सदियों से जड़ जमाए बैठी मान्यताएँ समय के प्रवाह के साथ टूटती चली जा रही हैं व मनुष्य समुदाय यह दावा करने लगा है कि वह न केवल प्रकृति की चरम सीमा पर पहुँच चुका है, वरन धरती, अंबर, पाताल सभी तक पहुँचने की क्षमता भी रखता है। इतना होने पर भी हम पाते हैं कि मानव समाज का प्रगतिशील कहा जाने वाला तबका ही उन रूढ़िवादी अंधपरंपराओं, रीति-रिवाजों को अभी भी स्वयं से ऐसे चिपकाए बैठा है, मानों वे उसका पीछा नहीं छोड़ रही हैं। विवाह संबंधी प्रचलन व विकृतियाँ इसी श्रेणी में आती हैं।
आदिवासियों को, जनजातियों को हम पिछड़े समुदाय का मानते हैं व स्वयं को विकसित, प्रगतिशील चिंतन का पक्षधर, किंतु व्यवहार में उलटा ही देखने को मिलता है। आज भी जनजातियों में इस पवित्र बंधन के साथ जुड़े जो अनुबंध हैं, वे तुलनात्मक दृष्टि से पिछड़ों में कहीं अधिक श्रेष्ठ स्तर के हैं व हमें प्रेरणा देते हैं।
संथाल बिहार की एक जनजाति है। कहने को तो पहाड़ी अंचल में रहने वाले ये आदिवासी लोग हैं, पर विवाह के क्षेत्र में इनमें एक परिपक्वता यह पाई जाती है कि जहाँ अन्य भारतीय जनजातियों में लड़के-लड़की का जल्दी ही विवाह रचा डालने का उतावलापन दिखाई पड़ता है, वहीं संथाली लोग इसके पक्के विरोधी होते हैं। उनकी बिरादरी में लड़के की आयु 25 वर्ष और लड़की की आयु 20 वर्ष जब तक नहीं हो जाती, तब तक शादी की बात सोची तक नहीं जाती। एक बार विवाह बंधन में बँध जाने के बाद फिर ये सदा-सदा के लिए दो शरीर एक प्राण होकर रहते हैं। पत्नी को त्यागना अथवा विवाह के पवित्र-बंधन को तोड़ना इनमें पाप माना जाता है। अतः एक बार जिससे शादी हो जाती है, मन, वचन और प्राण से जीवनपर्यंत उसके साथ निर्वाह कर लेते हैं। इनमें विवाह की प्रथा भी विलक्षण होती है। लड़के-लड़की मेले, बाजार अथवा अन्य किसी सार्वजनिक स्थान में मिलकर स्वयं ही एकदूसरे को पसंद करते और विवाह तय करते हैं। जन्मदर भी इनकी कम है।
नागालैंड की जनजातियों में लड़के का साहसी और बहादुर होना विवाह के लिए प्रथम अनुबंध माना जाता है। ऐसा वर प्राप्त होने के बाद सगाई के रूप में वरपक्ष, वधूपक्ष को एक दुधारू गाय भेंट करता है और एक वर्ष तक लड़का, लड़कीवालों के यहाँ रहकर उनके कृषि एवं विभिन्न प्रकार के अन्य कार्यों में सहयोग करता है। इस बीच दोनों पक्ष यदि एकदूसरे से संतुष्ट हुए तो वर और कन्या की शादी कर दी जाती है। इसे वे एक पवित्र बंधन के रूप में स्वीकारकर जीवन भर सुख-दुःख, हर्ष-विषाद में एकदूसरे का साथ निभाते हैं। दूसरे विवाह की प्रथा नागा जाति में भी नहीं पाई जाती। हमें यह विचित्र लग सकता है कि वधूपक्ष के स्थान पर वरपक्ष को क्यों देना पड़ता है? पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मान्यताएँ समय से नहीं बँधी रहती। हो सकता है कि आने वाले दिनों में सारे समाज में यही प्रचलन चल पड़े कि गुणवत्ता की कसौटी पर खरा उतरने वाला वर ही सुपात्र माना जाएगा।
उत्तर प्रदेश के गढ़वाल और कुमाऊँ जिले के 'भोटिया' जनजाति में भी वर-वधू का चयन स्वतंत्र रूप से लड़के और लड़की पर छोड़ दिया जाता है। वे स्वयं एकदूसरे को पसंदकर विवाह तय करते हैं। विवाह-प्रथा बड़ी विचित्र होती है। लड़के ने लड़की को पसंद कर लिया, इसकी जानकारी वधूपक्ष के माँ-बाप को लड़का भेंट के रूप में कुछ रुपए भिजवाकर देता है। इसी समय इस परिणय की सूचना वह अपने अभिभावक को भी देता है। दोनों पक्षों के सहमत हो जाने पर बारात लड़की वालों के यहाँ आती है और बिना किसी धूम-धाम और नेग-दहेज के वधू को ले जाती है।
“गोंड’ जनजाति में विवाह के अवसर पर किसी प्रकार का धार्मिक कृत्य अथवा उत्सव आयोजन नहीं मनाया जाता। इसमें सीधे-सीधे ढंग से एकदूसरे का चयन कर लेना ही विवाह माना जाता है।
