मनीषी की सेवा-साधना

December 1989

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संत और शिल्पी, शिल्पी और संत। दोनों एकदूसरे के पूरक अथवा यों कहें, दोनों एक हैं। संत वही है, जिसने अपने को भली-भाँति गढ़ा हो। गढ़ने की समूची कुशलता अपने जीवनरूपी पत्थर पर दिखाई हो, उसे एक देवता के रूप में सँवारा हो, जिसमें यह कुशलता है, वही दूसरों को सँवार-निखार सकता है।

यह बात जीवन के संदर्भ में जितनी सच है, साहित्य रचना के संबंध में उतनी ही खरी उतरती है। साहित्य रचना सिर्फ शब्दों व अक्षरों का कौतुकपूर्ण विन्यास नहीं, वरन वाक्यों और रचना के माध्यम से रचनाकार उन भावों को उड़ेलता है, जिनसे उसका अंतर लबालब भरा हुआ है। रचना तभी जीवंत होती और अपना अनुकरण करने को बाध्य करती है। अन्यथा व्याकरण और शब्दों की दृष्टि से ठीक रहने पर भी निष्प्राण बनी रहती है।

आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी के ये विचार सिर्फ मन की तरंगें भर नहीं है। उनका समूचा जीवन इन्हीं भावों से ओत-प्रोत था। प्रभावी साहित्यकार के पीछे उनका प्रभावी जीवन था। जिसे उन्होंने इन्हीं विचारों के अनुरूप गढ़ा— ढाला था।

एक बार उन्होंने पुरुलिया कुष्ठाश्रम के बारे में एक लेख पड़ा। पढ़कर जो भाव आए उन्हें संपादक को लिख भेजा— "भाई! तुम्हारा लेख पढ़कर मैं रो पड़ा। मैं बड़ी देर तक विह्वल रहा। धन्य उफमैन साहब! मेरे हृदय में अजीब परिवर्तन हो गया है। दूसरों का दुःख सहन नहीं किया जा सकता। पेंशन के 7 रुपए में से 5 भेज दिए हैं। अब मन बेचैन है कि सातों क्यों नहीं भेजे जा सके?"

उनका यह अंतस् क्या किसी संत के अंतराल से कम है। वह कहा करते थे— "साहित्यकार को समाजसेवी होना आवश्यक है, तभी वह समाज में जाग्रति पैदा करने वाला साहित्य दे सकता है।" स्वयं उन्होंने ऐसा किया भी। उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय किसानों की सेवा में बिताया। अंत तक इसे निभाते रहे। श्री बनारसी दास चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा है— "द्विवेदी जी पूरी तल्लीनता से किसानों के पास जाते, उनकी समस्याएँ सुनते और निवारण के प्रयास करते। एक बार किसी किसान का लड़का जंगली खाद्यान्न की रोटी खा रहा था। आगे चले तो पाया कि एक किसान नया अन्न खाकर बीमार पड़ गया है। लौट चले घर की ओर, एक के लिए सब्जी, दूसरे के लिए दवा लेकर हाजिर हो गए।"

बनारसी दास जी के पूछने पर उन्होंने कहा— " सेवा और साहित्य रचना को दो समझना भूल है। ये दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू भर है।" स्थिति को देखे, जाने और उसके साथ गहरा तादात्म्य बिठाए बिना भला समाधान कैसे प्रस्तुत किया जा सकता है? इससे एक लाभ और मिलता है कि विभिन्न अंचलों में रहने वाले जनसमुदाय की मानसिक संरचना के बारे में गंभीर और बारीक जानकारियाँ मिलती हैं। इसी आधार पर प्रभावी ढंग से शैली का परिवर्तन, गठन और सुधार किया जा सकता है।

फिर उन्होंने बर्नार्ड शॉ के कथन का उल्लेख करते हुए कहा— "साहित्य सृजन एवं समाज निर्माण दोनों एक हैं। जीवन का उपयोग इस महान उद्देश्य के लिए किया जाए। हम ईश्वर की एक शक्ति के रूप में विकसित हों, न कि क्लेश, शोक, और उपालंभों के ज्वरग्रस्त और क्षुद्र मृतपिंडों के रूप में।"

द्विवेदी जी ने स्वयं को ईश्वर की एक शक्ति के रूप में समझा और सेवा-सृजन को एक किया। गणेशशंकर विद्यार्थी, मैथिलीशरण गुप्त जैसे अनेकों को सामान्य से उठाकर मूर्धन्य बनाया। एक समूचा युग ही द्विवेदी युग के रूप में सँवारा। क्या आज के तथाकथित साहित्यकार इस साहित्यशिल्प के सर्वज्ञ से कुछ सीख ले पाएँगे?


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