विश्व एकता की दिशा में एक अकिंचन प्रयास

December 1989

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पोलैंड का एक युवक अपने एकांत कमरे में बैठा विचार कर रहा था— "निरंतर होते जा रहे वैज्ञानिक आविष्कारों से धरती के विभिन्न भू-भाग एकदूसरे से नजदीक होते जा रहे हैं, किंतु इस नजदीकता के बावजूद मनुष्य एकदूसरे से दूर क्यों हैं? उसे अपने ही आकार-प्रकार वाले प्राणियों के बीच परायापन क्यों अनुभव होता है?" इस चिंतन के मध्य उसे अनेकानेक कारणों में एक महत्त्वपूर्ण कारण समझ में आया— 'भाषा'। इसकी विविधता, विचित्रता मनुष्य को अपने देश में बेगाना बना देती है। इसी के कारण अनेकानेक विवाद उपजते और टकराव के अवसर आते हैं।

भाषायी एकता की स्थापना मनुष्य को अनेकों विसंगतियों से उबारकर पारस्परिक भावनात्मक एकता को स्थापित करने में समर्थ हैं। अगले दिनों विश्व एक राष्ट्र के रूप में सूत्रबद्ध होगा। इस सूत्र की दृढ़ता का आधार सांस्कृतिक जीवन की निकटता, एकता और मजबूती है। इसका एक ही माध्यम है, भाषा का एक होना, क्योंकि इसी के द्वारा भावनाओं एवं विचारों का पारस्परिक आदान-प्रदान एवं आपसी घनिष्टता संभव है। बस प्रयत्न की शुरुआत यूरोपीय भाषाओं को एक सूत्र में पिरोने से हुई। इस नई भाषा के आविष्कार ने अपनी इस भाषा का नाम रखा 'ऐस्पेरेन्टो' और यह आविष्कार थेा— डाॅ एल.एल. जैमन हाॅफ।

उनके इस कार्य से दूसरों को भी प्रेरणा मिली। डाॅ. एल. विनेम ने भाषा की एकता का व्यवहारिक स्वरूप अपनी 'लोगोग्राफी' के द्वारा प्रस्तुत किया। जब तक विश्वभाषा का प्रचलन नहीं होता, इसका प्रयोग आसानी से किया जा सकता है।

इसका आधार शब्दों के स्थान पर अंक है। इसके नियमों को समझकर कोष के आधार पर लोगोग्राफी का लाभ उठा सकना संभव है। इसके लिए कोई नवीन लिपि भी नहीं सीखनी पड़ती।

माना टहलने के लिए लोगोग्राफी में न. आठ हैं। नं. 8 जहाँ लोगोग्राफी द्वारा प्रयोग में आया है। वह प्रत्येक भाषा में इसी अर्थ में प्रयोग होगा। अपनी-अपनी भाषा में वह व्यक्ति इसका वैसा ही अर्थ निकाल लेगा।

इसके आविष्कार में भाषासंबंधी अन्यान्य खोजों से भी लाभ मिला। डेनमार्क के मि. नारडाड ने अपने अध्ययन से नतीजा निकाला कि सभी भाषाओं के समाचारपत्र तथा सामान्य किताबों में प्रायः 100 शब्द ही बार-बार प्रयोग में आते हैं और आधी से ज्यादा जगह घेरते हैं। इसी तरह अमेरिकन भाषाविद थानडाइक ने बताया कि अमेरिकी भाषा में सामान्यता व्यवहार में लगभग 20,000 शब्द हैं।

लोगोग्राफी का निर्माण इन सारी चीजों को ध्यान में रखते हुए किया गया। यद्यपि यह काम बहुत श्रमसाध्य भी था, पर लगनशीलों के समक्ष असंभव भी क्या?

डा. विनेम और डा. जैमन हाफ दोनों ही यह मानते हैं कि बहुत संभव है कि उनके द्वारा अन्वेषित भाषाएँ भावीयुग में यथावत काम में न आएँ, परंतु एक ऐसी भाषा अवश्य विश्वभाषा के रूप में उभरकर आएगी, जिसमें स्त्रीलिंग, पुल्लिंग का कोई भेद न रहेगा। जो भावी युग में विश्वराष्ट्र की एकता, समता, सुव्यवस्था की संस्कृति के अनुरूप होगी।

समय आ रहा है कि शीघ्र ही विश्व को भावनात्मक तथा सांस्कृतिक स्तर पर एक होना ही पड़ेगा। साथ ही इन मनीषीगणों के अंतर में विश्वभाषा के जो स्वप्न उभरे हैं, वह भी मूर्त्त होंगे। हम सभी इस सांस्कृतिक एकता व विश्वराष्ट्र के निर्माण को अपनी जिम्मेदारी समझें और निभाने के लिए तत्पर हों।


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