारत काल का वह वृद्ध ब्राह्मण, जिसने सपरिवार स्वयं भूखे रहकर सारा सत्तू क्षुधातुर अतिथियों को खिला दिया। रह- रहकर ये सभी दृश्य पुराणों की कथा को देवमंदिर में सुनने वाले ग्रामवासियों की आँखों के सामने तैर रहे थे। यही तो दुहराया जाना था। चक्की पीसने वाली वृद्धा चिरसंचित धन-अर्पण कर रही थी। सारे घड़े आ गए। जिसे देखकर सभी की आँखों में आँसू छलछला आए थे।

सभी का श्रम एक जुट हुआ। खारे पानी के इलाके में मीठा पानी का कुआं बना। नाम रखा गया— पिसनहारी का कुआं। सर्वमेध यज्ञ की गौरवमयी परंपरा का सार्थक स्मारक। ताकि लोग उसे भूलें नहीं। बाद में श्रद्धालु लोगों ने बगीचा लगाया, धर्मशाला बनाई। पंक्ति में प्रथम आने का जो साहस कर सका वही धन्य है। बाद में उसके अनुकरणीय मार्ग का अनेकों अनुकरण करते और कृतकृत्य होते हैं।

सर्वमेध की परंपरा को अभी समाप्त नहीं करना है। इन दिनों जबकि मनुष्य जाति का भाग्य नए कागज पर, नई स्याही से, नये सिरे से लिखा जा रहा है, इस गौरवमई परंपरा की उपादेयता, आवश्यकता और अधिक कई गुनी हो जाती है। ऐसे असाधारण समय में अपनी भूमिका का चयन करने का ठीक यही अवसर है।


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