नवयुग का मत्स्यावतार

December 1989

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ब्रह्माजी प्रातःकाल संध्यावंदन के लिए बैठे। आचमन के लिए हाथ में जल लिया तो कमंडल में एक कीड़ा विचरते देखा। उनके देखते-देखते वह कीड़ा आकार में इतना बढ़ता चला गया कि सारा कमंडल उससे भर गया। अब उसे अन्यत्र भेजना आवश्यक हो गया। समीपवर्ती जलाशय में छोड़ा गया। देखा गया कि सरोवर भी उस छोटे से जीव से जो कि मत्स्य की आकृति का था, भर गया। इतनी तेजी, से विस्तार को देखकर आश्चर्यचकित सृष्टिकर्त्ता प्रजापति उसे समुद्र में पहुँचा आए, किंतु कुछ ही समय में सारी जगती के जल-क्षेत्र को उसी बृहद् मत्स्य ने घेर लिया। इतना विस्तार आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, समझ में न आने योग्य था। जीवनधारियों की भी कुछ सीमा-मर्यादाएँ होती हैं। विकासगति सृष्टि के नियमों के अधीन ही चलती है, पर यहाँ तो सब कुछ अनुपम था। बुद्धि के काम न देने पर ब्रह्माजी ने स्वयं ही उस महामत्स्य से पूछ लिया कि, 'यह सब क्या व किसलिए हो रहा है? आप वस्तुतः हैं कौन?' महामत्स्य ने कहा— "मैं जीवधारी दीखता भर हूँ, वस्तुतः परब्रह्म हूँ। इस अनगढ़ संसार को जब भी सुव्यवस्थित करना होता है, तो उस सुविस्तृत कार्य को परिस्थिति विशेष के अनुरूप आकार ग्रहणकर अपनी सत्ता को नियोजित करता हूँ, तभी अवतार प्रयोजन की सिद्धि बन पड़ती है”।

ब्रह्माजी व महामत्स्य सृष्टि को सुंदर-समुन्नत करने की योजना बनाते रहे व अतंतः मत्स्यावतार सुसंतुलन की जिम्मेदारी प्रजापति को सौंपकर अंतर्ध्यान हो गए। कह गए कि अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलने का कार्य तुम्हें करना है। मैं अदृश्य रूप में प्रेरणा देता रहूँगा। श्रेय तुम्हें ही मिलेगा लेकिन क्षमता मेरी ही काम करेगी। तुम्हें व अन्याय मनीषियों को समझाने के लिए ही मैंने अद्भुत विस्तार करके यह समझाने का प्रयत्न किया है कि महान प्रयोजन यदि दैवी प्रेरणा से संपन्न किए जाते हैं और कर्त्ता अपनी प्रमाणिकता-प्रतिमा को अक्षुण्ण रखता है तो असंभव भी संभव होकर रहता है।

हुआ भी वही। उन्होंने सृष्टि को रचा। अगले चरण के रूप में मनुष्य स्तर के प्राणियों में जो उपयुक्त थे, उन्हें दिव्य चेतना से, दूरदर्शी विवेकशीलता से,प्रज्ञा और मेधा से सज्जित किया ताकि वे स्वयं तथा औरों को समुन्नत-सुसंस्कृत बना सकें। इसके लिए वेदज्ञान दिव्यलोक से अवतरित हुआ। ब्रह्माजी की लेखनी ने उसे लेखबद्ध किया। देवमानवों ने उसे पढ़ा, समझा और अपनाया। सारी धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बनने का क्रम चल पड़ा।

लघु से महान, तुच्छ से विशाल होने में अचंभे जैसा व्यक्तिक्रम तो मालूम पड़ता है, पर जिस प्रयोजन के लिए दैवीसत्ता की इच्छा और योजना काम करती है, उसके द्रुतगामी विस्तार में कोई शंका नहीं रह जाती।

