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December 1989

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तितलियाँ, मक्खियाँ एक फूल से उड़कर दूसरे पर बैठती रहती हैं। उनके परों और पैरों के साथ उनके पराग एक से दूसरे तक पहुँचते रहते हैं। इसी निषेचन-प्रक्रिया के फलस्वरूप फूलते-फलते हैं। यदि सहक्रिया रुक जाए तो फूलों को फलित होने का अवसर न मिले। पक्षी आकाश में स्वच्छंद विचरते रहते हैं। वे दुर्गम क्षेत्र में जा पहुँचते हैं और वहाँ बीट करके उसमें भरे हुए बीजों को वृक्ष बनने का अवसर देते हैं। यह पारस्परिक सहकार का ही चमत्कार है, जिसके बलबूते वनस्पतियाँ फलित होती और वंशवृद्धि करती हैं। इसके अभाव में वनस्पति वर्ग सिकुड़ता और समाप्त होता चला जाएगा।

इकालॉजी सिद्धांत के अनुसार यह समस्त विश्व-ब्रह्मांड परस्पर सहयोग पर ही टिका हुआ है। इसका प्रत्येक घटक एकदूसरे के साथ आदान-प्रदान की विधि-व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है। यदि यह शृंखला टूट जाए तो समझना चाहिए कि जहाँ भी इक्कड़पन चलेगा, वहाँ अभावग्रस्त स्थिति में समाप्ति का सिलसिला चल पड़ेगा। जलचक्र, वनस्पतिचक्र, प्राणिचक्र के पीछे प्रकृति की यही नियति काम करती है। समुद्र का जल भाप बनकर ऊपर उठता है, बादल बनकर बरसता है, वह जल नदी-नालों के माध्यम से फिर समुद्र तक जा पहुँचता है। जलचक्र के सुव्यवस्थित रूप से चलते रहने पर ही वनस्पतियों और प्राणियों को, उपयोग के लिए जल मिल जाता है। भूमि की उर्वरता भी बढ़ जाती है। यदि यह क्रम अस्त-व्यस्त हो जाएगा तो फिर सर्वत्र सूखा ही दृष्टिगोचर होगा। यहाँ तक कि समुद्र भी सूख जाएगा। पेड़ों के पत्ते झड़ते हैं, नीचे वाली भूमि को खाद देते हैं। फलों में बीज निकलते हैं, बीज नए पौधे उगाते हैं। यदि यह क्रम न चले तो वनस्पतियों का वंश नष्ट ही हो जाए। प्राणी प्रजनन का कष्टसाध्य क्रम यौन उत्साह से प्रेरित होकर अपनाते हैं। बच्चों को सहज, स्वाभाविक उत्साह स्फुरण से प्रेरित होकर पालते हैं और पीढ़ियाँ बनती-बढ़ती चली जाती हैं। कचरा खाद्य बनता है और उर्वरता का निमित्त कारण बनता है। मरण के उपरांत पुनर्जन्म की भूमिका बनती है। यह ध्वंस और सृजन के रूप में दीख पड़ने वाला उपक्रम वस्तुतः सहयोग का प्रकृति-क्रम ही है। ग्रह-नक्षत्र एकदूसरे को अपनी आकर्षणशक्ति से बाँधकर अधर आकाश में लटके हुए हैं। जिधर भी दृष्टि दौड़ाई जाए, उधर ही सहयोग का सिलसिला चलता प्रतीत होता है। उसमें जहाँ भी, जब भी शिथिलता आती है, वहीं अवरोध का, विनाश समापन का लक्षण प्रकट होने लगता है।

मनुष्य जीवन की प्रगतिशीलता तो पूरी तरह इसी आधार पर अवलंबित है। यहाँ जितनी प्रगतिशीलता, सुविधा, सफलता दीख पड़ती है, उसके मूल में सहकारिता ही काम करती दृष्टिगोचर होती है। जहाँ दरिद्रता, कुरूपता, अवगति बन दुर्दशा के असभ्यता के लक्षण उभरे दिखते हैं, समझना चाहिए वहाँ सहकारिता का समुचित सुयोग नहीं बन पाया। इसी के अभाव में मनोमालिन, विग्रह-कलह, विद्वेष, आक्रमण, अपराध आदि का विक्षोभ उभरता है। दुःख और दरिद्रता सहयोग के अभाव का दूसरा नाम है। जो जितना एकाकी है, वह उतना ही दुर्बल है। उसका भविष्य उतना ही अंधकारपूर्ण है।

अध्यात्म तत्त्वदर्शन को जीवन की सर्वतोमुखी सफलता का आधार माना गया है। अध्यात्म का मोटा अर्थ है— अपनापन। सरसता के भंडार उसी में भरे पड़े हैं। जिस वस्तु या व्यक्ति को अपना समझते हैं, वहीं प्रिय लगता है। जब उस पर से किसी कारणवश अपनेपन का भाव हट जाता है और पराएपन की मान्यता बन जाती है, फिर इस बात की परख नहीं रहती कि वह किस स्थिति में है। उसे संभालने या विकसित करने में भी रुचि नहीं रहती। लोग अपने बच्चों को, अपने परिवार को चावपूर्वक पालते हैं, उनके लिए समय भी लगाते हैं और पैसा भी खरच करते हैं, पर दूसरों के प्रति जिनमें कोई लगाव नहीं है, उनकी परवाह कौन करता है? जिनकी परवाह नहीं, उनके सुख-दुःख में साझेदारी कैसी? यह परायापन ही अनात्मतत्त्व है, जिसे पातक माना और असुरता का प्रकोप कहा गया है। अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्वरूप प्रेमभाव है। प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। भक्ति और प्रेम एक ही बात है। उसी रसानुभूति को परमात्मा का मिलन या परमपद का रसास्वादन कहा गया है।

