विचारशीलता का परिमार्जन

December 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खेतों में अनाज, शाक, फूल आदि की मूल्यवान फसलें उगाने के लिए उनकी जुताई करनी पड़ती है। नमी और खाद की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है। समय-समय पर निराई-गुड़ाई की व्यवस्था करनी पड़ती है। कृमि-कीटक लग जाने पर उन्हें दवा छिड़ककर मारना होता है। साथ ही ध्यान रखना होता है कि पौधों की हरियाली पर जानवर टूट न पड़े। जब उनके पकने का समय आता है, दाना पड़ता है, तो पक्षियों के झुंड चढ़ दौड़ते हैं। इन सबसे बचाव करना होता है। जो किसान यह सब कर पाते हैं, वे ही धन-धान्य से कोठे भरते हैं।

श्रेष्ठ विचार भी पुष्पोद्यान की तरह लगाने और बढ़ाने पड़ते हैं। उनकी रखवाली का भी समुचित ध्यान रखना पड़ता है। जो इस संदर्भ में असावधानी बरतते हैं, उन्हें वह लाभ नहीं मिलता, जो इस संपदा के बढ़ने पर मिलता और निहाल करता है।

खरपतवार बिना किसी प्रयास के उग आते हैं। उन्हें पानी भी नहीं लगाना पड़ता और न देखभाल की आवश्यकता पड़ती है। जंगलों में अनायास ही झाड़ियाँ उग जाती हैं। आम, ढाक के पौधे बिना किसी संरक्षण के उगते और फैलते रहते हैं। बेशरम बेल के बीज भी हवा के साथ उड़ते चले आते हैं और जहाँ भी जगह पाते हैं, वहीं उगने, बढ़ने और फैलने लगते हैं। जलाशयों पर काई अनायास ही छा जाती है। तालाबों में जलकुंभी इतनी जल्दी फैलती है कि पूरे क्षेत्र को घेरकर बैठ जाती है। कुविचारों को जलकुंभी की बिरादरी का समझना चाहिए। वे न जाने कहाँ से आ जाते हैं और सहज ही फैलने, जड़ जमाने लगते हैं।

मनुष्य अनेक क्षुद्रयोनियों को पार करते हुए इस जन्म का सुयोग प्राप्त कर सका है। पिछली हेय योनियों में जिस प्रकार का जीवनयापन करना पड़ा है, जिस प्रकार स्वभाव रहा है। वे कुसंस्कार बीजरूप में मनुष्य योनियों में भी कहीं छिपे पड़े रहते हैं। तनिक-सा अवसर पाते ही वे उगने और बढ़ने लगते हैं।

समाज में सर्वत्र कुविचारों और कुकर्मों का प्रचलन है। अनपढ़ व्यक्तियों की कमी नहीं, वे स्वेच्छाचार बरतते हैं। मर्यादाओं के पालन का भी ध्यान नहीं रखते। अनुशासनहीन, उच्छृंखल, उद्दंडस्तर का जीवनयापन करते असंख्यों को देखा जा सकता है। उसका विस्तार विषाणुओं की तरह होता रहता है। चेचक, हैजा जैसी बीमारियाँ एक से दूसरे को छूत बनकर लगती हैं। कुविचार भी इसी प्रकार अपना विस्तार करते हैं।

किंतु सद्विचारों को उगाने में पूरे परिश्रम के साथ जुटना पड़ता है और पोषण की सभी सुविधाओं को एकत्रित करना पड़ता है। बबूल चाहे जहाँ उग आते हैं, पर संतरे उगाने के लिए पूरी सतर्कता से काम लेना होता है। सद्विचारों की कृषि करना ही मूल्यवान खेती उगाने की तरह है। जो उसमें सफल होते हैं, वे समृद्ध, संपन्न, और सुसंस्कृत बनते हैं। सत्प्रयोजनों में प्रगति के लिए सुविकसित व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। सद्गुणों की विभूतियाँ ही अनेक प्रकार की सफलताओं का सुयोग बिठाती हैं। प्रतिभावान और प्रामाणिक व्यक्ति ही दूसरों पर अपनी छाप छोड़ते हैं, सम्मान और सहयोग अर्जित करते हैं। इन्हें सत्परामर्श भी मिलता है और उपयुक्त सहकार भी। इस प्रकार अपनी योग्यता, तत्परता और दूसरों की सहकारिता, दोनों मिलकर अभीष्ट प्रगति के लिए आवश्यक वातावरण बनाती हैं। इसी क्रम में आगे बढ़ने का— सफल होने का सुयोग बनता है।