एक बीज से हजारों बीज, अगणित वृक्ष उत्पन्न होने की बात सर्वविदित है। मनुष्य बीज जैसी विकासक्रम अपनाने वाली कोई वस्तु अपने बलबूते नहीं बना सकता, पर स्रष्टा का कर्तृत्त्व और सुनियोजन इतना अधिक समर्थ है कि उसकी तुलना सामान्य लोक-व्यवहार के आधार पर चलने वाले क्रियाकलापों से हो ही नहीं सकती। बादलों के बरसने, बसंत के पुष्प–पल्लवों से सुसज्जित होने की प्रक्रिया मनुष्य अपने बलबूते नहीं कर सकता। यह 'एकोहं बहुस्यामि' की कल्पना करने वाली दैवीसत्ता का कमाल ही है जो समूची सुसज्जित प्रकृति संपदा को दिव्य विभूतियों से भरकर गतिशील सुव्यवस्थित बना देती है।

ऐसा ही एक उदाहरण इन दिनों आश्चर्यचकित कर देने वाले विस्तार के रूप में प्रकट हुआ है।यह है— 'अपने समय का मत्स्यावतार'। दूसरे शब्दों में इसे युग परिवर्तन का सुनियोजन भी कह सकते हैं। इसमें टूटे खंडहरों की सफाई भी की जा रही है और उसके स्थान पर भव्य भवन भी खड़े किए जा रहे हैं। इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि मत्स्यावतार से लेकर बुद्धावतार तक एवं शताब्दियों से पराधीन भारत की आजादी जैसी महाक्रांति तक का एक-एक घटनाक्रम अपने आप में आश्चर्यजनक है जिसमें मानवी पुरुषार्थ कितना ही क्यों न लगा हो, पर दिव्य सत्ता द्वारा प्रतिकूलता में बदल दिए जाने वाली बात से इनकार नहीं किया जा सकता, भले ही उस अदृश्य रहस्य को प्रत्यक्ष रूप में देखा और दिखाया, समझा और समझाया न जा सके।

इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य वाले गंगावतरण की परिकल्पना और संभावना इसी आधार पर गले उतरती है कि उसके पीछे कोई अदृश्य सत्ता काम कर रही है। अन्यथा समय के दैत्य को देवत्व में बदल देने वाले विश्वव्यापी कायाकल्प पर कैसे विश्वास किया जा सकेगा? इन प्रयोगों में समर्थ सत्ता का हस्तक्षेप होने की मान्यता अपनानी ही पड़ती है। अन्यथा प्रतिपादन को लोकमान्यता मिल सकना प्रायः असंभव ही रहेगा। शान्तिकुञ्ज और उसके सूत्र-संचालक अपनी असमर्थता और साधनों की न्यूनता से भली प्रकार परिचित होते हुए भी किस आधार पर युग परिवर्तन के महाप्रयाण में झंडाबरदाज बनकर आगे चल रहे हैं, इसके उत्तर में उस विश्वास को ही साक्षी रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी सुनिश्चित परिपक्वता अनेक प्रयोग-परीक्षणों के बाद ही बन पड़ी है।

पिछले दिनों जो कदम उठे और प्रयास बने, वे कितनी आश्चर्यजनक रीती से सफल-संपन्न हुए, उसकी कथा-गाथा ऐसी है, जिसे कल्प-कथाओं की तरह संशयग्रस्त नहीं माना जा सकता। जो बन पड़ा है, उसका जो परिणाम निकला है, उसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए हर किसी के लिए द्वार खुला पड़ा है।

ऐसे असंख्य प्रसंगों में से यहाँ कुछेक का उल्लेख कर देना बटलोई में पकते भात में से कुछ चावल निकाल पकने, न पकने की बात जानने की तरह पर्याप्त हो सकती है।

(1) अखण्ड ज्योति पत्रिका तथा उसकी सहेलियों का प्रायः पाँच लाख की संख्या में छपना। उस साहित्य का अनेक भाषा-भाषियों द्वारा अत्यंत श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाना। पत्रिका के सदस्यों द्वारा पाँच विचारशीलों को उनका बाँटा जाना और इस प्रकार उनका वाचन,श्रवण के अतिरिक्त प्रेरणाओं को जीवनचर्या में उतारा जाना। इस प्रकार 24 लाख विचारशीलों का परिकर जुट जाना।

