एकता और समता नए युग का, नए विश्व का नया लक्ष्य है। यों सर्वत्र विषमता का इन दिनों बोलबाला है। गरीबों-अमीरों की, शिक्षित-अशिक्षितों की, समर्थ-असमर्थों की, नर और नारियों की, दुर्बल और सशक्तों की, शोषक-शोषितों की बिरादरियाँ स्पष्ट रूप से बढ़ी देखी जा सकती हैं और उनके बीच पाया जाने वाला अंतर इतना बड़ा प्रतीत होता है कि एक को खाई और दूसरे को टीले की उपमा दी जा सके। यह खाइयाँ किस प्रकार पटेंगी और हर क्षेत्र में फैली हुई विषमताएँ किस प्रकार मिटेंगी, यह समझना साधारण बुद्धि के लिए कठिन हो जाता है।
असमंजस इस बात का है कि मनुष्य की संकल्पशक्ति, उत्कंठा और तत्परता अभीष्ट परिवर्तन का पक्ष यत्किंचित ही लेती हैं। समर्थ प्रयत्न भी योजनाबद्ध रूप से बड़े परिमाण में नहीं हो पा रहे हैं। छुट-पुट आवाजें उठती ओर छोटे स्तर कि क्रिया-प्रक्रिया ही बन पड़ती दीख पड़ती है। मोटा अनुमान यही लगता है कि छुट-पुट प्रयत्नों का प्रतिफल यत्किंचित ही होना चाहिए और उसे सुगठित होने में बड़ा समय लगना चाहिए।
सार्थक मापदंड में इस प्रकार का असमंजस स्वाभाविक है, क्योंकि लोक-व्यवहार में छोटे प्रयासों की थोड़ी प्रतिक्रिया ही होती देखी गई है, किंतु यदि युगनिर्माण जैसे विश्वव्यापी और 600 करोड़ मनुष्यों का चिंतन, चरित्र और व्यवहार बदलना है, उनका स्वभाव, अभ्यास जिस दिशा में बह रहा है, उसके लिए कोई और समर्थ प्रयास सामने आना चाहिए। आतंक के दबाव में हुए परिवर्तनों का प्रतिफल देखा जा चुका है। उनसे नए प्रकार के आतंक फूटे हैं और परिणाम नफे के स्थान पर घाटे का ही रहा है।
तब इस प्रकार का असाधारण परिवर्तन कैसे संभव होगा? इसके लिए इस तथ्य और सत्य को ध्यान में रखना होगा कि इस वसुधा का निर्माता एवं नियंता कोई दूसरा है। मनुष्य की क्षमता बड़ी है, पर ऐसा नहीं कि इसी के सहारे सारी विश्व-व्यवस्था चलती रही है या चलेगी।
बड़े प्रयास मनुष्यों के प्रयत्नों से ही संपन्न हुए हैं, यह भी ठीक है, पर यह मान बैठना भी ठीक नहीं कि जिस संबंध में उसने उपेक्षा दिखाई है, वह बन ही नहीं पाता। दास-दासियों का क्रय-विक्रय लंबी अवधि से चला आ रहा था। यह भी आशा नहीं थी कि वे उत्पीड़ित व्यक्ति मिल-जुलकर समर्थों से टक्कर लेने और उन्हें परास्त करने में सफल होकर ही रहेंगे। उनकी किसी ने बड़ी वकालत भी नहीं की। उनके पक्ष में कोई युद्ध भी नहीं लड़ा गया। इतने पर भी इतिहासकारों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि जाग्रत विश्वात्मा के दबाव से वे निविड़ बंधन अपने आप ही छूटते गए और बिना युद्ध का सरंजाम जुटाए क्रांतिकारी योजनाएँ बनी, दुनिया में से दासप्रथा उठ गई। उसका समर्थन अपनी मौत मर गया, यद्यपि अमीरों को इससे कम हानि नहीं हुई, फिर भी वे मन मारकर बैठे रहने के सिवाय और कुछ कर नहीं सके। दैवेच्छा अपने ढंग से अपने समय पर पूरी होकर रही।
राजतंत्र की परंपरा युग-युगांतरों से चली आई है। राजा को भगवान मानने की बात न जाने क्यों, सीखी और सिखाई जाती रही है। उस समुदाय के पास शक्ति, क्षेत्र, सैनिक और साधनों की कमी नहीं, फिर भी न जाने क्या हुआ कि राजमुकुट धरती पर लोटते और धूल-धूसरित होते चले गए। उन्हें अपने वैभव की रक्षा करने का समय भी नहीं मिला और राज्य में राजा के रूप में सोए हुए सत्ताधारी भोर होते ही अपना समस्त वर्चस्व गँवाकर साधारण नागरिकों जैसे होकर रह गए।
