प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने हेतु मनुष्य के पास जो सबसे बड़ी ताकत है, वह है— जीवनी शक्ति का अकूत भांडागार। यही है, जो उसे मानसिक तनाव से लेकर शरीर पर पड़ने वाले वातावरण के उद्दीपनों से बचाता व उसके स्वास्थ्य की रक्षा करता है, किंतु पिछले दिनों इस संबंध में चिकित्सा विज्ञान ने जो शोधकार्य किया है, वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि प्रचुर जीवनी शक्ति होते हुए भी मनुष्य कभी-कभी प्रतिकूल मौसम या वातावरण में विद्यमान आयन्स से मात खा सकता है।
मौसम की यह प्रतिकूलता या आयन्स की यह कमी क्या होती है व कैसे शरीर व मन को प्रभावित करती है? इस पर व्यापक वैज्ञानिक अनुसंधान हुए हैं। प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकला है कि अगर वायु में ऋणात्मक आवेश वाले आयन अपेक्षाकृत अधिक हों तो मानव मन शांत रहता है, सृजनात्मकता बढ़ती है एवं वातावरण प्रफुल्लित बन जाता है। इसके विपरीत धनात्मक आवेश वाले आयनों की अधिकता व्यक्ति को चिड़चिड़ा व बेचैन बना देती है, काम करने में मन नहीं लगता तथा कभी-कभी उन्मादग्रस्त मनःस्थिति हो जाती है।
ऋण आयन अधिकतर समुद्रीतटों, नदी के किनारों, पहाड़ों, पर्यटनस्थल पर स्थित होते हैं। ऐसे वातावरण में मनुष्य का मन तथा शरीर स्फूर्ति तथा ताजगी महसूस करता है। इसके विपरीत प्रदूषित वातावरण में, औद्योगीकृत स्थानों पर, भीड़ भरी जगहों पर, निर्वनीकृत स्थानों पर, वातानुकूलित कक्षों में, धन आवेश युक्त प्रधान कण अधिक होते हैं।
मौसम अपने इन आयन्स के कारण किस प्रकार जनमानस को प्रभावित करता है, इस पर 'बायोमेटिऑरालाॅजी' नामक विद्या पिछले दिनों तेजी से विकसित हुई है। न्यूयार्क के डाॅ. स्टीफन रोजेन ने एक पुस्तक लिखी है— 'वेदर सेन्सीटिविटी' (संवेदनशील मौसम)। इस पुस्तक में वे लिखते हैं कि, "मानवी स्वास्थ्य के लिए मौसम एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वातावरण में तापमान व नमी में अचानक हुए परिवर्तन मन के ऊपर गहरा प्रभाव डालकर शारीरिक क्रियापद्धति को बुरी तरह झकझोर देते हैं। कभी-कभी कोई व्यक्ति यह शिकायत करे कि मौसम में परिवर्तन के कारण उसे जल्दी थकान आने लगी है, वह चिड़चिड़ा हो उठा है व बेचैनी उसे परेशान करती है, रात्रि को नींद उसे ठीक से नहीं आती, सारा बदन टूटता-सा लगता है, स्नायविक शिथिलता अनुभव होती है, अवसाद व उत्तेजना के दौरे आने लगते हैं, तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि वह बहानेबाजी कर रहा है। कभी-कभी यह सब वातावरण की विद्युत का चमत्कार भी हो सकता है। ये सभी लक्षण जब सामान्यतया स्वस्थ व्यक्ति में दृष्टिगोचर होने लगे तो समुचित उपचार की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह बात अलग है कि अत्यधिक भावुक, संवेदनशील व्यक्तियों में ये लक्षण अधिक तीव्रता से प्रकट होते हैं व मनोबल की दृष्टि से मजबूत, संतुलित व्यक्ति में कम तीव्रता से। मौसम के मानव पर पड़ने वाले प्रभाव संबंधी इस तथ्य के संबंध में चिकित्साजगत में न केवल संदेह-शंका संव्याप्त है, यह भी कहा जाता रहा है कि यह केवल एक बहाना है अथवा मनोवैज्ञानिक अनुभूति है।
