“यदि वह न होती तो शायद यह न कर पाता, जो कर सका।” ये शब्द साम्यवाद के जनक कार्लमार्क्स के हैं, जो उन्होंने अपनी पत्नी जेनी के लिए कहे थे। उनका सारा जीवन अभावों एवं कष्ट-कठिनाइयों में बीता। तब वह लंदन की ऐसी बस्ती में रहते थे, जो समूचे शहर में अपने गंदेपन के लिए प्रसिद्ध थी। यहाँ रहने का कारण सिर्फ एक ही था— सस्ता मकान। उनकी आय इतनी न थी कि वह किसी अच्छे मकान का किराया चुका सकें। जिस मकान में वह रहते थे, उसे भी कहाँ पूरा ले पाए थे, मकान के दो ही कमरे उनके हिस्से में थे, जिसके किराए के लिए समय-समय पर उन्हें झिड़कियाँ सुननी पड़तीं। कारण आमदनी का कोई अच्छा स्त्रोत न था। नए समाज की संरचना का नक्शा बनाने में ही सारा समय खप जाता। फिर पेट की रोटियों के लिए समय कहाँ था? पत्र-पत्रिकाओं में उनके जो लेख निकलते, उसके पारिश्रमिक से जैसे-तैसे निर्वाह चलता।
इन विषमताओं में रहते हुए भी 'दास कैपिटल' के रूप में वह कम्युनिज्म की सारगर्भित योजना प्रस्तुत कर सके, जिसे आज एक-तिहाई संसार मानता है। इन अमूल्य विचारों की उपलब्धि का श्रेय प्रत्यक्ष रूप से भले ही मार्क्स को जाता हो, पर वह जानते थे, उनकी इस चिंतन-साधना को सुचारु रूप से किसने गतिमान किया? यह और कोई नहीं, उनकी पत्नी थी— श्रीमती जेनी मार्क्स। इन्हें उतना ही श्रेयभाजन समझा जा सकता है, जितना कि स्वयं मार्क्स, बल्कि कुछ अर्थों में उनसे भी अधिक।
उस मकान में दो कमरे थे, जिनमें कि मार्क्स का परिवार रहता था। उन दोनों कमरों में ही रहना, बैठना, लिखना, पढ़ना, भोजन बनाना आदि काम संपन्न होते। सामान्य स्तर की स्त्री रही होती तो शायद यह अनभ्यस्त न होता, पर जेनी मार्क्स एक संपन्न घराने की बेटी थी। उनके पिता समृद्ध, उच्च पद प्रतिष्ठित होने के साथ-साथ दबंग और मिलनसार व्यक्तित्व के स्वामी थे। चाहा होता तो जेनी का संबंध ऐसे युवक के साथ हो सकता था, जहाँ जीवन की सारी सुविधाएँ और सुख-साधन जुटाए जा सकते, लेकिन जेनी ने अपनी हैसियत से साधारण ही नहीं, उम्र में भी चार वर्ष कम युवक मार्क्स को जीवनसाथी के रूप में चुना।
उन्होंने जब यह निश्चय किया कि वह मार्क्स की ही जीवन सहचरी बनेगी तो पिता और परिवार वालों पर मानो बज्र टूट पड़ा। बहुतेरा समझाया, दुबारा सोचने की सलाह दी। उस व्यक्ति के पास अभ्यस्त जीवन-सुविधाओं को प्राप्त कर पाना तो क्या, दो जून पेट भर भोजन पाना भी अनिश्चित होगा। इस पर जेनी ने उत्तर दिया— “तो क्या हुआ? हजारों लोग ऐसे भी तो है, जिन्हें एक जून भी खाना नसीब नहीं होता।” बात बढ़ाते हुए उसने कहा— “सामाजिक क्रांति जब जरूरी हो जाती है, तब विचार लोगों के जीवन में लागू होने के लिए जबरदस्ती अपना मार्ग ढूँढ निकालते हैं और समाज को एक नया स्वरूप प्रदान करते हैं। मार्क्स इसी महान घटनाक्रम के लिए विचार की खोज कर रहे हैं। उनके इस कार्य में सुख भी है, तृप्ति और शांति भी। मैं भी इसी की भागीदारी के लिए उनसे जुड़ रही हूँ”।
उसकी दृढ़ता के आगे सभी को झुकना पड़ा। बाद में वह कहा करती— “मेरा कर्त्तव्य हर परिस्थिति में पति का सहयोग देना है। मुझे अपने कष्टों के लिए चिंता नहीं, वरन गर्व है; इस बात का कि मैंने एक ऐसे व्यक्ति को अपना जीवनसाथी चुना है, जिसके अंतःकरण में पीड़ित मानवता के लिए अपार वेदना है।” जेनी को पाकर मार्क्स धन्य हो गए,
समाज के प्रति इस वेदना में शामिल होने के लिए आज भी ऐसे अनेकों की आवश्यकता है, जो समृद्धि को त्याग गरीबों को गले लगा सकें।