जिसने कारावास को साधनास्थली बनाया

December 1989

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बारह वर्ष का एक बालक सड़कों पर इधर-उधर चक्कर काट रहा था। उसके चेहरे पर बेचैनी, अकुलाहट व पीड़ा के चिह्न साफ नजर आ रहे थे। अचानक उसकी नजर सड़क के किनारे बने वर्कशाॅप पर पड़ी, दीवार पर टंगे बोर्ड पर लिखे बड़े-बड़े अक्षरों से जाहिर हो रहा था कि लोहे की मशीनें बनाने का कारखाना है। लड़के की आँखों में चमक आ गई। अगले ही क्षण वह चौकीदार की अनुमति लेकर प्रबंधक के कक्ष में था।

उसने रोते-गिड़गिड़ाते अनुनय के स्वर में कहा कि, "मैं काम की तलाश में आया हूँ।" "लेकिन तुम्हारे लिए यहाँ कोई काम नहीं"— सीधा-सपाट उत्तर था प्रबंधक का। "पर मैं पिछले तीन दिनों से भूखा हूँ।" "मैं कोई तेरी भूख का ठेकेदार हूँ।" प्रबंधक ने घंटी बजाई। आए हुए चपरासी से झल्लाते हुए कहा— "इसे निकाल बाहर करो।" दूसरे ही क्षण वह फिर सड़क पर था। आँखों की चमक विलुप्त हो चुकी थी। चेहरे को देखकर लगता था जैसे शरीर का सारा खून निचुड़ चुका हो। वह कई दिनों से भटक रहा था, पर किसी ने काम नहीं दिया। भला बारह वर्ष के बालक को रोजगार देकर कौन निर्दयी कहलाना चाहेगा। समाज की निगाहों में मूलतः यह प्रश्न मानवीय सहानुभूति का उतना नहीं था, जितना कि सामाजिक प्रतिष्ठा का। यही कारण कि वह जिनके पास गया, सभी ने इनकार में सिर हिला दिया। क्रूरता, निर्ममता भले ही अंतर में घर जमाए हो, पर भला कौन समाज की नजरों में क्रूर, निर्मम बनना चाहता।

"बुभुक्षेति किं न करोति'"—  भूखा क्या नहीं करता. के अनुसार एक बड़ी बदनाम मोटर कंपनी में नौकरी कर ली। यह मोटर कंपनी गैरकानूनी ढंग से अपने क्रियाकलाप चलाती थी। वह तो मेहनत व लगन से काम करता। उसे कंपनी की गतिविधियों से क्या लेना-देना। सीधा-सादा दिखने वाला यह लड़का किसी उलझन में न फँसा दे, यह सोचकर कंपनी के मालिक ने उसे एक केस में फँसा दिया, जिसके कारण उसे बारह वर्ष की सजा मिली।

जेल से छूटने पर सजायाफ्ता कैदी को रोजगार मिलना तो और मुश्किल था। कैद से छुटकारा पाए युवक में— हाँ! अब युवक हो चुका था— प्रतिशोध उमड़ा। विवश हो प्रतिशोध के आवेग में उसने एक डाकू दल बनाया। जिसने दो वर्ष में 50 से अधिक लूट-पाट और चोरियाँ कीं। उसे फिर पकड़ा गया। एक बार फिर वह जेलखाने के सीखचों में बंद था।

आवेग कब स्थाई रहता है। जेल में विगत जीवन, प्रयास, क्रियाकलापों की स्मृतियाँ एक-एक करके तैरने लगी। इस सबके साथ आँखों में आँसू भी तैरने लगे। विवशता और पीड़ा भरे स्वर में उसके मुख से निकला— "काश! मैं भी कुछ कर पाता।" उधर से जेल का पादरी गुजर रहा था, उसके कानों में वाक्य पड़े। वाक्य पड़ने के साथ उसके कदम मुड़े और कैदी के प्रकोष्ठ के सामने आकर खड़ा हो बोला—"तुम क्या करना चाहते थे युवक।"

"लेकिन अब इस सबसे क्या?" "नहीं, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। मनुष्य जिस क्षण से अपने को परिवर्तित करना चाहे, कर सकता है। जीवन का प्रत्येक क्षण अपने में अमूल्य अवसर है। आखिर बात क्या है? तुम मुझे बताओ तो।” पादरी के करुणा भरे मीठे वचनों के प्रभाव से उसने एक-एक करके अपने विगत जीवन की सारी घटनाएँ बयान कर डाली।

