संकल्प जो फलीभूत हुआ

December 1989

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चौदह वर्ष की आयु में वह विवाहित हो गए। पत्नी अच्छी हिंदी जानती थी। उसके मुख से हिंदी भाषा सुनकर मन में इसे सीखने और निष्णात होने की लालसा जागी। इसे अनुपयुक्त भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लज्जावश और कुछ भविष्य के प्रति आश्वस्त न होने के कारण वह अपनी आकांक्षा उसे बता नहीं सका। फिर पत्नी पितृगृह चली गई। युवक की कामना मन-की-मन ही रह गई। विवाह के चार वर्ष बाद पत्नी का देहांत भी हो गया।

पत्नी के मरने के साथ हिंदी सीखने की अभीप्सा नहीं मरी। उलटे वह बलवती होती गई, किंतु अहिंदीभाषी बंगाल में हिंदी किससे सीखी जाए? यदि मन में संकल्प उभरे, कुछ करने की तड़प जागे तो साधन भी जुट जाते हैं। भले वह अत्यल्प हों, पर अभीप्सु तो कम-से-कम में साध्य की प्राप्ति की कला जानते हैं। यही उनकी विशेषता है। यहाँ भी मन में सीखने की अदम्य चाह ने रास्ता सुझा दिया। उसने ‘सरस्वती’ पत्रिका के अंक पढ़कर अपने अध्यवसाय के बल पर अच्छी हिंदी लिखना आरंभ कर दिया। सरस्वती पत्रिका ने अपनी इस विशेषता के कारण हिंदी भाषा के उन्नयन में बड़ा योग दिया था। इसका श्रेय उसके तात्कालीन संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को जाता है, जिन्होंने कुशल शिल्पकार की तरह अपना दायित्व निबाहा था।

अब तो वह आगे बढ़ा एवं हिंदी में कविताएँ लिखने लगा। कविताएँ तो लिखीं, पर इन्हें छापे कौन? इनके प्रकाशन के लिए तो पत्र-संपादकों पर निर्भर रहना पड़ता है। उसकी सभी कविताएँ लौटकर आने लगी।

पर युवक ने निराश होना सीखा न था। वह जानता था, निराशा का परिणाम है— निष्क्रियता, हताशा, भय, उद्विग्नता और अशांति; जबकि जीवन का अमर्त्य है— सक्रियता, उल्लास, प्रफुल्लता। दोनों परस्पर विरोधी हैं। जीवन है— प्रवाह, निराशा है— सड़न। जीवन पुष्प की तरह उष्ण किरणों के स्पर्श से खिलता है, मुस्कराता है, निराशा का तुषार उसे कुम्हलाने के लिए मजबूर करता है। उसने निराशाजनक भ्रांति को झटक दिया। संघर्ष की राह पर चलने की ठानी। पहले भी उसने अध्यवसाय के सहारे हिंदी सीखी थी। साहित्यकार बनने के लिए तो इसकी कुछ अधिक ही मात्रा अनिवार्य थी।

यद्यपि विपरीतताएँ तो बहुत थीं, तथापि उसने प्रकाशकों से संघर्ष किया। स्वयं पत्रिकाओं का संपादन किया। वहाँ भी यही स्थिति आई। अब संपादकों का स्थान पत्र के मालिकों ने ले लिया था।

संघर्ष चलता रहा। पास में संपदा नहीं, न कोई डिग्री, जिसके सहारे धन कमाया जा सके। उसने छोटे-से-छोटा काम किया। दवाइयों के पैंफलेट लिखे। कभी कुछ किया, पर अंदर में संकल्प था कि जनभाषा के रूप में उभर रहीं हिंदी के माध्यम से ही जनता को जीवनदायी विचार प्रदान करूंगा।

अंत में विजय हुई। एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसने छायावाद को नई दिशा दी। रामकृष्ण वचनामृत, विवेकानंद साहित्य जैसे उत्कृष्ट साहित्य को अनूदित करके हिंदी भाषियों के सामने रखा। जीवन-साधना में निरत यह कर्मयोगी थे—सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'।जिनके साहित्य में पीड़ित मानवता की वाणी गूँजती थी। जो स्वयं में एक औलिया फकीर की मस्ती में जीते थे। उनकी कर्म-साधना निराशा की अंधेरी गलियों में भटके राही के लिए प्रकाशदीप है। जिसके आलोक में हम अपना जीवन संवार-सुधार सकते हैं।



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