माया महाठगिनी

December 1989

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सद्ज्ञान की बहुत महिमा-महत्ता बताई गई है। कहा गया है कि ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ इस संसार में और कुछ पवित्र नहीं है। ज्ञान को प्राप्त कर लेने पर बंधनमुक्ति निश्चित है। इस ज्ञान का अर्थ स्कूली शिक्षा से नहीं लिया जाना चाहिए। जो संबद्ध एवं दृश्यमान वस्तुओं के संबंध में विभिन्न प्रकार की जानकारी कराती है, वह शिक्षा भी उपयुक्त है। सभी धन-संपदा की तरह शिक्षा अर्जित करने का प्रयत्न करते हैं और करना चाहिए, ताकि जिस संसार में हमें रहना पड़ता है, उसके संबंध में व्यवहारकुशलता अर्जित कर सकें। यह शिक्षा है। अध्यात्म-क्षेत्र के ज्ञान और अनुभव को विद्या कहते हैं। विद्या का महत्त्व ही है, जिसकी उपलब्धि के संबंध में शास्त्रकार प्रशंसा करते-करते नहीं थकते और जिसे प्रकारांतर से अमृत कहते हैं— 'विद्ययाऽमृतमश्नुते।'

माया को तत्त्व दर्शन में निंदापरक शब्दों में प्रयुक्त किया गया है। वह इसलिए कि जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न दिखाकर कुछ-को-कुछ दर्शाती है और भ्रमित प्राणी उसके आकर्षण में उसी ओर खिंचता चला जाता है। इस मनोविनोद में समय और शक्तियों का अपव्यय तो बहुत होता है, इसमें रुचि भी रहती है, पर जब निष्कर्ष और प्रतिफल पर दृष्टि डाली जाती है, तो शून्य हाथ लगता दीखता है।

लगता है ईश्वर ने जहाँ अपने अंश— जीव को आत्मसत्ता के साथ जुड़ी हुई क्षमताएँ और विभूतियाँ मुक्तहस्त से प्रदान की हैं, वहाँ उसे बच्चा समझकर खिलौने भी इतने अधिक प्रकार के लाकर सामने पटक दिए हैं कि उन्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। बच्चों की रुचि कई दिन में पुराने खिलौनों से हट जाती है और उन्हें एक कोने में पटक देता है, किंतु मनुष्य है, जो उनमें कुछ सार न होने की बात देखते हुए भी समझ नहीं पाता।

प्रकृति का स्वरूप और उपयोग यों मोटी बुद्धि तथा इंद्रियों से समझ में आता है, किंतु गंभीर विचार करने पर उनकी वास्तविकता उजागर हो जाती है और प्रतीत होता है कि व्यर्थ की भटकन में इतना बहुमूल्य समय ऐसे ही गँवा दिया गया। यदि इसी समय और श्रम का उपयोग सारगर्भित कार्यों में किया गया होता तो कितना बड़ा लाभ मिल सकता था और कितना बड़ा उद्देश्य पूरा हो सकता था।

ज्ञान अर्जित करने का मोटा साधन हमारे पास मस्तिष्क है। वही ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से जानकारियाँ एकत्रित करता है, पर कभी यह नहीं सोचा जाता कि यह माध्यम उपयुक्त भी है या नहीं?

वर्षा ऋतु में आकाश में इंद्रधनुष दिखाई देते हैं, वे सच मालूम पड़ते हैं, पर उसी वायुयान पर चढ़कर वहाँ पहुँचा जाए तो प्रतीत होगा कि वैसी कोई वस्तु नहीं है। छोटे-छोटे वर्षाबिंदुओं पर जो सूर्य के प्रकाशकण चमकते हैं, वही भ्रमवश आँखों को इंद्रधनुष के रूप में दिखाई पड़ता है। जो देखा जा रहा है, उसे झुठलाने की भी इच्छा नहीं होती और जब तथ्यों का अन्वेषण करते हैं, तो प्रतीत होता है कि आँखों के माध्यम से मस्तिष्क धोखा खा रहा है।

जमीन पर खड़े होकर जब पृथ्वी और अंतरिक्ष का मिलन-स्थल देखते हैं, तो वह प्रायः तीन मील का होता है, पर जब वायुयान पर चढ़कर ऊँचे से देखते हैं, तो वह क्षेत्र चौड़ा हो जाता है और सौ मील की दूरी से भी परे वह मिलन-स्थल चलता चला जाता है।

जरा सोचें कि यह संसार क्या है? वैज्ञानिकों की दृष्टि में वह परमाणुओं की बिखरती-सिकुड़ती धूलि भर है, पर उस आधार पर जो दृश्य आँखों को दिखते हैं, उन्हीं को सच्चा माना जाता है। विभिन्न वस्तुएँ संसार में बनी और बिखरी दिखती हैं। यह सब अणुओं का संगठन और विघटनमात्र है। आँखें उन्हें सही रूप में देख सकने की क्षमता वाली नहीं हैंं, इसलिए संसार को इसी रूप में देखती हैं, जैसा कि वह दिखाई पड़ता है। घास और पेड़-पौधों को हम हरा देखते हैं, पर वे वस्तुतः वैसे होते नहीं। पत्तियाँ सूर्य-किरणों के अन्य रंगों को अपने में जज्ब कर लेती हैं, मात्र हरे रंग को हजम नहीं कर पाती, इसलिए वह बाहर रह जाता है और हम किरणों का चमत्कार नहीं, पत्तियों की विशेषता ही हरेपन से भरी हुई अनुभव करते हैं।