सब सुनने के बाद पादरी ने कहा—“जो हुआ उसे भूल जाओ। समझो! आज से मेरा नया जन्म हुआ। अब से इस जीवन को सुधारने का संकल्प लों। मैं तुम्हारी पूरी सहायता करने का वचन देता हूँ।” "फादर! पहली सहायता आप यह करिए। कागज, कलम, स्याही का इंतजाम कर दीजिए।" "ठीक है कर दूँगा"— पादरी ने आश्वासन दिया।

प्रायश्चित की आग में कल्मष जल चुके थे। अंदर की भावनाएँ लिखने की टीस से मिलकर कागज पर उतरने लगीं। जेल में रहते हुए अब वह युवक अपने को परिवर्तित कर रहा था। दिन-पर-दिन बीतते जाते। वह अपनी लेखनोपासना में मग्न रहता। कुछ समय बाद ही यह लेख— उसकी प्रथम रचना 'दी फ्रोट्रेस' के रूप में सामने आया। पादरी ने इस रचना को पश्चिम जर्मनी के एक प्रकाशक के पास भेज दिया। प्रकाशित होने पर यह रचना असाधारण रूप से लोकप्रिय हुई। न केवल रचना, बल्कि रचनाकार 'जाइगेर' भी।

हाँ! जीवनयात्रा के कड़वे,तीखे, कसैले और अब जीवन के रूपांतरण के बाद मधुर अनुभवों से गुजरने वाला वह बालक से युवा और युवक से प्रौढ़ अवस्था तक पहुँचने वाला जर्मनी का प्रसिद्ध और अप्रतिम साहित्यकार जाइगेर ही था, जिसने कारावास को साहित्य-साधना का केंद्र बना लिया। उन्होंने अनेकों कृतियाँ लिखी, जिसे साहित्य समीक्षकों ने उत्तम कृति के रूप में सराहा।

कहाँ एक मुजरिम— कहाँ एक लेखक। प्रत्यक्ष में विरोधाभास लगने पर भी आभास ही है, सत्य नहीं। बुराइयाँ तो आवरण भर है, जिनके कारण छिपा देवत्व जीवन की दिव्यता, अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर पाती। बुराइयाँ भी और कुछ नहीं कुछ भूलें भर हैं। जिनका परिमार्जन करने पर पूर्णतया निखार आ जाता है। लैंप के शीशे पर कालिख जम जाने से अंदर की ज्योति प्रकाशित नहीं हो पाती। जलते रहने पर भी उसके बुझने की प्रतीति हो जाती है। जैसे ही शीशा साफ किया कि स्वयं की चमक के साथ पूरा परिवेश आलोकित हो जाता है।

हमारे जीवन में भी कालिख जमती रहती है। व्यक्तिगत असावधानी से और सामाजिक विषमताओं से समाज मनोविज्ञानियों के विवरण के अनुसार पूरे विश्व में बाल अपराधियों की संख्या एक करोड़ से ऊपर है। इन सबके भीतर जाइगेर छुपा है। सामाजिक कर्णधारों की अपने दायित्व के प्रति उदासीनता, समाज का गंदला होता जा रहा माहौल ही इसका प्रमुख कारण है। यही कारण है कि जिन्हें अपने भीतर की प्रतिभा को अंकुरित करने, पुष्पित-पल्लवित करने में जुटना चाहिए, वह पाशविक प्रवृत्तियों के दास बनते जा रहे हैं।

स्थिति परिवर्तित हो, इसके लिए बुद्धिजीवियों को जेल के पादरी की तरह आगे आने का साहस जगाना होगा। यदि यह साहस जग सका, किशोर मनों में कर्त्तव्यबोध जाग्रत हो सका, तो इस समूचे समुदाय का कायाकल्प हुए बिना न रहेगा। प्रयत्न और कर्म-साधना से सब कुछ शक्य है। जो भी इसमें जुटते हैं, उनके लिए सहायक परिस्थितियाँ अपने आप बनती चलती हैं। कभी एक मुजरिम रहे जाइगेर ने आगे चलकर समूचे विश्व की विचारणीय जनता को अपने साहित्य के द्वारा एक सर्वथा नई जीवन-दिशा दी। यह पादरी की प्रेरणा और उसके मन में जगे कर्त्तव्यबोध का संयुक्त परिणाम था। वह अपनी कर्म-साधना, प्रतिभा निखारने के लिए साहसपूर्ण प्रयास और अटूट धैर्य के कारण संभव हो सका। संभावना अभी भी है— सत्परिणाम आने के लिए आतुर है; यदि विचारशील वर्ग तथा भटके हुए किशोर युवक, पादरी और जाइगेर की अनुभूति कर सकें। इसकी शुरुआत जितनी शीघ्र हो उतना ही अच्छा है।


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