भारतवर्ष के अतीत के गौरव से सभी भलीभाँति परिचित हैं व यह सभी जानते हैं कि सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह देश विगत दो सहस्राब्दियों से गुलामी के पाश में जकड़ा रहा। उसे स्वाधीनता मिली व अपनी गहरी सांस्कृतिक जड़ों के कारण उसने क्रमशः उठने का उपक्रम आरंभ किया।
‘टाइम पत्रिका' के 3 अप्रैल 1989 के अग्रलेख में आयुध बल की दृष्टि से भारत को अभी विश्व में रूस, चीन, अमेरिका के बाद चौथे नंबर पर मानते हुए लेखक श्री राॅस.एच.मुनरो लिखते हैं कि, "राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना, अपनी सांस्कृतिक विरासत, आध्यात्मिकता की गहरी जड़ें तथा वैज्ञानिक— मनीषा समुदाय की प्रखर मेधाशक्ति भारत को निश्चित ही मात्र महाद्वीप की नहीं, विश्वमात्र की एक महाशक्ति बनाकर रहेंगे।" उनका कथन अनेकानेक तथ्यों पर आधारित है, जो उनने अपने लेख में साक्षी रूप में प्रस्तुत किए हैं। वे कहते हैं कि अभी तक साँप व साधुओं, मच्छर व मलेरिया का देश माना जाने वाला भारतवर्ष सोया पड़ा था, किंतु यह दैत्य जाग उठा है। गत दो शताब्दियों में जन्मे महापुरुषों ने जनचेतना को प्रचंड रूप से उभारा है एवं अस्सी करोड़ से भी अधिक की आबादी की दृष्टि से विश्व की दूसरे नंबर की लोकशक्ति अगले दिनों अपने कर्त्तृत्वों से एक जनक्रांति कर दिखाएगी, यह सुनिश्चित बना दिया है।
वस्तुतः भारत का आकलन एक उभरती हुई महाशक्ति के रूप में किए जाने की माँग पाश्चात्य देशों के बुद्धिजीवी वर्ग के मध्य से ही उठी है। वे भारत को अपनी आशा का, उज्ज्वल भविष्य का केंद्रबिंदु मानते हैं व कहते हैं कि पश्चिम जगत इस समय 'क्राइसिस ऑफ आयडियाज' (वैचारिक संकट) से गुजर रहा है। नैतिक मूल्यों पर अनास्था ने एक ऐसी वैचित्र्यपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी है कि वे अब आगे 'क्या किया जाए, क्या न किया जाए?' इस असमंजस की स्थिति में स्वयं को पाते हैं। इसका विवरण अपनी पुस्तक 'द टर्निंग प्वाइंट' में देते हुए डाॅ. फ्रिट्जाफ काप्रा कहते हैं कि, “जब तक पूर्व से मार्गदर्शन लेकर बुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक स्वयं को मकड़ी के जाल से नहीं निकालते, तब तक सारे समाज में व्यापक चिंतन आ ही नहीं सकता।”
“हमारे सांस्कृतिक संकट (कल्चरल क्राइसिस) का मूल कारण यह है कि अग्रगामियों के पास— नेतृत्व करने वालों के पास बदलते युग के साथ न तो समस्याओं के समाधान हैं न कोई विकल्प है।” वे कहते है कि, “सारी मानव जाति इस समय उतरते हुए ज्वार, चढ़ते हुए भाटे के समान एक ऐसे बिंदु पर खड़ी है, जहाँ भविष्य का निर्धारण होना है। बदलाव के इस बिंदु को चीनी संस्कृति में 'वायंजी' नाम से संबोधित किया जाता है। इसका अर्थ होता है— "खतरों से भरी विभीषिका एवं बदलाव के अवसर उत्पन्न होने की परिस्थितियाँ”। इस प्रकार प्रकारांतर से युगसंधि की तमिस्रा एवं नवयुग के अरुणोदय का अभिनव सम्मिश्रण इस शब्द में है। डाॅ. काप्रा कहते हैं कि “पाश्चात्य समाजविद अब मान चुके हैं कि सारा विश्व इन दिनों परिवर्तन की संधिवेला से गुजर रहा है। पूर्वार्द्ध के रूप में मनोरोगों की बढ़ोत्तरी, युद्धोन्माद की स्थिति, बढ़ता आतंकवाद, सामाजिक विघटन हमारे सम्मुख है, किंतु उत्तरार्द्ध के रूप में शांति को संकल्पित भावी महामानवों की पीढ़ी यह आश्वासन दिलाती है कि जो कुछ अभी दिखाई दे रहा है, वह क्षणिक है। परिवर्तन की गतिशीलता यह बताती है कि इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य लेकर आ रही है व उसमें भारत की प्रमुख भूमिका होगी।” जो डाॅ. काप्रा के चिंतन के मूल में निहित परोक्ष प्रेरणा को समझेंगे, वे इनके इस कथन पर अविश्वास नहीं करेंगे।