विज्ञान की समग्रता जीवन मूल्यों के साथ जुड़कर ही

December 1989

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विगत कुछ शताब्दियों से मानवीय जीवन में विज्ञान की भूमिका बढ़ गई है। वर्त्तमान जीवन के प्रत्येक आयाम पर इसकी छाप अंकित है। परिणामतः जीवन-पद्धति एवं दृष्टिकोण तीव्रगति से परिवर्तित हुए हैं। इसी के कारण समूचा संसार एक लघु परिधि में सिमट-सा गया है। इसी का परिणाम है कि जीवन बहुत आरामदायक बन गया है।

इतने पर भी इसकी प्राभाविकता का एक अन्य आयाम भी है, वह है— मानव मूल्यों का पतन। डॉ. राधाकृष्णन अपनी कृति— 'आध्यात्मिक सहचर्य' में इसका तात्पर्य 'शुद्ध मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा का ह्रास' बतलाते हैं। उनके अनुसार यह तत्त्व व्यक्ति के जीवन तक सीमित न रहकर समूचे समाज में व्याप्त है।

विज्ञान समूचे समाज में परिव्याप्त इन मूल्यों के पतन का कारण क्यों बना? इसकी विवेचना हेतु विज्ञान के प्रति पूर्वकालीन तथा अद्यतन दृष्टिकोण पर विचार करना होगा। वैदिककाल में विज्ञान धर्म का ही एक अभिन्न अंग था। इस काल में कलाएँ, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, नैतिक व सामाजिक व्यवस्था, दर्शन के मणि-मुक्तक जिस केंद्रीय सूत्र में पिरोए थे, वह था— अध्यात्म। प्रत्येक कार्य एवं प्रत्येक विधा का यही लक्ष्य था।

इसी कारण उस काल में प्रत्येक व्यक्ति निज के कार्य को करते हुए इन मूल्यों को अक्षुण्य बनाए रखता था। यही नहीं मनुष्यत्व के परिपाक के रूप में देवत्व की अनुभूति भी करता था। उसका स्वयं का कार्य ही धर्माचरण था। धार्मिक बनने के लिए उसे कुछ अलग से करने की आवश्यकता न थी। इस स्थिति को निरूपित करते हुए गीताकार का कहना है— "श्रेयान्स्वधर्मो हि"। बात भी औचित्यपूर्ण है। जब व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक आयाम में मूल्यों की उत्कृष्टता अविच्छिन्न हो, तब श्रेष्ठता के अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है?

इस भारतीय चिंतन की प्राभाविकता को ग्रीक के क्लासिकल युग में देखा जा सकता है। इस काल में भी विज्ञान को तत्त्व दर्शन का एक अभिन्न अंग माना गया। तत्त्व दर्शन का संबंध वस्तुओं की प्रकृति तथा उसमें निहित सत्य के ज्ञान की खोज से होता है। इसमें देखने व विचारने की विधा समग्र होती है। विशिष्ट वस्तु की पहचान या उसके स्वरूप की जानकारी समग्रता की परिधियों में ही की जा सकती है।

जीवन का एक पक्ष अन्य दूसरे पक्षों से अभिन्नतापूर्वक जुड़ा हुआ है। अतएव किसी एक पक्ष की विवेचना संपूर्ण व्यवस्था के एक अंग के रूप में ही कर सकते हैं। इस कारण विज्ञान की एकाकी व्यवस्था न हो सकना स्वाभाविक है।

यह यथार्थ है कि वैदिक युगीन तथा क्लासिकल युगीन जीवन में विज्ञान का स्थान महत्त्वपूर्ण तो था, किंतु निरपेक्ष नहीं। निरपेक्ष स्थान न होने के कारण ही उसे धर्म तथा दर्शन की परिधि के अंतर्गत लिया जाता था। अतएव यह स्वाभाविक ही था कि जीवन के प्रत्येक कार्य का मूल्यांकन जीवन के लक्ष्य व आदर्शों के संदर्भ में किया जाए।

इसी कारण विज्ञान की गतिविधियों का मूल्यांकन अच्छा जीवन, अच्छा समाज, अच्छी व्यवस्था आदि आधारों पर किया जाता था। धर्म के बड़े घेरे में विज्ञान का संबंध मूल्यों से रहा। इन मूल्यों के द्वारा ही व्यक्ति अपने निजी हितों से ऊपर उठकर संपूर्ण समाज के हित में निर्णयात्मक कदम उठा सकता है।

पुनः जागरणकाल में विज्ञान के प्रति अपनाए गए दृष्टिकोण में पर्याप्त अंतर आया। कला की भाँति इसने भी धर्म से संबंध-विच्छेदकर स्वायत्त स्थान ग्रहण किया। इस स्वायत्तता के स्वरूप की नई व्याख्या सत्रहवीं शती के बेकन, हाब्स, देकार्ते आदि विचारकों ने प्रस्तुत की। वह विज्ञान जो पहले सुसंबद्ध एवं परिमार्जित जीवन के लिए प्रयोग किया जाता था, उसे मानवी शक्ति की अभिवृद्धि में प्रयोग किया जाने लगा। परिणामस्वरूप प्राकृतिक विज्ञान का उदय हुआ, जो दर्शन और धर्म दोनों से ही मुक्त था।