(2) युगसाहित्य के रूप में प्रायः एक हजार छोटी-बड़ी पुस्तकों का लिखा जाना और कई-कई संस्करण उनके प्रकाशित होना, घर-घर पहुँचना और अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद होना।

(3) प्रज्ञा संस्थानों के रूप में देशों के कोने-कोने में प्रायः 2000,इमारतों का विनिर्मित होना और उस तंत्र द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों में नवसृजन के क्रियाकलापों को क्रियान्वित करते रहना।

(4) अब तक प्रायः ऐसे दस हजार आयोजनों-समारोहों का उत्साह भरे वातावरण में संपन्न होना, जिनमें धर्म तंत्र के माध्यम से लोक-शिक्षण की उच्चस्तरीय प्रेरणा द्वारा असंख्यों को अनुप्राणित किया गया।

(5) युगसंधि पुरश्चरण के माध्यम से लोक-मानस में नवसृजन का उल्लास उमंगना और लाखों व्यक्तियों का उसमें सम्मिलित होना।

(6) युगसंधि के आगामी दस वर्षों में एक लाख सृजनशिल्पी उभारना, प्रशिक्षित करना और कार्यक्षेत्र में उतारना। उसे प्राचीनकाल के साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक स्तर के प्रचलन को पुनर्जीवित किया जाना भी कहा जा सकता है। तेजी से चल रहे प्रयासों द्वारा उस लक्ष्य की ओर बढ़ा जा रहा है, जिसमें एक करोड़ विचारशीलों को समर्थक-सहयोगी बनाना एवं पूर्णाहुति के अवसर पर एकत्रित किया जाना संभव हो सकेगा।

(7) विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के लिए ब्रह्मवर्चस् शोध-संस्थान द्वारा इन आविष्कारों,निर्धारणों को प्रस्तुत करना, जो अगले दिनों लोगों को नई प्रेरणा एवं नई दिशा दे सकते हैं।

प्रकाशन, प्रचार एवं संगठन के लिए युगनिर्माण योजना,गायत्री तपोभूमि एवं अखण्ड ज्योति संस्थान तंत्र का अनवरत रूप से तत्पर रहना भी एक ऐसी उपलब्धि है, जिसके आधार पर उपरोक्त सारी गतिविधियां चलती रही हैं। लागत मूल्य पर घर-घर युग-साहित्य को पहुँचाना प्रस्तुत समय की सबसे बड़ी सेवा— महती उपलब्धि है।

ऊपर प्रारंभिक पंक्तियों में चुल्लूभर जल से उत्पन्न हुए मत्स्यावतार के विराट विश्व पर छा जाने और उसकी एक ही रटन, एक ही ललक का वर्णन किया था-विस्तार! विस्तार!विस्तार! वही आकांक्षा युगचेतना के रूप में अवतरित हुए आज के प्रज्ञावतार आंदोलन की है। उसे सुविस्तृत हुए बिना चैन नहीं। युग परिवर्तन की उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य भी यही है।

चुल्लूभर पानी से उत्पन्न हुई मछली 'अखण्ड-ज्योति' परिकर को समझा जा सकता है।यह पत्रिका मात्र छपे कागज का पुलिंदा नहीं है। यह अखण्ड ज्योति ही है जिसने अपने पाठकों को एक विशेष स्तर तक समुन्नत करने में सफलता पाई है। यह परिकर अपनी विशिष्टता को चिंतन, चरित्र और व्यवहार में निरंतर स्थान देता चला आया है। विगत आधी शताब्दी से वटवृक्ष की तरह उसकी गरिमा समुन्नत,सुविस्तृत ही होती चली आई है।यह कैसे संभव हुआ? इसका श्रेय उस अदृश्य ऊर्जा को ही जाता है, जो अपने लिए उपयुक्त एक केंद्र विशेष पर अवतरित होती और अपनी गरिमा के आँचल में आश्चर्यजनक रीती से लाखों को समेटती चली जा रही और करोड़ों को अपनी छत्र-छाया में शांति और प्रगति से लाभांवित होने के लिए आमंत्रित करने का दुस्साहस जैसा उपक्रम अत्यंत उत्साहपूर्वक सँजोती चली जाती है।

