अभिनेता नहीं, युग सृजेता बनें

December 1989

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मनुष्य स्वभावतः महत्वाकांक्षी है। सुखोपभोग की इच्छा हर प्राणी में पाई जाती है। इसी हेतु वह अनेक प्रकार के क्रियाकलापों में संलग्न रहता पाया जाता है। घटियास्तर के व्यक्ति मात्र शरीरचर्या तक सीमित रहते हैं। वे अच्छा खाने, अच्छा  पहनने, मनोरंजक दृश्य देखने, कामुकता की ललक सँजोने में लगें रहते हैं। शृंगार-सज्जा इसी के अंतर्गत आती है। इसके एक कदम आगे बढ़ने पर महत्वाकांक्षी के मन को उल्लसित करने वाले पक्ष सामने आ खड़े होते हैं। ठाट-बाट, संपत्ति संग्रह, पदवीधारी, सत्ताधारी होने की इच्छाएँ मनःक्षेत्र में ही उठती हैं। दूसरों से अधिक समर्थ, संपन्न होने की अभिलाषा से प्रेरित होकर लोग अनेक प्रतिस्पर्धाओं में उतरते हैं और विजयी होने पर गर्व जताते हैं। चुनाव जीतने में लोकसेवा की भावना कम और अपने को विशिष्ट सिद्ध करने की आकांक्षा अधिक होती है। अखबारों में नाम छपाने, समारोहों में प्रमुख पद पर आसीन होने, तीर्थयात्रा आदि के माध्यम से लोगों की दृष्टि में धर्मात्मा जंचने जैसे ताने-बाने इसीलिए बुने जाते हैं। विवाह-शादियों, प्रीतिभोजों में खरचीली धूमधाम खड़ी करने में भी अपनी संपन्नता का विज्ञापन करने का भाव ही प्रधान होता है। किसी की जीवनचर्या का लेखा-जोखा लेने पर प्रतीत होता है कि निर्वाह के साधन तो सरलतापूर्वक कम समय और कम परिश्रम में भी जुट सकते हैं, पर निरंतर व्यस्तता में ग्रसित रहने का प्रमुख कारण एक ही पाया जाता है— दूसरों की तुलना में अपनी विशिष्टता सिद्ध करना। इसी का सरंजाम जुटाने में जीवन का अधिकांश समय, श्रम एवं कौशल खप जाता है। इन्हें मृगतृष्णा ही कहना चाहिए, जिनकी आकर्षक छवि मनुष्य को अपनी ओर खिंचती है और उसकी बहूमूल्य क्षमता को चूस लेती है।

यह भूला दिया जाता है कि संसार में एक-से-एक बढ़कर 'बड़े आदमी' भरे पड़े हैं। उनकी तुलना में भरपूर प्रयत्न करने पर भी कदाचित अपनी बढ़ी-चढ़ी सफलता भी नगण्य समझी जा सके। फिर उत्साह तभी तक रहता है, जब तक इच्छित वस्तु या स्थिति प्राप्त नहीं हो जाती। उपलब्धि के कुछ क्षण ही पानी के बुलबुले जैसा उत्साह प्रदान करते हैं। इसके बाद तो जो मिलता है उसका बोझ और दायित्व बहन करते रहना ही कठिन पड़ जाता है। विवाह से पूर्व जोड़ीदार के संबंध में परीलोक जैसी कल्पनाएँ मस्तिष्क में ज्वार-भाटे की तरह उठती रहती हैं, पर जब कुछ ही दिन में गृहस्थी की भारी-भरकम गाड़ी खींचने की बारी आती है, तब पता चलता है कि ललक ने सुविधा कम और झंझट बहुत भारी लाद दिया। जो पाया है, उसे बनाए रहना भी कठिन होता है। ईर्ष्यालु उठ खड़े होते हैं और छीनने या नीचा दिखाने की दुरभिसंधियाँ रचने लगते हैं। फिर जो हर्ष या यश मिला था, वह भी थोड़े समय स्थिर रहता है। व्यस्तताग्रस्त दूसरे लोग तो उसे कब तक स्मरण रखे रहेंगे। स्वयं अपने को ही अपनी पिछली बातें याद नहीं रहतीं। नए काम ही इतने आ जाते हैं कि पिछलों की याद बनाए रहना संभव ही नहीं होता।