प्रतिभावान व्यक्तित्व सद्विचारों का ही प्रतिफल है। विचार मनःक्षेत्र में छाए रहते हैं। आकांक्षा उभारते हैं। योजना बनाते और जिस लक्ष्य तक पहुँचाना है, उसकी रूपरेखा गढ़ते हैं। इसी आधार पर यह सूझ पड़ता है कि प्रगति के लिए किन साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। किनका परामर्श, मार्गदर्शन, सहयोग अभीष्ट होगा। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपाय खोजे जाते हैं, तालमेल बिठाए जाते हैं और अंततः सफल होकर रहा जाता है। बुरे विचार भी इसी प्रकार फलित होते हैं और सद्विचारों का विस्तार भी इसी क्रम में होता है। विचार बीज है और स्वभाव उसका प्रस्फुटित अंकुर। व्यक्तित्व के रूप में वे ही वृक्ष बनते हैं, परिपक्व होने पर उन्हीं पर बीज के अनुरूप फल आते हैं।

कुविचार व्यक्ति को असभ्य-अनपढ़ बनाते हैं। अनेकों बुरी आदतें भी खरपतवार की तरह साथ ही  उग पड़ती हैं। दुर्व्यसनों की एक शृंखला साथ चलती है। कुकर्मी सहयोगी हर जगह आसानी से मिल जाते हैं। ऐसी दशा में आए दिन कुकर्म ही बन पड़ते हैं। परिणाम दुर्गति के रूप में सामने आता है। हेय आचरण अपनाने वाले भर्त्सना, प्रताड़ना सहते और पतन-पराभव के गर्त्त में गिरते हैं। एक की छूत दूसरे को लगती है, और देखते-देखते चांडाल चौकड़ी गठित हो जाती है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए शरीर को स्वस्थ और सुंदर बनाने के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है, उससे भी बढ़कर विचारों के संशोधन का, परिमार्जन-परिष्कार का प्रयत्न करना चाहिए।

स्वास्थ्य प्रधानतया आहार और व्यायाम पर निर्भर है। ठीक उसी प्रकार मानसिक परिमार्जन के लिए स्वास्थ्य और सत्संग का आश्रय लिया जाना चाहिए। पुस्तकें पढ़ते रहना स्वाध्याय नहीं है, वरन इस प्रयोजन के लिए मात्र उसी साहित्य की जरूरत पड़ती है, जो जीवन की प्रस्तुत गुत्थियों का समय के अनुरूप समाधान प्रस्तुत कर सके। यह लिखा हुआ भी युग मनीषियों द्वारा ही होना चाहिए, क्योंकि वे बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक समाधान सुझाते हैं। पुरातन कथा-गाथाओं को पढ़ते-दुहराते रहना निरर्थक है, क्योंकि वे उस समय को ध्यान में रखकर लिखी गई होती हैं, जो अब से बहुत पीछे रह गया और उन दिनों का चिंतन आज के लिए किसी प्रकार उपयोगी नहीं रहा। यही बात सत्संग के संबंध में भी है। जो समय के अनुरूप है, जिनमें सामयिक समाधान है, उन्हीं को सत्संग में सम्मिलित करने योग्य विचारधारा मानना चाहिए। इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए युगधर्म और व्यावहारिकता का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए। इस योग्य साहित्य और व्यक्ति कठिनाई से ही मिलते हैं, फिर भी ढूँढने पर वे किसी-न-किसी प्रकार कहीं-न-कहीं से मिल ही जाते हैं। प्रश्रय उन्हीं का लिया जाना चाहिए।

मनन और चिंतन भी प्रकारांतर से स्वाध्याय और सत्संग की आंशिक आवश्यकता पूरी करते हैं। अपनी तर्कबुद्धि विकसित की जानी चाहिए और सामने प्रस्तुत समस्याओं में से प्रत्येक पर पक्ष हो या विपक्ष दोनों को आधार मानकर विचार करना चाहिए। इस प्रकार अपनाया गया जीवनक्रम विचारशीलता को परिमार्जित करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118