अपराधबोध— सच्चा पश्चात्ताप (कहानी)

December 1989

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सम्राट अचानक कैदियों की व्यवस्था देखने कारागृह में जा पहुँचा। सूचना मिलते ही सारे कैदी दौड़कर राजा के पास पहुँचे। सबने झुक-झुककर अभिवादन किया। राजा ने एक-एककर सबके जुर्म, दंड एवं व्यवस्था के बारे में जानकारी ली। सबके सब चालाक, एक से बढ़कर धूर्त्त, सभी बड़े दीन, गरीब बने गिड़गिड़ाए-घिघियाए। घड़ियाली आँसू टपकाते हुए सभी ने कहा— "उन्हें निर्दोष फंसाया गया है। झूठे आरोप में लाया गया है।" किसी ने कहा— "हमें होश ही नहीं था। पुलिस यहाँ उठा लाई। कोई सुनने वाला ही नहीं है।" अंततः सभी ने अपने को निर्दोष सिद्धकर सजा माफी करानी चाही, किंतु एक कोठरी में कोने में एक कैदी सिर झुकाए बैठा था। सम्राट ने पूछा— "तुम्हें भी कुछ कहना है।" वह बोला— "महाराज! मैंने जघन्य अपराध किया है। उसे देखते हुए सजा बहुत हल्की मिली है। पता नहीं भरपाई हो सकेगी या नहीं अथवा पाप की गठरी सिर पर लादे ही चला जाऊँगा।" सम्राट ने जेल के मुख्य अधिकारी को बुलाकर कहा— "कोठरी में सिर झुकाए जो कैदी बैठा है, उसे तुरंत मुक्त कर दें, अन्यथा ये धूर्त्त न स्वयं सुधरेंगे, न किसी को सुधरने ही देंगे। इन्हें अपनी करतूतों पर कोई पछतावा तक नहीं है।"


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