इन सब तथ्यों का गंभीर विवेचन करने वाले तत्त्वदर्शियों ने क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं को हेय माना है। उनकी उपमा बालकौतुक से दी है और कहा है कि जीवन को सार्थक बनाने वाले विचारशीलों को इस क्षुद्रता भरी भूल-भुलैया से बचना चाहिए। शक्ति गँवाने और बदले में मिथ्या अहंकार सिर पर लाद लेने में कोई बुद्धिमानी नहीं है। आकांक्षा से शक्ति उत्पन्न होती है और प्रयास में निरत रहने का उत्साह उभरता है। इस तथ्य को प्रगति की प्रारंभिक स्थिति के अनुरूप मानते हुए भी यह देखना चाहिए कि क्या इनकी अपेक्षा ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्धारणों का चयन किया जा सकता है, जो आत्मसंतोष के साथ-साथ चिरकाल तक टिकने वाला श्रद्धाभरा लोक-सम्मान प्रदान कर सकें। इस प्रकार का चयन न कर पाने से ही लोग अजगर को खिलौना मानकर उसकी और लपकते रहते हैं। पीछे लाभ के स्थान पर भारी घाटे में रहते हैं।

उच्चस्तरीय महत्वाकांक्षा एक ही है कि अपने को इस स्तर तक सुविस्तृत बनाया जाए कि दूसरों का मार्गदर्शन कर सकना संभव हो सके। यही सच्चा नेतृत्व है। अभिनेता स्तर के नेता क्षणिक, उथली और सस्ती वाह-वाही लूटकर अपना मन बहलाते हैं। बाहुल्य आज इन्हीं का है। ऐसा बनने के लिए जो प्रपंच रचने पड़ते हैं, उसी में वह बहुमूल्य क्षमता खप जाती है, जिसका यदि उच्च उद्देश्यों में नियोजन हुआ होता तो अपना और दूसरों का कल्याण कर सकने का ऐसा सुयोग बन पड़ता, जिसका अनुकरण और अभिनंदन करते हुए लोग अपने को धन्य मानते रहते।

सेवा का प्रत्यक्ष पक्ष दीन-दुखियों की सेवा करना, पिछड़ों को ऊँचा उठाना, पीड़ितों की व्यथा पूछना, अभावग्रस्तों के लिए साधन जुटाना है। यह सभी कार्य उचित हैं और दया-धर्म की अभिवृद्धि करते हैं। अपने निर्वाह की तरह दुखियारों को भी अपने सुख साधनों में सहभागी बनाना मानवोचित कर्त्तव्य है। इसका निर्वाह हर सद्गृहस्थ को करना और उदारचेता नागरिक बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

इससे ऊँची दूसरी सेवा-साधना हैं, जिसे धर्मधारणा कहा जाता है। इसका स्वरूप है— अव्यवस्था को व्यवस्था में और अनगढ़ता को संस्कारिता में बदलने वाले मार्गदर्शन हेतु कटिबद्ध होना। यही सच्चा नेतृत्व है। इसी पर वैयक्तिक और साहसिक प्रगति का आधार बनता है। लोग अभावों से जितने पीड़ित हैं, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक इसलिए दुःखी हैं कि वे प्रगति र्और शांति का मार्ग ढूँढने और अपनाने का सुयोग प्राप्त न कर सके। इस अभाव की पूर्ति कर सकने वाले ही भौतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युदय का राजमार्ग विनिर्मित करते हैं। साधु, ब्राह्मण, पुरोहित और लोकसेवी इसलिए जन-जन के श्रद्धाभाजन बनते हैं कि उनमें अपने जीवन भर सर्वसाधारण को अधिक उत्कृष्ट के मार्ग पर चलाने का प्रयत्न किया और उसमें तत्परता बरतने के कारण सफाई भी पाई। ऐसे मार्गदर्शकों को ऋषिकल्प माना जाता है और उनकी गणना भू-सुरों में, देवताओ में होती है। किसी समय इसी समुदाय की बहुलता थी। फलतः सतयुगी वातावरण बना रहा। स्वल्प साधनों में भी लोग हिल-मिलकर रहें। मिल-बाँटकर खाते, स्नेह-सौजन्य बरसते एवं भावना, विचारणा और क्रियाकलाप का स्तर ऊँचा उठाने की ही परिणति थी कि मनुष्य में देवत्व की झलक-झाँकी का आभास मिलता रहा। आज की विषम परिस्थितियों में ऐसे मार्गदर्शकों की महत्ती आवश्यकता अनुभव की जा रही है। उन्हीं के अभाव में सर्वत्र समस्याओं और विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। अच्छा होता मनीषी वर्ग की प्रतिभाएँ अपनी लेखन, आदर्शवादी जीवनचर्या के आधार पुरातन ब्राह्मण धर्म का परिपालन करतीं और पिछड़ेपन को सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता में परिवर्तित कर सकती। इस समूची प्रक्रिया का सुसंस्कारिता का अभिवर्द्धन कह सकते है। धर्म और अध्यात्म का यही वास्तविक क्षेत्र भी है।


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