बेसहारों का मसीहा

December 1989

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फ्रांस के सुविख्यात पादरी फादर आवेपियर पेरिस में रहते थे। जाड़ों की कड़कड़ाती सरदी की एक रात में जब वह लिहाफ में घुसे पलंग पर चैन की नींद सो रहे थे कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। खट-खट की आवाज ने उनकी नींद भंग की।

इतनी रात गए कौन हो सकता है? मन-ही-मन फादर ने प्रश्न किया और उत्तर वहीं से आया, जहाँ से प्रश्न पूछा गया था— "शायद कोई मुसीबत का मारा व्यक्ति है।"

दरवाजा खोला तो सचमुच एक व्यक्ति, जिसके तन पर नाममात्र के वस्त्र थे, याचना की मुद्रा में खड़ा था। फादर ने कहा— "कहो बेटे! क्या बात है?"

“फादर ठंड लग रही है। आज आपके मकान में शरण चाहता हूँ"— व्यक्ति ने कहा।

ईसा की राह पर चलने वाले फादर न कैसे करते। उन्होंने उल्टे प्रेमपूर्वक डाँट ही लगाई।

“इतनी देर क्यों कर दी। कभी का आ जाना चाहिए था।" और वह व्यक्ति अंदर आ गया।

फादर ने उसके सोने, ओढ़ने का अच्छा प्रबंध कर दिया और वह रात भर चैन की नींद सोया।

सुबह हुई, दिन बीत गया, पर रात बिताने की इच्छा से आए उस व्यक्ति का जाने का मन नहीं हुआ। मौसम ही ऐसा था और उसने सारा दिन गुजार दिया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार-पाँच, पूरा सप्ताह ही बीत गया। न आए व्यक्ति की जाने की इच्छा हुई और न फादर ने उसे जाने के लिए कहा।

विपरीत इसके कुछ और लोग वातावरण के गिरते तापमान को देखकर के अपने आप को बचाने के लिए फादर के पास आकर रहने लगे।

जब आगंतुकों की संख्या बढ़ने लगी तो फादर का ध्यान उनकी ओर गंभीर हुआ। पूछा- “सारे नगर में तुम्हारे जैसे कितने लोग हैं?" "बहुत सारे"— उत्तर मिला।

"तो एक काम करो।" फादर ने कुछ विचार करने के बाद कहा— “उन सबको चर्च में इकट्ठा करो।”

संध्या समय ऐसे सभी लोग चर्च में इकट्ठे हुए और फादर ने उन्हें अपनी बात समझाते हुए कहा—"क्यों न हम लोग सब मिलकर जाड़े की समस्या का स्थायी हल ढूँढें। इसके लिए हमें मकान बनाना होगा”— उन्होंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा। सुनकर सब लोग आश्चर्य और अविश्वास भरे भावों से उनकी ओर देखने लगे।

एक ने खड़े होकर कहा— “क्यों हँसी करते हैं फादर? हम लोग तन का कपड़ा और पेट की रोटी तो जुटा नहीं पाते, फिर भला मकान कैसे बनाएँगे।” फादर ने उत्साह भरते हुए कहा—“तुम नहीं जानते हो, सामूहिक प्रयासों में बड़ी ताकत होती है। यदि इस शक्ति का सही सदुपयोग किया जा सके तो क्रांतिकारी परिणाम सामने आ सकते हैं। हम लोग ऐसा ही करेंगे। मेरी योजना ध्यानपूर्वक सुनो। उचित लगे तो उत्साहपूर्वक क्रियाशीलता के लिए कटिबद्ध हों।”

और उन्होंने योजना बतानी शुरू की। इसके अनुसार बेघर लोगों ने शहर के तमाम कूड़े-कबाड़दानों को छान मारा, जो कि सड़कों के आस-पास कई स्थानों पर लगे थे। टूटी क्राकरी, टूटे−फूटे बरतन और पुराने टूटे फर्नीचर मिले। इन सब सामानों को जो व्यर्थ समझकर फेंक दिए गए थे, इकट्ठा किया गया और उनकी मरम्मतकर बाजार में सस्ते दामों में बेच दिया गया।

जो राशि इकट्ठी हुई, उससे पुनः वही धंधा चलाया गया। धीरे-धीरे रकम इकट्ठी हुई, जिससे कि एक साफ बस्ती के निर्माण की योजना को एक साकार रूप दिया जा सके। और जब वह योजना साकार होने की ओर अग्रसर हुई तो पेरिस ही नहीं, फ्रांस भर के समाचार पत्रों ने फादर की सूझ-बूझ और बेघर लोगों की श्रमशीलता की मुक्त कंठ से सराहना की। जनसहयोग भी प्राप्त हुआ। इस उपलब्धि से सूझ-बूझ और श्रमनिष्ठा की प्रेरणा मिलती रहे, इसलिए बस्ती का नाम भी 'रेग पिकर्स कॉलौनी' अर्थात कूड़ा-करकट बटोरने वालों की बस्ती रखा गया। काश! फादर आवेपियर की भाँति कोई साधक भारत में भी होता।


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