अंतरंग को स्वस्थ व निर्मल बनाएँ

December 1989

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जैसे-जैसे हमारी गति स्थूल से सूक्ष्म में होती जा रही है, वैसे-वैसे हमें संकटों और अभावों के वास्तविक कारणों को समझने में सुविधा मिलती जा रही है। मोटी बुद्धि हमेशा संकटों का कारण बाहर ढूँढती है। व्यक्तियों, परिस्थितियों पर ही सबका दोष थोपकर निश्चिंत हो जाती है। समझदारी बढ़ने पर पता चलता है कि घटिया व्यक्तित्व ही पिछड़ेपन से लेकर समस्त विपन्नताओं की जड़ है। व्यक्तित्व का घटियापन सूझ ही न पड़े, उसके सुधार की कोई योजना ही नहीं बने तो परिस्थितियों की विपन्नता का समाधान हो ही नहीं सकता, वे एक से दूसरा रूप भर बदलती रहेगी।

बहुत समय पहले शारीरिक व्याधियों का कारण भूत-पलीतों का आक्रमण समझा जाता था। बाद में वात-पित्त-कफ के ऋतु-प्रभाव का कारण उन्हें माना गया। उसके बाद रोग-कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गई। शोध के इस प्रगति-क्रम में उतरते-उतरते इन दिनों आरोग्य शास्त्र के पंडितों ने इस तथ्य को खोज निकाला है कि शारीरिक रोगों के संदर्भ में आहार-विहार, विषाणु, आक्रमण आदि तो बहुत स्वल्प मात्रा में दोषी हैं, रुग्णता का वास्तविक और मूल कारण तो व्यक्ति की मनःस्थिति में अंतर्निहित है।

इन शोध प्रयासों से जो नए-नए तथ्य सामने आए हैं, उससे पता चलता है कि शरीर की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन काम करता है। अचेतन मन की छत्र-छाया में श्वास-प्रश्वास, ग्रहण-विसर्जन, रक्त-परिसंचरण आदि अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएँ चलती रहती हैं। चेतन मन के द्वारा बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले क्रियाकलापों और लोक-व्यवहारों का क्रम चलता है। इस तरह शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूर्णतया अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनःसंस्थान के नियंत्रण में रहती है।  

यह स्थूलक्रम हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग, अमुक मनोविकार के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं, जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाए इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है, जिसके अनुसार सारी गड़बड़ियों की जड़ बाहर मानकर उसे दूर करने के लिए बाहरी प्रयत्नों को ही सब कुछ माना जाता था।

अब आरोग्य दशा और रोग-निवृत्ति की दोनों ही जरूरतों की पूर्ति के लिए मनःसंस्थान की खोज-बीन करना जरूरी हो गया है और समझा जाने लगा है कि यदि मनुष्य के चिंतन-क्षेत्र में घुसी गड़बड़ियों की ओर ध्यान नहीं दिया गया, वहाँ जमी वितृष्णाओं और विपन्नताओं का समाधान न किया गया, तो आहार-विहार का संतुलन बनाए रहने पर भी रुग्णता से पीछा छूट नहीं सकेगा। अब नए शोध-प्रयासों ने कुछ दुर्घटना, जैसे आकस्मिक कारणों से उत्पन्न होने वाले रोगों को ही शारीरिक माना है और लगभग समस्त बीमारियों को मनःक्षेत्र की प्रतिक्रिया घोषित किया है। गहरी खोजों के फलस्वरूप आरोग्य जैसे मानव जीवन के अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन पर नए सिरे से विचार करना होगा।

इस तरह के विचार का शुभारंभ मनोविद् एरिक फ्राम ने अपनी रचनाएँ 'मैन फार हिमसेल्फ' में किया है। उनका मानना है कि अधिकांश मानसिक विकृतियों का कारण नैतिक होता  है। छल-दुराव एवं ढोंग-पाखंड के कारण दो व्यक्तित्त्व उत्पन्न हो जाते हैं। एक वास्तविक, दूसरा पाखंडी। दोनों के बीच भयंकर अंतर्द्वंद्व खड़ा रहता है।  दोनों एकदूसरे के साथ शत्रुता बनाए रखते हैं और विरोधी को कुचलकर अपना वर्चस्व बनाने का प्रयत्न करते हैं। मनोअध्येता फ्रायड ने इसे 'ईड' और 'सुपर ईगो' के बीच का द्वंद्व माना है । इस तरह विग्रह के फलस्वरूप अनेकों रोग उठ खड़े होते हैं और वैसी ही मानसिक स्थिति में बने रहने तक हटने का नाम नहीं लेते।

