वर्त्तमान में मानव समाज देश, जाति, समूह, रंग जैसी न जाने कितनी विषमताओं की खंदक-खाइयों से गुजर रहा है एक ऋषि, दिव्यद्रष्टा, गुह्यवेत्ता, मनीषी के रूप में श्री अरविंद ने स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि, “मानव जाति एक लंबे अरसे से एक अँधेरी,ऊबड़-खाबड़ सुरंग से गुजरती हुई मुहाने पर आ पहुँची है। शीघ्र ही वह ज्योतिर्मय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली है।"
यह अवश्यंभावी प्रवेश जीवन वैयक्तिक व सामाजिक-क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्त्तन लाने वाला होगा। एकता, समता, सुव्यवस्था एक नूतन विश्वसंस्कृति के रूप में पल्लवित होगी। इसका प्रसार-क्षेत्र होगा— विश्वराष्ट्र। महर्षि अपने ग्रंथ 'आइडियल आफ ह्यूमन यूनिटी' में बताते हैं कि," इसका मतलब सिर्फ भौगोलिक एकीकरण नहीं है और न ही यह विविध बलों की जबरदस्ती अथवा बुद्धि की ढेरों युक्तियों पर आधारित होगा, किंतु यह विशिष्ट प्रयास मानवीय न होकर स्वयं भगवान का, उनकी सृजनकर्त्ती शक्ति— प्रकृति द्वारा हो रहा है।"
इसकी परिणति के रूप में मनुष्य केवल मनुष्यत्व को देखेगा। जन्म, पद, वर्ग, वर्ण, समुदाय, राष्ट्रीयता के सभी भौतिक संयोग भुला दिए जाएँगे। जिस प्रकार एक राष्ट्रीय 'अहं' भाव पनपा, जिसने स्वयं का राष्ट्र के भौगोलिक शरीर से एक करके उसमें राष्ट्रीय एकता की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति विकसित की। उसी प्रकार सामूहिक मानव 'अहं' भाव भी विश्वशरीर में विकसित हो जाएगा और उसमें वह मानव एकता की सहज मनोवैज्ञानिक वृत्ति विकसित कर लेगा।
इस विकास का क्रम राष्ट्रीयता से 'अंतर्राष्ट्रीयता की ओर चलता हुआ। विश्वपरिवार, पृथ्वी परिवार के रूप में दिखाई पड़ने लगेगा। आज की स्थिति में हम संयुक्त राष्ट्रसंघ के रूप में विश्वसंघ की हलकी और अस्पष्ट झलक निहार सकते हैं। अस्पष्टता के बावजूद वैश्व एकता का प्रबल भाव विभिन्न भू-भागों में बसे मनीषियों, ग्रहणशीलों को बुरी तरह झकझोर रहा है। धीरे-धीरे इसका फैलता दायरा न केवल मनीषियों का, वरन सभी को अपने आगोश में ले लेगा। इसके स्पष्ट, सक्रिय स्वरूप को क्रमशः विश्वराष्ट्र, विश्वपरिवार के रूप में देखा जा सकेगा।
इस विश्व परिवार के सदस्यों का संघटन सूत्र होगा— मानव धर्म। इसका तात्पर्य वर्त्तमान में किए जाने वाले बौद्धिक एकीकरण से नहीं, अपितु अध्यात्म की समग्रता से है। जिसके आधार पर समझा जा सकेगा कि मानव जाति वह देवता है, जिसकी मनुष्य को पूजा करनी चाहिए, सेवा करनी चाहिए। मनुष्य और मनुष्य जीवन का सम्मान, उसकी सेवा और उन्नति साधन ही मानवात्मा के प्रधान कर्त्तव्य और मुख्य लक्ष्य होंगे। इसी आधार पर द्रुत वेग से ऐसे बहुत सारे कार्य संपन्न हो सकेंगे, जिनको 'पुराणपंथी धर्म' सफलतापूर्वक नहीं ही कर सका।
इसी के द्वारा अध्यात्म के त्रिविध भाव-स्वतंत्रता समानता और भातृभावना सर्वत्र गोचर होंगे। ये तीन वस्तुएँ वास्तव में आत्मा के स्वभाव हैं, क्योंकि स्वतंत्रता,समानता और एकता आत्मा के सनातन गुण हैं। इनकी उपस्थिति व अभिव्यक्ति का मतलब है, अध्यात्म राज्य की उपस्थिति व अभिव्यक्ति। निश्चित ही विश्व परिवार इसी के प्रकाश से आवृत व प्रकाशित होगा।
इसके लिए आवश्यक कदम तो उठ चुके हैं। मानव जाति का भविष्य भी सुनिश्चित हो चुका है। अब वह युग अंतिम साँसें गिन रहा है। जिसमें न सुलझाई गई समस्याओं, कठिनाइयों, अनिश्चित अवस्थाओं,बड़े विप्लवों तथा विशाल और रक्त से सने संघर्षों से मानव जाति को परेशान होना पड़ा। अब हम शीघ्र ही एक नए युग में प्रवेश करने को हैं, जिसमें समूची मानव जाति को एक परिवार के रूप में देखा जा सकेगा। हमारी इसमें सदस्यता, भागीदारी हो, उत्कृष्ट स्थान मिले सके, इस हेतु संकीर्ण स्वार्थपरता छोड़ें और वैश्व हितों के लिए तत्पर हों।