महानता का प्रगति-पथ

December 1989

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छोटे-से-छोटे परमाणु में शक्ति का इतना विशाल भंडार भी होगा, यह कौन सोच सकता है? पर अकल्पनीय-सी लगने वाली यह बात शत प्रतिशत सच है। शक्ति का यह भंडार अनेकानेक शहरों का नामोनिशान मिटा सकता है। इसका सृजनात्मक उपयोग न जाने कितने शहरों को विद्युत प्रदान कर सकता है।

मनुष्य के अपने जीवन में भी यही स्थिति है। उसके द्वारा किए जाने वाले छोटे-छोटे काम उसे महानता की ओर ले जाने अथवा पतन के गहरे गर्त्त में गिराने का सोपान बनते हैं। आत्मनिरीक्षण करके निरंतर प्रगति करता हुआ साधारण बालक गंगाधर लोकमान्य तिलक बन जाता है। सामान्य और मंदबुद्धि समझा जाने वाला बालक महान वैज्ञानिक आइंस्टीन बन जाता है।

समय की छोटी-से-छोटी इकाई क्षण बीतते-बीतते दिन, महीने तथा वर्षों गुजर जाते हैं। जो अपने जीवन में इन छोटे-छोटे क्षणों का सही, समुचित सदुपयोग कर सकें, उन्हीं ने जीवन में महान कार्य संपादित किया।

महानता का आधार लघुता ही रही है। जिसने इसे समझा और लघुता को अपनाया, वह महान बनता गया। एक ही छलाँग में पहाड़ की चोटी पर जा पहुँचने की बात कभी चरितार्थ नहीं होती। इसके लिए तो छोटे-छोटे कदमों के सहारे बढ़कर ही शीर्ष स्थान पर पहुँचा जाता है।

जिस किसी ने लघु समझी जाने वाली बातों का महत्त्व समझ लिया, उसे बड़ी उपलब्धियाँ हासिल करते देर नहीं लगी। महापुरुषों के जीवन में महानता का कारण यही रहा है। उन्होंने अपने प्रत्येक छोटे और साधारण नजर में उपेक्षित समझे जाने वाले क्रियाकलापों को औचित्य व विवेक की कसौटी पर जाँचा-परखा। जो सही था, उसे अंगीकार किया। इसी नीति ने उन्हें महानता के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।

जो छोटे-छोटे सेवाकार्य हम कर सकते हैं, वे नहीं करते। जो नन्हीं-नन्हीं भूलें हम रोज दुहराते हैं, उन्हें दूर नहीं करते, जो लघु सद्गुण हम अपना सकते हैं, उन्हें नहीं अपनाते, तो समझना चाहिए कि हम स्वयं के उत्कर्ष के प्रति उदासीन तथा मानवीय गरिमा के अर्जन के लिए प्रयत्नशील नहीं है।

छोटे समझे जाने वाले लोगों की सम्मिलित शक्ति ने व्यापक और प्रबल आंदोलन का स्वरूप लिया है। इन्हीं लोगों के सामूहिक प्रयासों ने समाज का स्वरूप बदला है। इसे अंधेरे और कंटीले वर्त्तमान से निकालकर उज्ज्वल भविष्य में ला सके हैं। जिन ईसा के मत में आधी दुनिया दीक्षित है, वह अपने निजी जीवन में बहुत छोटे आदमी थे।

छोटे होने का यह मतलब नहीं है, वह कुछ कर नहीं पाता। एक गरीब कुरूप, तिरस्कृत ब्राह्मण चाणक्य में भारत के टूटते, बिखरते, नष्ट होते स्वरूप को देखकर संवेदना जागी। अपने अपमान के विष को तो वह पचा गया था, पर सामान्यजन की छटपटाहट उससे देखी न गई, मातृभूमि का दरद सहा न गया। बस उभरती कर्मठता, सुनियोजित बौद्धिक क्षमता ने 'वृहत्तर भारत' को जन्म दिया।

भारी-भरकम दिखने वाले शरीर में प्राण का स्वरूप अत्यंत लघु है। जिसका कोई भार नहीं है, किंतु इसके निकलते ही शरीर निष्प्राण हो जाता है। इसे इतना बेकार समझा जाता है कि जलाने, गाड़ने में ही भलाई सूझती है। महत्ता लघु प्राणों की है, वृहत शरीर की नहीं।

छोटे-छोटे आदमी आज यह संकल्प लें कि इस भारी-भरकम दिखने वाली अनैतिकता, स्वार्थपरता, संकीर्णता, दोष, दुष्प्रवृत्तियों, कुरीतियों, मूढ-मान्यताओं से जूँझकर नवसृजन का नवविहान इस धरती पर लाएँगे तो देखते-ही-देखते यह निविड़ अंधकार मिट जाएगा। नवयुग के नवप्रभात की रश्मियाँ हमारे वैयक्तिक, पारिवारिक व सामाजिक जीवन में प्रकाश उड़ेलती नजर आएँगी। अपने सामने खड़े उत्तंग शिखर की ओर टकटकी लगाने और भयभीत, निराशा होने की बजाय अपने छोटे-छोटे पाँवों की क्षमता को पहचानें, जो उस पर विजय पाने के लिए मचल रहे हैं।


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