'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सूत्र अध्यात्म का सारतत्त्व है। जब हम दूसरों को भी अपने समान ही मानते है, उनके सुख-दुःख में अपनी प्रसन्नता या व्यथा को अनुभव करते हैं तो फिर दुर्व्यवहार बन पड़ना संभव हीं नहीं। अपने आपको चोट कौन पहुँचाता है, व्यथित होने के सरंजाम कौन इकट्ठे करता है? तब दूसरों को भी आत्मीयता की चादर में लपेट लेने के उपरांत यह कैसे संभव है कि उसके साथ छल किया जाए, अनाचार बरता जाए और आक्रमण करके कष्ट पहुँचाया जाए। अपने शरीर को स्वस्थ, मन को प्रसन्न, कलेवर को सुंदर, परिवार को समुन्नत बनाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा जाता है, तो फिर आत्मभाव का विस्तार कर लेने पर अन्यान्यों को भी अपना मान लेने के उपरांत इनकी भलाई के लिए ही सोचते या करते बन पड़ेगा। आघात पहुँचाने के लिए तो सोचते ही न बन पड़ेगा।

जो अपने सद्गुणों के कारण जितनों का, जिस स्तर का, सहयोग अर्जित कर सका, वह उसी अनुपात में सुखी रहा है और प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में सफल रहा है। उपेक्षा बरतने और पराएपन की विद्वेष भावना से ग्रसित रहने वाले व्यक्ति सदा प्रेत-पिशाच की तरह अशांत रहते हैं। एकाकीपन की क्षुद्रता जिनके मन में बसी हुई है, उन्हें संकीर्ण-स्वार्थपरता से ग्रसित रहते और अवांछनीयता अपनाते, कुकृत्य करते ही देखा गया है। संसार में जितनी भी कठिनाइयाँ बढ़ती दिखाई पड़ रहीं हैं, उनका प्रमुख कारण सहकारिता की सद्वृत्ति का घटते जाना ही कहा जा सकता है।

सद्भावना, सहकारिता और प्रगतिशीलता, प्रसन्नता लगभग एक ही बात है। प्रगति और समृद्धि भी इसी मनोवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए मनुष्य को सर्वोपरि प्राणी होने के नाते इस अनुबंध में बाँधा गया है कि वह न केवल परिवार बनाकर सामुदायिकता की रीति-नीति अपनाए, वरन इस सद्व्यवहार को अधिकाधिक क्षेत्र में व्यापक-विस्तृत करें। 'वसुधैव कुटुंबकम' की मान्यता जितनी विकसित एवं व्यापक बनती जाएगी, उतनी ही 'सर्वतोमुखी अभ्युदय' का माहौल सहज बनता चला जाएगा।

एक साथ तो एक बाड़े में भेड़े भी रहती हैं, सरायों में मुसाफिर ठूंसे रहते हैं। जेलखाने में कैद ठूंसे रहते हैं। प्लेटफार्मों, सड़कों, सिनेमाघरों में भीड़ एक साथ बंधी चलती है। इतने पर भी उनके बीच सहकार-सद्भाव न होने पर उसे मात्र भीड़ ही कहा जाता है। भीड़ अव्यवस्था, असुविधा और गंदगी ही फैलाती देखी गई है। इसके विपरीत सैनिकों की छावनियों में सुव्यवस्था,स्वच्छंदता देखते ही बनती है। विश्वविद्यालयों के छात्रों-अध्यापकों में भी प्रायः अनुशासन अपनाते देखा जाता है।

प्रयोगशालाओं में भी सब कार्य विधि-व्यवस्थापूर्वक होते हैं। पब्लिक स्कूलों और उच्चस्तरीय छात्रावासों, आश्रमों में भी सद्भाव और सहकार का जहाँ उपयुक्त वातावरण रहता है, वहाँ जाने वाले, देखने वाले तक सराहना करते लौटते हैं। फिर उस परिकर में रहने वालों की प्रसन्नता और निश्चिंतता का तो कहना ही क्या?

घर की चहार दीवारी से बाहर निकलने के उपरांत भी हर किसी को जनसंपर्क में आना पड़ता है। सड़क पर चलते समय भी राहगीरों से, वाहनों से वास्ता पड़ता है। हाट-बाजार से सौदा खरीदने में, दफ्तरों में, कारखानों में काम करने जाना पड़ता है। इससे एकदूसरे के साथ वास्ता तो थोड़े समय का ही पड़ता है, फिर भी वह अपेक्षा रखता है कि इस सामान्य संपर्क में भी शिष्टाचार और अनुशासन बरता जाए और ऐसा कुछ न बन पड़े, जिससे किसी को अव्यस्था, अनुशासनहीनता और अशिष्टता का आभास हो। सहयोग-सद्भाव को अभ्यास ऐसे ही अवसरों पर काम आता है।


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