नवसृजन की प्रारंभिक ऊर्जा अखण्ड ज्योति के रूप में अवतरित हुई है। वह अपने से जुड़े अनेक घटकों-पाठकों का तद्नुरूप बनने-ढालने के लिए बाधित एवं अनुप्राणित कर रही है।

'इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य' का नारा इसी परिकर से उठा एवं दिग-दिगंत में प्रतिध्वनित हुआ है।

अखण्ड ज्योति परिजन अभी मात्र पाँच लाख हैं। इस छोटी मंडली द्वारा युग का गोवर्धन उठेगा नहीं। 600 करोड़ आबादी वाले संसार का कायाकल्प जैसा पुरुषार्थ कर दिखाने के लिए यह समुदाय जलते तवे पर एक बूँद पानी की तरह नगण्य ही कहा जा सकता है। संख्या और क्षमता अनेक गुनी बढ़ने की आवश्यकता है। आशा ही नहीं, विश्वास है कि विस्तारक्रम रुकने वाला नहीं है। यह परिकर भी मत्स्यावतार की तरह बढ़ेगा एवं एक करोड़ सृजनशिल्पियों का विनिर्मित करके रहेगा।

इस दिशा में इस वर्ष का सीमित लक्ष्य यह है कि एक से पाँच, पाँच से पच्चीस बनने वाली गुणन-अभिवर्द्धन-प्रक्रिया में कहीं कोई व्यवधान अड़ना नहीं चाहिए। अब तक पाठक इस परंपरा को निष्ठापूर्वक निबाहते रहे हैं कि पहुँचने वाला ही हर अंक कम-से-कम पाँच द्वारा पढ़ा जाता रहे। इसी आधार पर तो पाँच लाख के परिकर के अनुपाठकों समेत पच्चीस लाख गिना और और अपने परिवार को इतना बड़ा माना व समझा जाता है। अब एक ऊँची छलाँग लगाने का दूसरा ही सोपान नई चुनौती लेकर सामने आ खड़ा हुआ है। एक से पाँच नहीं, अब पाँच से पच्चीस होना चाहिए।वे अनुपाठक जो मांगकर अपनी जिज्ञासा शांत करते रहे हैं, उन्हें सहायता पर निर्भर रहना छोड़कर तरुणों जैसी वह रीति-नीति अपनानी चाहिए, जिससे बढ़े-चढ़े पुरुषार्थ की अपेक्षा की जाती की जाती है। अनुपाठकों को अब स्वयं सदस्य बनना चाहिए और अपनी पत्रिका के पाँच-पाँच अनुपाठक बनाकर पाँच से पच्चीस वाला विस्तारक्रम पूरा कर दिखाना चाहिए।

इन दिनों अखण्ड ज्योति का हर सदस्य चार और नए सदस्य बनाकर अपनी मंडली पाँच की गठित करे। उसके अनुपाठक तो पच्चीस सहज ही हो जाएंगे। इस अभिनव विस्तार से संख्या सवा करोड़ पाठकों से आरंभ होकर एक अरब छप्पन करोड़ की संख्या तक पहुँच जाएंगे। इसे अत्युक्ति भी मान लें तो यह तो कह ही जा सकता है कि पाँच नए अनुपाठक चार-चार नए स्थान बनाकर पच्चीस की मंडली के सूत्र- संचालक बन जाएं एवं इस प्रकार न्यूनतम तीस करोड़ संख्या को तो अपने प्रभाव-क्षेत्र में ले ही लेंगे। जिस गति से पिछले दिनों गतिशीलता का उपक्रम रहा है, उसकी तुलना में अगले दिनों प्रगति का अनुपात पाँच गुना अधिक बढ़ जाने से वह एक वर्ष में ही बन पड़ेगा। जिसे पिछली सफलता की तुलना में अगणित गुना अधिक तीव्रगति से चलने वाली प्रगति कहा जा सके। इस प्रकार कुछ ही छलाँगों में हम मत्स्यावतार का उपक्रम अपनाने वाले युगसाधक सच्चे अर्थों में बन सकते और नवसृजन के क्षेत्र में वह चमत्कार कर दिखा सकते हैं, जिसे सुनने में तो सर्वसाधारण रुचि की बात लेता है, पर व्यवहार में प्रत्यक्ष बन पड़ने की बात को संदेह एवं असमंजस जैसा ही कुछ मानता है।