सामान्य प्रचलन के अनुसार हमारे समाज में लड़की पक्ष द्वारा लड़के की तलाश करने की प्रथा ही देखी जाती है, किंतु कुछ जनजाति आदिवासियों में परंपरा इसके ठीक विपरीत है। उनमें वरपक्ष वाले ही कन्या की ढूँढ-खोज करते हैं।
ऐसा ही एक आदिवासी कबीला उत्तर-पूर्व के सीमावर्त्ती क्षेत्रों में निवास करता है। ‘चकमा’ जाति के नाम से जाने जानेवाले इन कबाइलियों में जब पुत्रवधू का चयन कर लिया जाता है और इसकी सूचना उसके पिता को दे दी जाती है तो लड़की का पिता गाँववालों की एक पंचायत बुलाता है, जिसमें गाँव के सभी वयोवृद्ध सम्मिलित होते हैं। इस पंचायत में सभी मिलकर लड़की की सुरक्षा की दृष्टि से उसकी कीमत तय करते हैं। यह कीमत प्रायः इतनी अधिक होती है, जिसे आसानी से दे पाना वरपक्ष के लिए मुश्किल होता है। शादी के अवसर पर इस मूल्य को चुकाना आवश्यक नहीं होता और न लड़की वालों की ओर से वरपक्ष को ऐसा करने के लिए बाधित किया जाता है। यह तो एक प्रकार की अनुबंध-राशि होती है। जिसे निश्चित करना इसलिए आवश्यक होता है कि यदि ससुरालवालों की प्रताड़ना से तंग आकर कन्या अपने जीवन को जोखिम में डाल ले, आत्मघात कर ले तो यह भारी राशि वरपक्ष, कन्यापक्ष को पंचायत के समक्ष चुकाएगा।
विश्व में एक अंचल ऐसा भी है, जहाँ नर का जा पाना और जीवित रह पाना मुश्किल है। ब्राजील के जंगलों में बसे इस क्षेत्र में स्त्रियों का ही वर्चस्व है। इस स्त्रीराज्य की एक मुखिया होती है। इसी का शासन संपूर्ण राज्य में होता है। इसकी झोपड़ी के आगे दो शेर बँधे रहते हैं, यही इस राज्य की रानी की पहचान होते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ की अन्य सामान्य महिलाओं से रानी एक और बात से भिन्न होती है कि उसके शरीर में बालों का अभाव होता है, जबकि दूसरी सभी स्त्रियों के शरीर में लंबे-लंबे बाल होते हैं, जो शरीर ढकने के लिए आवरण का काम करते हैं। यदा-कदा जब ये बाल अधिक लंबे हो जाते हैं, तो इन्हें काटकर इनसे रस्सी भी बनाई जाती है, जो जानवरों के बाँधने के काम आती है।
जब यहाँ पुरुष है ही नहीं, तो यह स्त्रीराज्य बना कैसे? इसकी भी एक रोचक गाथा है। वस्तुतः ब्राजील का यह क्षेत्र स्वर्ण-संपदा से भरा पड़ा है। यहाँ सोने का विशाल भांडागार है। इसी की लोभ-लिप्सा में आकर दूसरे क्षेत्र के लोग उस स्त्रीराज्य को अपनी कन्या भेंट देकर बदले में सोना प्राप्त करते हैं। यह व्यापार-विनिमय एक पहाड़ी पर नियत स्थान पर होता है। जो व्यक्ति अपनी कन्या के बदले सोना प्राप्त करना चाहता है, वह अपनी बेटी को उस स्थान पर ले जाता है, जहाँ स्त्रीराज्य की कुछ प्रतिनिधि पहले से मौजूद रहती हैं। वह उस व्यक्ति से बालिका प्राप्तकर बदले में उसे सोना देकर विदा करती हैं। जिस दिन बालिका उस महिला राज्य में पदार्पण करती है, उसी दिन से उसका विभिन्न क्षेत्रों में प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। राज्य के रीति-रिवाज, नियम-कानून के साथ युद्ध-विद्या का भी अभ्यास कराया जाता है, फलतः जब वह वयस्क होती है तो एक वीरांगना के रूप में उभरकर सामने आती है। पुरुषों का इस राज्य में प्रवेश निषेध होता है। जो कोई पुरुष इस नियम का उल्लंघन करता है, वह फिर जीवित लौटकर नहीं जा पाता।
यह वर्णन मात्र कौतूहलवर्द्धन हेतु नहीं, वरन सामने रखने के लिए प्रस्तुत की गई एक सच्चाई है । नारी एवं विवाह के संबंध में हमारा दृष्टिकोण अब आमूल-चूल बदलना चाहिए। प्रगति सही अर्थों में तभी मानी जाती है, जब विवेक एवं औचित्य की कसौटी पर मान्यताओं को कसा जाए। मनुष्य को अपने चिंतन का पिछड़ापन स्वीकार करने में कोई लाज नहीं आनी चाहिए एवं हर परिवर्तन को खुले दिमाग से स्वीकारना चाहिए।