जमींदारों, साहूकारों, सामंतों का भी एक वर्ग था, जो प्रजाजनों की खुशहाली का अपने आप को स्वामी मानता था। जिस तरह चाहे, उस तरह निचोड़ता रहता था, पर देखते-देखते वे परिस्थितियाँ न जाने किस हवा में विलीन हो गई। कर्ज की सुविधा बैंकों के माध्यम से सरलतापूर्वक ली जा सकती है।
और भी कई क्रांतियाँ अपने-अपने ढंग से हुई हैं। मनुष्य का पुरुषार्थ नगण्य और दैवी इच्छा के माध्यम से बन पड़ा संयोग अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। परदाप्रथा अब कहीं किन्हीं कोंतरों में ही अपने नाममात्र के अस्तित्व की झलक-झाँकी देती देखी जाती है, अन्यथा संसार में से उसका प्रचलन एक प्रकार से उठ गया ही समझा जा सकता है। जाति-पाँति, ऊँच-नीच की मान्यता किन्हीं गिरे हुए खंडहरों में ही छिपी जब कभी दीख जाती है, पर उसका संवैधानिक और लोक-व्यवहार में प्रचलन समाप्त हुआ ही समझा जाना चाहिए। सतीप्रथा कभी गौरवान्वित रही है, पर अब तो उस पर कानूनी प्रतिबंध है और इसके लिए उकसाने तथा महिमामंडित करने पर कोई भी जेल की हवा खा सकता है।
अंग्रेजी साम्राज्य, जिसके क्षेत्र में कभी सूर्य-अस्त नहीं होता था, ऐसी परिस्थितियों से आ घिरा कि अपने बोरिया-बिस्तर हर कहीं से समेटकर अपने छोटे दायरे में सीमित रहने के लिए ही विवश हो गया। नैपोलियन, सिकंदर, चंगेज खाँ जैसे आततायियों की करतूतें अपनी परंपरा देर तक नहीं निभा सकी। आक्रांताओं की अपनी फूट ने ही उन गिरोहों का अस्तित्व समाप्त कर दिया, जो कभी अजेय समझे जाते थे। चंद्रमा पर मनुष्य चहल-कदमी करेगा, इसकी कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी। अब तो अंतरिक्ष में बस्तियाँ बसाने की योजना कार्यान्वित होने जा रही है।
पुराणगाथाओं का अधिकांश कलेवर दैवी शक्तियों के चमत्कारी वर्णनों से ही भरा पड़ा है। अवतारों, संत, सिद्धों में से अधिकांश ऐसे हैं, जिनके द्वारा स्वयं ऐसे कार्य संपन्न किए तथा दूसरों से कराए गए हैं, जो मनुष्य की साधारण शक्ति के सहारे बन पड़े, ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता, फिर भी वे हुए हैं। इसे देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उन्हें किसी अदृश्य शक्ति का अवलंबन मिला और उसके सहारे उनने प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में परिवर्तित करने में विजय पाई।
दार्शनिकों, वैज्ञानिकों को प्रायः ऐसी ही अंतःस्फुरणा होती रही है, जिसके मार्गदर्शन में उनका अंतस् उस दिशा में चल पड़ा, जो उनके लिए ही नहीं, अन्य असंख्यों के लिए भी श्रेयस्कर सिद्ध हुआ। वस्तुतः दैवी अनुकंपा का दार्शनिक रूप यही है।
अदृश्य ईश्वर का दर्शन कर सकना किसी प्रकार भी संभव नहीं। इंद्रियों की सहायता से तो जड़ पदार्थ ही देखे जाते हैं। ईश्वर की भी यदि कोई छवि कल्पित की जाए तो भी वह किसी प्राणी या पदार्थ से मिलती-जुलती होने के कारण भौतिक ही कही जाएगी, जबकि सृष्टा की सत्ता अदृश्य एवं निराकार है। भक्तों की कल्पना उनकी इच्छानुसार भी ध्यान स्थिति में साकार रूप धारण कर सकती है, पर तत्त्वदर्शी उसे विराट ब्रह्म के रूप में देखते और विश्व-वसुधा में विद्यमान सत्प्रवृत्तियों के समर्थन में अपनी सेवा अर्पित करते हैं। यही वास्तविक पूजा-अर्चा है। उसका उपयोग एवं स्वरूप यही है कि उच्चस्तरीय आदर्शों का अवलंबन लेने के लिए भावना और क्षमता को पूरी तरह नियोजित कर सकने जैसी अदम्य उमंगें मन में उठें। इक्कीसवीं सदी में ऐसे ही अवलंबन के धनी अनेक प्रतिभाशाली उत्पन्न होंगे और वे नवसृजन की दिव्य योजना को पूरा करने में कार्यरत दिखाई पड़ेंगे।