मानसिक रोगियों में प्रायः विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के ऐसे लोग गिने जाते हैं, जो अपना सामान्य काम-काज चला सकने में असमर्थ हो गए हों, जिनका शरीर-निर्वाह एवं लोक-व्यवहार विपन्नताग्रस्त हों। ऐसों की संख्या भी लाखों से बढ़कर करोड़ को, अपने देश में ही छूने लगी हैं। उन लोगों की कोई गणना ही नहीं, जो रोजी-रोटी तो कमा लेते हैं, खाते और सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिंतन विकृत एवं हेय होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते हैं और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए, उन्हें शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं।  कितने ही आशंकाओं—आक्षेपों—संदेहों के अभ्यस्त होते हैं। कुछ शेखचिल्लियों की तरह मनसूबे बाँधते, असंभव का विचार किए बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बसाते रहते हैं। परिस्थिति का मूल्यांकन कर सकना, दूसरों की मनःस्थिति समझ सकना उनके लिए संभव नहीं होता। किसी महत्त्वपूर्ण प्रसंग में ऐसाें का परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्यपद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना, उनसे नहीं बन पड़ता। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति में भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।

मनःशास्त्री जे.वान. क्लासविट्ज ने अपने अध्ययन 'माडर्न सोसाइटी एण्ड ह्यूमन बिहेवियर' में आज की सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि, "विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट— सनकी लोगों से प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। ऐसे लोगों में विवेकबुद्धि एवं विवेचनात्मक चिंतन का अभाव रहता है। स्वतंत्र चिंतन के प्रकाश में उनकी आंखें चौंधिया जाती हैं। इस वर्ग के लोगों को मानसिक दृष्टि से अविकसित, नर-पामरों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।

सोचने की बात है, यह सब होता क्यों है? मनुष्य का प्रत्यक्ष दोष दिखाई नहीं देता। जान-बूझकर ऐसा कुछ किया हो, जिससे उन शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों का दुःख सहना पड़े, ऐसा कुछ समझ में नहीं आता। फिर क्या कारण है कि समाज में इनकी संख्या स्वस्थ लोगों से कहीं बढ़ी-चढ़ी दिखाई पड़ती है।

इस असमंजस का समाधान देते हुए मनःशास्त्र आचार्य व्ही.गोर्डन चाइल्ड ने अपने अध्ययन 'सोसाइटी एण्ड नोलेज' में बताया है कि अनैतिक एवं असामाजिक चिंतन और कर्तृत्व से मनःक्षेत्र में उत्पन्न होने वाला अंतर्द्वंद्व दुहरा व्यक्तित्व रच देता है और इससे निरंतर उठने वाली आंतरिक कलह सारी मनोभूमि को क्षत-विक्षत करके रख देती है। संचालन के आहत, घायल एवं परेशान होने पर उसके आधीन काम करने वाले तंत्र की दुर्दशा होना स्वाभाविक है।

इतना सब जान लेने पर हमें एक ही निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि चेतन की मूल सत्ता अंतःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली-बुरी परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहीं से विपत्तियों का वज्र गिराने वाली दुःखद संभानाएँ विनिर्मित होती हैं। इस मूलकेंद्र का परिशोधन करना ही समस्या का वास्तविक निदान है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित संस्कारों का निराकरण करने के लिए आंतरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है।

इस परिशोधन का स्वरूप समझाते हुए मानविकी विद्या के आचार्यों का मत है कि उन्नत चिंतन एवं उत्कृष्ट कर्म का सामंजस्य ही वह उपाय है, जिससे अचेतन में नूतन लिपि लिखी जा सकती है। इनमें से एक का भी अभाव होने से प्रयोजन की समग्रता नहीं घटेगी। इससे न केवल जीवनक्रम सामान्य बनेगा, बल्कि अंतस्तल में उन दिव्य शक्तियों का अविरल प्रवाह प्रवाहित होने लगेगा, जिनके कारण सामान्य मनुष्य महामानवों और प्रतिभावानों की पंक्ति में जा बैठता है।


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