हंगरी, रूमानिया, यूगोस्वालिया, आस्ट्रिया, जर्मनी, रूस के चिकित्सकों की यही मान्यता है कि मानवी स्वास्थ्य सुनिश्चित रूप से वातावरण में विद्यमान घटकों से प्रभावित होता है एवं इस पर किए गए उनके शोध-निष्कर्ष भी उनकी मान्यताओं के पक्ष में गए हैं। जबकि अमेरिकन, ब्रिटिश इन मान्यताओं, आँकड़ों से इतना सहमत नहीं हैं। जहाँ तक जनमान्यताओं का प्रश्न है, पूरे विश्व में दो-तिहाई व्यक्ति इस बात को मानते हैं कि मौसम प्रतिकूल रूप से मानवी मन को प्रभावित करता है। इसी कारण मौसम का पूर्वानुमान ज्ञात करने की जिज्ञासा बढ़ती ही चली जा रही है, ताकि समय रहते सावधान रहा जा सके। वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारा शरीर वातावरण से लगातार बिजली पीता रहता है। माध्यम बनते हैं— फेफड़े। ली गई श्वास के माध्यम से ये आवेशित कण अंदर प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह बिजली न हो तो शरीर जी ही न सके, किंतु हवा में तैरते ये आयन्स फेफड़ों के टीश्यूज के माध्यम से स्नायु संस्थान को व समस्त अंग-अवयवों को प्रभावित करते हैं। चूँकि ऑक्सीजन प्राणवायु के साथ फेफड़ों में स्थित सूक्ष्म रक्तवाही नलिकाओं, (कैपीलरीज) द्वारा ही प्रवेशकर अंग-प्रत्यंग तक पहुँचती है, इसके साथ ऋणात्मक आवेश वाले कण भी पहुँच जाते है, यदि वे वातावरण प्रदूषित है तो धन आयन्स अंदर पहुँच जाएँगे व जीवनी शक्ति प्रतिरोधी सामर्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। बहुसंख्य व्यक्तियों में आज यही हो रहा है।
स्वतंत्र इलेक्ट्राॅन से चिपके न्यूट्रल परमाणु का आवेश निगेटिव कहलाता है, जबकि इलेक्ट्राॅनरहित परमाणु पाॅजेटिव आयन कहलाता है। यह विद्युत वातावरण में चारों ओर बिखरी पड़ी रहती है, जिसमें हम साँस लेते हैं। कुछ आयन्स भारी होते हैं व कुछ हलके। धूल, धुआँ और धमाके के साथ जुड़कर ये भारी, धनात्मक व घने हो जाते हैं तथा एलर्जी, दमा जैसी स्थिति पैदा कर सकते हैं।
आयन मानवी काया के सामान्य क्रिया-व्यापार के लिए बहुत जरूरी है। जहाँ भी वृक्ष-वनस्पति, प्राकृतिक वातावरण, निर्झर, निर्मल नदी या सरोवर, समुद्री किनारा, पर्वत आदि होंगे व प्रदूषण की मात्रा कम होगी, वहाँ ऋण आयन्स का वास सर्वाधिक होगा। चिकित्सक इसीलिए ऐसे वातावरण में जाने व कुछ दिन रहकर स्वास्थ्य लाभ की सलाह देते हैं। सेनेटोरियमों का प्रचलन इसी कारण बढ़ा है। जहाँ ऐसा वातावरण नहीं होता— व्यक्ति अवसाद, तनाव, सिरदरद, उदासी से घिर जाता है, जल्दी-जल्दी उत्तेजित होने लगता है, रक्त का दबाव बढ़ जाता है व बीमारी के लक्षण विद्यमान हों तो और भी अधिक बीमार पड़ने के अवसर बढ़ जाते हैं। जबकि इसके विपरीत ऋण आवेशयुक्त वातावरण रोगी को भी स्वस्थ कर देता है। यही कारण है कि आजकल पश्चिम जगत में कार्यालयों में, टैक्सियों में नेगेटिव आयन जेनरेटर खुलकर प्रयुक्त होने लगे हैं।
वैज्ञानिकों का मत है कि असंतुलित प्रतिकूल मौसम, जिसमें नेगेटिव आयन घट जाते हैं, छाती के दरद, बेहोशी, दमा, खाँसी, अपच, आँखों के अंदर तनाव में वृद्धि (ग्लाकोमा), सरदी, जुकाम, एलर्जिक बुखार, पेट का अल्सर, न्यूराइटिस, जोड़ों में दरद आदि रोगों के लक्षणों को बढ़ा सकता है। इसमें आर्द्रता, कुहासा, ठंडक का होना प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं। वे यह भी कहते हैं कि काम में लगन, सिरदरद, मूड, निद्रा, दुर्घटना तथा आत्मघात जैसे लक्षण इस सीमा तक प्रभावित होते हैं कि व्यक्ति की कार्यक्षमता कुंठित हो जाती है एवं बहुसंख्य आत्महत्या के अवसर इसी समय पर बढ़ते हैं।
प्रश्न यह उठता है, किया क्या जाए? क्या प्रतिकूल मौसम के समक्ष हाथ टेक दिए जाएँ? मनश्चिकित्सक कहते हैं कि "नहीं"। व्यक्ति को जूझने का प्रयास करना चाहिए एवं प्राणायाम, ध्यान, शिथिलीकरण, प्राकृतिक साह्चर्य आदि का यथासंभव अधिक अवलंबन लेना चाहिए। इससे प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ती है व प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने का साहस जागता है। यदि मनोबल बनाए रहा जा सके तो मस्तिष्करूपी चुंबक, ऋण आयंस को आकर्षित भी करता रह सकता है। आयंस की महिमा निराली है, उतना ही विलक्षण, क्षमतासंपन्न है— 'मनुष्य'। उसे हार नहीं मानना चाहिए। किसी भी स्थिती में नहीं।