अखंड ज्योति के पाठकों, अनुपाठकों से यह अनुरोध भी किया गया है कि वे अपनी मंडली के हर सदस्य का, अपना जन्मदिन मनाए और विचार-विनिमय का, आदर्शवादी प्रतिपादन के क्रियान्वयन का उपक्रम चलाए। जन्मदिन के उपलक्ष्य में अभ्यस्त बुराइयों में से एक को छोड़ने और एक नई सत्प्रवृत्ति बढ़ाने का अवलंबन भी लिया जा सकता है। प्रत्येक पाठक अपने जन्मदिन की सूचना शान्तिकुञ्ज भेजे, ताकि उसे यहाँ भी मनाया जा सके एवं अगणित व्यक्तियों का अभिनंदन उनके जन्मदिन की गरिमा के साथ जुड़ सके। इस अवसर पर यहाँ से सूत्र-संचालक के आशीर्वचनोंयुक्त एक अभिनंदन पुस्तिका भी भेजी जाएगी। पाँच सदस्य, पच्चीस अनुपाठक व इसके मित्र-सहयोगी एकत्र होने पर एक अच्छा-खासा समारोह मन सकता है। इस अवसर पर आयोजित दीपयज्ञ से उपस्थित सभी परिजनों को दिव्य प्रेरणाओं से अनुप्राणित होने का सुयोग मिलेगा।

जिस प्रकार बैटरी चार्ज करने के लिए उसे बार बार विद्युतप्रवाह के साथ जोड़ना पड़ता है। ठीक इसी स्तर का एक प्रसंग यह भी है कि प्रज्ञा परिजन शांतिकुंज की गंगोत्री यात्रा छः माह में नहीं तो वर्ष में एक बार तो कर ही लेने की योजना बनाये रहे। युगसंधि के शेष दस वर्षों में यह उपक्रम नियमित रूप से चलता रहे तो खर्च हुए समय और पैसे की तुलना में कुछ अधिक ही मिल सकेगा। भले ही वह चेतना क्षेत्र का अनुदान चर्मचक्षुओं से न दीख पड़े। सन् 20 से सन् 2000 तक युग सृजन परिकर के प्राणवान परिजनों के लिए समूची अवधि में नौ-नौ दिन के सत्र शांतिकुंज में अनवरत रूप से चलते रहेंगे। युग साधकों को प्राण प्रेरणा से अनुप्राणित होने का अवसर मिले, इसलिये अगले दस वर्षों में 1 दिवसीय सत्रों में अधिकाधिक व्यक्तियों को शाँतिकुँज आमंत्रित किया जा रहा है। ये सत्र हर माह 1 से 2, 11 से 12 तथा 21 से 22 तारीखों में चलते रहेंगे। ये परामर्श सत्र सतत् चलते रहेंगे ताकि अखण्ड ज्योति पाठकों से सूत्र संचालकों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया व्यापक स्तर पर संपन्न हो सके। इसी निमित्त शांतिकुंज में नये कमरे बनाये गये है, आवास व्यवस्था का विस्तार किया गया है।

सज्जनों का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार ही नवयुग के अवतरण का प्रधान लक्षण है। दुर्मतिजन्य दुर्गति का निवारण और निराकरण संयमशील-उदारचेता ही अपने विस्तार-पुरुषार्थ से संभव कर सकते है। उन्हीं का उत्पादन, अभिवर्धन और प्रशिक्षण नवसृजन प्रक्रिया का प्रधान अंग है।

अपने समय का प्रज्ञावतार ही प्राचीन का मत्स्यावतार है। उसकी रटन लगन और ललक निरन्तर विस्तार पर ही केन्द्रित रही। अब हममें से प्रत्येक को एक से अनेक बनाने का व्रत लेना चाहिए और विस्तार के इस लक्ष्य को पूरा करने में कुछ ऐसा कर गुजरना चाहिए जो अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहकर सराहा जा सके।


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