अन्य शब्दों में यहीं पर विज्ञान का लक्ष्य प्रकृति का विश्लेषणकर सत्य की शोध की अपेक्षा प्रकृति को जीतना हो गया। इस प्रवृत्ति की बढ़ती निरंतरता से विज्ञान को मानव इच्छाओं का दासत्व स्वीकारना पड़ा। व्यक्ति की बढ़ती हुई इच्छाओं ने नूतन उपभोक्ता सामग्री के अन्वेषण पर बल दिया।

परिणामतः व्यक्ति की सोच का दायरा इसी में सिमटता जा रहा है कि जीवन पहले से अधिक विलासितापूर्ण और आरामदेह कैसे मनाया जाए? यह सोच जीवन में लालच, ईर्ष्या, जोड़−तोड़ व विघटन उभारने वाली ही सिद्ध हुई है। फलतः व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन से मानवीय मूल्यों का संबंध-विच्छेद हो जाना अस्वाभाविक नहीं है।

इस असामंजस्यपूर्ण स्थिति से बचने के लिए ही वैदिक चिंतकों ने समस्त विधाओं को अध्यात्म के सूत्र में पिरोया था। इसी से आग्रह करते हुए अरस्तू ने कहा था कि, “विज्ञान व तकनीक को यदि जीवन मूल्यों से मुक्त किया गया तो परिणाम खतरनाक होंगे”। संकीर्ण स्वार्थपरता से ग्रसित व्यक्ति एक छोटी-सी चीज को त्याग नहीं सकता है। इसके विपरीत जीवन-मूल्यों से प्रेरित व्यक्ति आदर्शों के लिए बड़ा-से-बड़ा त्याग करने में नहीं हिचकिचाते। यह प्रेरणा धार्मिक शिक्षाओं से ही मिल सकती है।

आधुनिक दृष्टिकोण ने विज्ञान का जो स्वरूप गढ़ा है, उसी का परिणाम मूल्यों के पतन के रूप में गोचर है। उसकी निषेधात्मक प्राभाविकता से व्यक्ति और समाज दोनों ही अछूते नहीं बचे हैं। व्यक्ति भिन्नता और अलगाव की भावन से ग्रसित होकर मात्र मशीन का पुरजा बनकर रह गया है। सामुदायिक स्नेह तथा लगाव का स्थान एकाकीपन ने ले लिया है। साधन-सुविधाओं की बहुलता भी व्यक्ति को संतुष्टि प्रदान नहीं कर रही है। जीवन में अस्त-व्यस्तता का ही वर्चस्व है।

कारक की खोज तथा मूल्यों की स्थापना के लिए एक समन्वय-साधना की आवश्यकता है। सामाजिकता का अभिनव गठन तभी संभव है, जब विज्ञान के प्रति हमारा दृष्टिकोण परिवर्तित हो। इसमें जीवन मूल्यों का समावेश हो। इसके लिए आवश्यक है— विज्ञान, दर्शन व धर्म का समन्वय। रूसो विज्ञान एवं दर्शन के समन्वय पर जोर देते हुए कहते हैं कि, "विज्ञान प्रस्तुत कर सकता है, तो दर्शन इस नई व्याख्या को अच्छी व्यवस्था का रूप दे सकता है।"

रूसो की यह मान्यता ठीक है, किंतु इस अच्छी व्यवस्था को व्यावहारिक स्तर की प्रायोगिकता में अवतीर्ण करना धर्म का कार्य है। यही दोनों में संतुलन स्थापित करता है। संतुलन की यह सामंजस्यपूर्ण स्थिति वैज्ञानिक अध्यात्म है, जिसे सिद्धांत के रूप में वैज्ञानिक अध्यात्मवाद कहा जा सकता है।

इसमें विज्ञान की सत्यनिष्ठापूर्ण शोधबुद्धि, दर्शन की मूढ़ मान्यताओं से मुक्त तर्कपूर्ण व्यवस्था तथा अध्यात्म के शाश्वत जीवन मूल्य सभी का समावेश है। इस सिद्धांत को आचरण में उतारकर व्यक्ति एक तरफ सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं, मूल्यों को सुसंबद्धता का आधार प्रदान करके समाज को प्रगति की ओर बढ़ा सकता है। दूसरी ओर इससे व्यक्ति का निर्णय निजी स्वार्थ संकीर्णता से ऊपर उठेगा एवं सामूहिकता के, संघशक्ति के विकास के संबंध में भी सोचने लगेगा। यही समय की आवश्यकता भी है।



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