स्वाद के संबंध में भी इंद्रियाँ अधूरी जानकारी देती हैं। खाद्य पदार्थ और मुँह से निकलने वाले स्राव, दोनों के मिलने में मस्तिष्क तक जो जानकारी पहुँचती है, वही स्वाद है। नीम की पत्तियाँ हमें कड़वी लगती हैं, पर ऊँट को नहीं, वह उन्हें बहुत रुचिपूर्वक खाता है। एक ही चीज की अनुभूति दोनों प्राणियों को दो तरह की होती है। इसका कारण वस्तुतः स्वाद नहीं, हमारे मुँह की संरचना भर है।

काम-वासना शरीरगत हारमोन रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता पर निर्भर है। उनमें कमी–बेशी होने पर स्थिति सर्वथा बदल जाती है। कोई अतृप्त कामुकता का शिकार होता है और किसी की मनःस्थिति नपुंसक जैसी होती है। किसी को वह प्रसंग बड़ा रुचिकर लगता है, किसी को उन बातों की चर्चा से घृणा और अप्रसन्नता होती है। इसी प्रकार विभिन्न प्राणियों की गतिविधियाँ, रुचियाँ एवं आदतें भिन्न-भिन्न होती हैं। यह शरीर संरचना की, मानसिक ढाँचे की भिन्नता पर निर्भर है, इस कारण जो मतभेद बनते-पनपते हैं, उसमें से किसे सच और किसे झूठ कहा जाए, यह बड़ा टेढ़ा प्रश्न है।

मनुष्य वस्तुओं को हस्तगत करता है और उन्हें अपनी निजी संपत्ति मानकर मनमाना उपयोग करने लगता है, जबकि वास्तविकता यह है कि हर वस्तु एक स्थान पर एक स्वरूप में रहने की अपेक्षा निरंतर आगे बढ़ती और स्वरूप में बदलती रहती है। अभी जो रंग-रूप सुहावना लगता है, वह कुछ ही समय में जरा-जीर्ण हो जाता है और कुरूप ही नहीं लगता, वरन मरण की स्थिति में भी जा पहुँचता है। धन उपलब्ध होने के साथ-साथ खरच के माध्यम से अन्यत्र चले जाने की तैयारी करने लगता है। यह कुछ उदाहरण हैं, जिन्हें देख-समझकर हम वस्तुस्थिति जानने के लिए इंद्रियों पर और मस्तिष्क पर निर्भर नहीं रह सकते। यहाँ जादूगरी जैसा तमाशा हर घड़ी होता रहता है और बच्चे, माँ अपना काम हरज करके भी मनोविनोद करते और समय गँवाते रहते हैं। उस स्थिति को 'माया' कहा गया है, जिसमें कुछ-का-कुछ सूझ पड़ता है। कस्तूरी हिरन अपनी नाभि से उठने वाली सुगंधि को कहीं अन्यत्र से आती हुई समझते हैं और उसे पाने के लिए दौड़-धूप के उपरांत थककर निराश हो बैठते हैं। रात की चाँदनी में सफेद बालू को जलाशय समझकर प्यासे हिरन उस ओर दौड़ते हैं और अंततः अपने प्रयास की निरर्थकता अनुभव करते हैं। संक्षेप में यही माया है, जिससे ग्रस्त होकर मनुष्य क्षण-क्षण में दुःख-सुख अनुभव करता और हंसते-रोते जिंदगी का बोझ ढोता है। प्राणी-समुदाय अपनी इच्छाओं और क्रियाओं से बाधित होकर बार-बार जन्म लेता है। किन्हीं दो स्वजन-संबंधी और किन्हीं को अपना-पराया मिलता है। वे जब विलग होते हैं, तो बिछोहजन्य पीड़ा से मनुष्य सिर धुनता है, जबकि मरना उसका स्वयं का भी निश्चित है।

तत्त्वज्ञान का निष्कर्ष यह है कि माया के प्रपंचों का क्रीड़ा-कौतुक तो देखें, पर उसमें इतने लिप्त न हों कि अपना लक्ष्य ही भुला दिया जाए और उसके बदले अज्ञान और अनाचार का बोझ सिर पर लाद लिया जाए।

मनुष्य ईश्वर का राजकुमार है और पिता की संपदा का अधिकारी। मनुष्य जन्म का एक अवसर ही ऐसा है, जिसमें अपनी विभूतियोँ का संवर्द्धन करके ईश्वर का मिलन— उसके समतुल्य बनने का सुयोग हस्तगत किया जा सकता है। इसलिए दूरदर्शिता इसी में है कि बालविनोद में समय न गँवाकर उन कर्त्तव्यों के परिपालन में लग जाएँ, जो आत्मविकास के लिए जीवन-सुयोग को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक है।


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